सद्गुरु शरणं मम

सद्गुरु शरणं मम

अपनी 1 साल की 50,000 की पूंजी लेकर एक किसान ने मुम्बई की 5 स्टार होटेल में एक रात रहने का सोचा। अपना रौब जमाने के लिए सभी मित्रों को भी इस बात की जानकारी दी। अपनी ग्रामीण वेश-भूषा में धोती-पगड़ी पहनकर सज-धज कर आखिर एक दिन सुबह-सुबह होटेल में वह पहुँचा। Receptionist के पास जाकर उसने रूपये की थैली फेंकी, और एक रात के लिए रूम की मांग की। Receptionist आवभगत करके उन्हें कमरा दे दिया।

 

दूसरे दिन सुबह होटेल का मैनेजर उसके हाल-चाल पूछने उसके रूम में गया। मैनेजर को देखते ही वह किसान तो उस पर बरस पड़ा, “इसे कोई होटेल कहते हैं ? पूरी रात नींद नहीं आई। मेरे 50 हजार पानी में गए।” मैनेजर ने सहानुभूति जताते हुए पुछा, “क्यों सर! यहाँ इतनी स्वच्छता और सारी सुविधाएँ होने पर अभी आपको क्या दिक्कत हुई ?”

 

किसान बोला, “क्या खाक सुविधा ? ये देखो, फूंक मार-मारकर मेरे गाल फूल गए, लेकिन ये दीया नहीं बुझा। (क्योंकि वह बल्ब था) अरे ! गाँव में तो एक फूंक मारो, तो तुरन्त दीया बुझ जाता है।” 

 

मैनेजर हंसते हुए बोला, “सर हो जाता गलती आप-की नहीं है, मुझे बुलाया होता तो इस प्रकार एक स्विच दबाते ही बल्ब बन्द हो जाता। यह फूंक से बन्द नहीं होता।”

 

हमारे जीवन की सच्चाई भी यही है, अपने दोष रूपी बल्ब पर फूंक मारने के पुरुषार्थ की बजाय कोई सद्गुरु यदि स्विच बंद कर दे तो बेड़ा पार हो जाए।

 

प्रखर साधना करने पर भी, कठिन त्याग-तपस्या मैं डूबने पर भी, स्वाध्याय के पारगामी बननें पर भी, लेकिन सद् गुरु और उनकी कृपा की उपेक्षा की, तो यह सब कुछ निष्फल है। मगर यदि 

 

सद्गुरु का सहारा मिल जाए तो असंभव भी संभव बना जाता है।

 

महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने गुरु-तत्त्व विनिश्चय ग्रन्थ में कहा है, 

 

 

 

“उज्जियथरवासाण वि जं किर 

कट्ठस्स णत्थि साफल्लं ।

तं गुरुभत्तीए च्चिय कोडिन्नाइण व हविज्जा ।।”

 

 

 

गृहत्याग करके भी जिनके बड़े अनुष्ठान सफल नहीं होते ऐसे कौडिन्य आदि तापसों की माफिक वो ही अनुष्ठान गुरुभक्ति मात्र से सफल हो जाते हैं। 

 

शर्त बस इतनी ही है कि चाहिए मात्र सद्गुरु।

 

एक सशक्त सद्गुरु, जिन्होंने अनेकों के जीवन में प्रवेश करके उनके दोषों के Switch बन्द किये – वे थे सिद्धांत दिवाकर प. पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराज।

 

➡️ अपना खोकर दूसरों का जीवन संवारना – यह पूज्यश्री की पहचान थी।

 

➡️ अधम जीव वे होते हैं जो दूसरों का बिगाड़ कर खुद का सजाते हैं, 

 

➡️ मध्यम जीव वे होते हैं, जो खुद का काम करके दूसरों का करते हैं, और 

 

➡️ उत्तम जीव वे होते हैं जो खुद का कार्य गौण कर के भी दूसरों का जीवन संवारते हैं।

 

जितने भी लोग पूज्यश्री के सम्पर्क में आए थे वे सब एक सुर में यही बात कहते हैं कि पूज्यश्री का समावेश उत्तम जीवों में होता है।

 

एक बार मुलुंड संघ में एक विशिष्ट प्रभावक आचार्य के चातुर्मास की जय बोली जा चुकी थी। माटुंगा संघ ने भी उन्हीं आचार्य के चातुर्मास की इच्छा जताई थी। मुलुंड संघ में जय बोलने के बावजूद उन आचार्य श्री की माटुंगा में चातुर्मास की भी इच्छा हुई, उन्होंने यह बात पूज्यश्री जय-घोषसूरिजी को बताई। पूज्यश्री ने मुलुंड संघ के अग्रणियों को बुलाकर कहा, कि “मुलुंड में जिन आचार्य श्री के चातुर्मास की जय बोली गई है, उनको चातुर्मास हेतु माटुंगा भेजने की मेरी भावना है। मैं आपको अन्य आचार्य श्री चातुर्मास के लिए देता हूँ।”

 

तब उनके सहवर्ती महात्माओं ने पूज्यश्री को कहा, कि “जो आचार्य स्वयं चातुर्मास स्थान बदलना चाहते हैं, आप उन्हें ही सारी बात करने को क्यों नहीं कहते, आप सब कुछ अपने सर पर क्यों ले रहे हो ? उनका कड़वा घूंट आप क्यों पी रहे हो?” उस वक्त पूज्यश्री मार्मिक शब्दों में सिर्फ इतना ही बोले, “हम थोड़ा सहन करें, और इससे यदि दूसरे को लाभ होता हो, तो इसमें हमारा क्या जाता है ?”

 

‘स्व’ के विस्मरण में ही सन्त की कसौटी होती है, और इस कसौटी में पूज्य श्री First Class नहीं बल्कि Gold Medalist थे। और खुद कष्ट उठाकर दूसरों का कार्य करने का उनका दाक्षिण्य गुण दीक्षा के पहले दिन से लेकर अन्तिम दिन तक अखंड रूप से वर्धमान रहा।

 

हर व्यक्ति में अच्छाई देखना यही पूज्यश्री का परिचय था। 

 

द्रोणाचार्य ने एक बार युधिष्ठिर को एक नगर के दुर्जनों की List बनाने के लिए भेजा, और दुर्योधन को सज्जनों की List बनाने के लिए कहा। दोनों उस नगर में गए, और कुछ समय बाद लौटे। दोनों के कागज खाली थे, युधिष्ठिर को कोई दुर्जन नहीं मिला, और दुर्योधन को कोई सज्जन नहीं मिला।

 

पूज्यश्री भी युधिष्ठिर जैसे ही थे। उन्हें हर व्यक्ति सज्जन ही लगता था। अच्छाई और बुराई दृश्य में नहीं, दृष्टि में होती है, और दृश्य के सामने पूज्यश्री की दृष्टि हमेशा निर्मल ही रहती थी।

 

आश्रित वर्ग की चूक हुई हो तो वे उसे सुधारने के लिए अवश्य टोकते थे, किन्तु गलती करने वाले साधु के प्रति उनकी दृष्टि निर्मल ही रहती थी। इसीलिए उनका सबके प्रति सद् भाव हमेशा नजर आता था।

 

सभी प्रश्नों का सटीक समाधान देना पूज्यश्री की खास कला थी। कैसा भी प्रश्न हो, भले ही शास्त्रीय हो या शारीरिक, प्रशासनिक हो या व्या-वहारिक हो, उनके पास सदैव सटीक समाधान रहता था। वे जिनशासन के अद्वितीय Search Engine थे।

 

किसी भाई को दीक्षा लेने के भाव थे, लेकिन घर वालों की ओर से समर्थन नहीं था। समझाने के लिए बात की, तो घर वालों ने गुगली फेंकी, कि यदि वे एक बार हमारे साथ विदेश घूमने चले, तो हमारी ओर से दीक्षा की Permission पक्की। उस भाई ने विदेश न जाने का प्रण लिया हुआ था। वह पूज्यश्री के पास अपनी समस्या लेकर आये। गुरुदेव ने भी सांप भी न मरे और लाठी भी न टूटे, ऐसा यॉर्कर मारा, और कहा, “घर वालों से कहो, कि पहले दीक्षा का मुहूर्त Final करते हैं,  फिर मैं विदेश घूमने के लिए तैयार हूँ। 

 

यह तो व्यवहारिक समस्या का एक उदाहरण मात्र था, शास्त्रीय प्रश्नों में तो एक स्वतन्त्र शास्त्र बन जाए इतने किस्से है।

 

मैं अन्त में यही कहना चाहूँगा, कि पुस्तकालय के सभी ग्रन्थों ने मिलकर जीवन्त स्वरूप धारण करने का निर्णय लिया, जिसके फलस्वरूप पूज्य श्री का अवतरण हुआ। सुज्ञेषु किं बहुना। 

 

( समझदार को ज्यादा क्या बताना? )

 

ज्ञान-प्रतिभा, संघ-भक्ति, चारित्र-परिणति, श्रमण -वात्सल्य, महान गीतार्थता आदि अनेक गुणों की  Certified Dictionary जैसे प. पू. आचार्य श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराज साहेब के चरणों में वन्दन।

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