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अभग्नसेन कथा

अमावस्या की मध्यरात्रि बीत चुकी थी। राजा हस्तिपाल की दानशाला में विराजमान प्रभुवीर ने विपाकसूत्र के पाप विपाक के तीसरे अध्ययन का आरंभ किया।

 

पुरिमताल नामक नगर था। नगर के ईशान भाग 

 

में अमोघदर्शी नामक एक सुंदर उद्यान था। उस उद्यान के एक कोने में अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक मंदिर था।

 

इस नगर में राजा महाबल राज करता था। महा-बल के राज्यकाल में नगर के सभी निवासी सुखी और स्वस्थ थे।

 

नगर के ईशान भाग में कुछ आगे चलकर एक घना जंगल शुरु होता था। जगल में बहुत आगे जाकर उसके बाद पर्वतीय विस्तार का आरंभ हो जाता था। छोटी-बड़ी अनेक गुफाओं से भरे पर्वत के किनारे पर चोरों के रहने के लिए चोरपल्ली थी। यह विस्तार शालाटवी नाम से जाना जाता था। इस पल्ली के चारों ओर बांस की जाली से निर्मित एक मज़बूत घेरा बना हुआ था और पानी से भरी एक घाटी थी। चोरों को जब भी पानी की आवश्यकता होती तब वे इसी पानी से अपना काम चला लेते थे, क्योंकि इसके अलावा दूर-दूर तक कहीं भी पानी की सुविधा नहीं थी। उपरांत इस शालाटवी में आने-जाने के कईं गुप्त द्वार भी थे। इसके जानकार लोग ही उसका उपयोग करके आ-जा सकते थे। चुराई गई चीजों के मालिक यहाँ तक अपनी चीज़ें लेने आ तो जाते, लेकिन बेचारे इस पल्ली में प्रवेश नहीं कर पाते थे।

 

इस शालाटवी की चोरपल्ली में पांच सौ चोर रहते थे। इन चोरों का एक सेनापति था, उसका नाम था विजय।

 

सेनापति विजय को धर्म से अधिक अधर्म में श्रद्धा थी। अधर्म की बातों में उसे बड़ा आनंद आता था। वह अधर्म का अनुयायी था, एक अधर्म दर्शी था। अधर्म में उसे विशेष रूप से अनुराग था। अधर्म का आचरण करना ही उसका स्वभाव था। अधर्म से ही उसका जीवनयापन होता था। सारे जीवन में मारो, काटो, छेदो और भेदो के अलावा उसके पास मानो और कोई शब्द ही नहीं थे। हमेशा हिंसा से भरे काम करने की वजह से उसके हाथ हमेशा रक्त से रंगे रहते थे।

 

विजय शूरवीर, साहसी, दृढ़-प्रहारी, शब्दवेधी और एक महान योद्धा था। तलवार बाज़ी में वह निपुण था। उसका नाम आस-पास के नगरों में बदनाम था। पांच सौ चोरों का नेतृत्व धारण करने वाले विजय ने अपनी पल्ली में न जाने कितने ही चोर, व्यभिचारी, जुआरी, जेबकतरे, डाका डालने वाले, धूर्त, बिना हाथ, कान और नाक के लूले-लंगडे, नककटे और निर्लज्ज आदि अनेक असभ्य लोगों को आश्रय दिया था।

 

आस-पास के गांव, नगरों और पथिकों को लूटना यही उसका प्रमुख पेशा था। चोरी करना और डाका डालना उसके लिए बाएँ हाथ का खेल था। गाय-भैंस आदि पशुओं को चुरा ले जाने में भी वह बेहद चालाक था। अरे! यहाँ तक की राजा महा-बल के सेवकों द्वारा प्रजा से वसूल की हुई लगान भी वह चुटकियों में चुरा कर गायब हो जाता था।

 

सेनापति विजय की स्वर्गलोक की अप्सरा जैसी रूपमती पत्नी थी। उसका नाम था स्कंदश्री। सेनापति विजय के साथ संसार के सुख भोगते हुए स्कंदश्री गर्भवती हुई। गर्भावस्था के तीन महीने पूर्ण हुए तब स्कंदश्री को मानसिक पीड़ा उत्पन्न हुई। उसे लगा कि धन्य है वे माताएँ जो स्वजनों, मित्रों और संबंधियों की महिलाओं से घिरी हुई हैं, स्नान आदि मंगल कार्य कर, बहु-मूल्य अलंकारों से सुसज्जित हैं। खान-पान व भोजन आदि कर पुरुष के वस्त्र धारण कर, सेना-पति की भाँति शरीर पर लोहे का कवच पहन, अनेकविध शस्त्रों को हाथ में लिए, सुंदर संगीत के नाद से सारे आकाश को भर देती हुई वह शालाटवी चोरपल्ली के चारों ओर देखती घूमती और अपना दोहद शांत करने का प्रयास करती थी। वह सोचती थी कि इस प्रकार भला कब मेरा दोहद पूर्ण होगा? यदि मेरा दोहद अच्छे से पूरा हो तो कितना अच्छा हो?

 

दिन-रात स्कंदश्री को अपना दोहद पूरा करने का ही विचार आता था। लेकिन ऐसा न होने से वह उदास रहने लगी। दिनों-दिन उसका शरीर क्षीण होने लगा। सारा दिन वह ज़मीन की ओर ताकती रहती और खोई-खोई सी बैठी रहती थी।

 

सेनापति विजय की तेज़ नज़रों से स्कंदश्री की यह मानसिक अस्वस्थता छिपी न रही। उसने पूछा, “देवानुप्रिये! तुम उदास क्यों दिखती हो? क्यों तुम्हारा मन आर्त्तध्यान कर रहा है?”

 

स्कंदश्री ने ज्योंही अपने दोहद की अपूर्णता की बात की, कि तुरंत विजय ने पूरे उत्साह के साथ अपनी भार्या स्कंदश्री की मंशा-पूर्ति के प्रयत्न किए। थोड़े ही समय में उसका दोहद पूर्ण होने के कारण स्कंदश्री अत्यंत प्रसन्न हो गई। इतना ही नहीं, सुखपूर्वक अपने गर्भ का वहन करने लगी।

 

नौ महीने पूरे होते ही स्कंदश्री ने एक पुत्र को जन्म दिया। सेनापति विजय बेहद प्रसन्न हुआ। अपने वैभव के अनुरूप दस दिनों का उत्सव कर; ग्यारहवें दिन मित्रों, जाति बंधु और रिश्तेदारों को बुलाकर, स्वादिष्ट व्यंजनों से भरा भोजन करवाया और सबके सामने घोषित किया कि, यह बालक जब गर्भ में था तब उसकी माता को दोहद उत्पन्न हुआ था। माता का वह दोहद पूरा हुआ, भग्न नहीं हुआ इसलिए इस बालक का नाम अभग्नसेन रखा जाता है।

 

पांच-पांच धायमाताओं द्वारा अभग्नसेन का लालन-पालन हुआ और कालक्रम से उसने बाल अवस्था को पार कर युवावस्था में प्रवेश किया। माता‌-पिता ने बड़े उल्लास से आठ रूपवती कन्याओं के साथ अभग्नसेन का विवाह किया। माता-पिता ने प्रीति दान के तौर पर आठों कन्याओं को हर चीज़ आठ-आठ की गिनती में दी। देवलोक की याद दिलाए ऐसे महलों में आठ पत्नियों के साथ अभग्नसेन मनुष्यलोक के भोग भोगने लगा।

 

पानी के प्रवाह की भाँति अभग्नसेन का जीवनकाल संसार के सुख भोगने में बीतने लगा। सेनापति विजय की आयु पूर्ण होने से मृत्यु हुई। पिता की मृत्यु से अभग्नसेन का दिल टूट गया। पांच सौ चोर भी अत्यंत दुखी हुए। सबने साथ मिलकर पूरे सम्मान के साथ सेनापति विजय के मृत देह का अंतिम संस्कार किया। कुछ समय बीतने के बाद अभग्नसेन का शोक कुछ कम हुआ।

 

सभी पांच सौ चोरों ने मिलकर सेनापति विजय के स्थान पर अब अभग्नसेन को बिठाने का निर्णय लिया। सभी चोरों ने एक बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी चोर-पल्ली में चोरों के सेनापति के स्थान पर स्थापित किया। अभग्नसेन न केवल पिता के पद पर आरूढ़ हुआ बल्कि अपने पिता के अधर्म के सारे लक्षण भी उसके जीवन में आरूढ़ हुए। पिता की तरह वह भी चोरी, डाका डालना आदि सारे अधर्म कार्यों में तेज़ हो गया। इतना ही नहीं बल्कि कईं कामों में तो वह अपने पिता से भी आगे निकल गया। पुरिमताल के आस-पास के गाँवों में लोगों के धन-दौलत लूट कर उसने सभी पर ऐसा कहर बरसाया था कि लोगों में त्राहि-त्राहि मच गई थी। सभी गाँव वालों ने मिलकर यह तय किया कि अभग्नसेन का कहर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है अत: उससे मुक्त होने के लिए हमें राजा महाबल के पास जाकर शिकायत करनी चाहिए।

 

सबने एकमत होकर मिलकर कुछ भेंट साथ में ले जाकर राजा महाबल के पास अपनी व्यथा कथा सुनाई, ‘हे राजन! चोरों का सेना-पति अभग्नसेन हमारी धन-संपदा, पशु धन आदि सब लूट कर हमें निर्धन बना रहा है। पिछले कुछ समय से उसने हमें परेशान करने में कुछ बाकी नहीं रखा है। हे महाराज! हम आप के राज में चैन से रहना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हम आप की छत्रछाया में निर्भय बनकर रहें।’ इतना कहते-कहते उनकी आँखों में आंसू आ गए। वे सभी राजा के पैरों में गिर पड़े।

 

गाँव के लोगों की दुःख भरी विनती सुन कर राजा महाबल गुस्से से लाल पीले हो गए। उनकी आँखें बड़ी हो गई और तुरंत ही उन्होंने दांत पीस कर दंडनायक को बुला-कर कहा, ‘अभी के अभी शालाटवी जाओ, वहाँ जा कर सेनापति अभग्नसेन की पल्ली को लूट लो और वहाँ के सेनापति को ज़िंदा पकड़ कर मेरे सामने हाज़िर करो।’

 

महाराजा महाबल की आज्ञा को शिरोधार्य कर दंडनायक ने सैन्य को आदेश दिया। सारा सैन्य अपने हथियारों से सुसज्जित हो कर तैयार हो गया और बिगुल और नगाड़ों से सिंहनाद करते-करते दंडनायक ने पुरिमताल नगर से बाहर निकल कर शालाटवी की ओर प्रस्थान किया।

 

पुरिमताल नगर के आस-पास घूम रहे सेनापति अभग्नसेन के गुप्तचरों को राजा महाबल के दंड-नायक द्वारा शालाटवी पर होने वाले आक्रमण का पता चल गया। उन्होंने तुरंत ही यह समाचार अभग्नसेन को पहुँचाए।

 

सेनापति अभग्नसेन को यह समाचार मिलते ही तुरंत उसने पांच सौ चोरों को बुलाकर गंभीर मंत्रणा की। मंत्रणा के अंत में सेनापति अभग्नसेन ने स्वयं निर्णय घोषित किया, ‘दंडनायक शाला-टवी की चोरपल्ली में प्रवेश करे उससे पहले ही उसे रास्ते में ही घेर लेना।’ पांच सौ चोरों ने अपने मालिक की इस घोषणा को तुरंत स्वीकार कर लिया।

 

सेनापति अभग्नसेन स्नान, भोजन आदि कर अपने शस्त्रों से सज्ज हुआ। अपने सैन्य को भी उसने तैयार होने का आदेश दिया। मध्याह्न का समय होते ही गगनभेदी सिंहनाद करते हुए अभग्नसेन ने अपने सैन्य के साथ शालाटवी से प्रस्थान किया। रास्ते में भूख न लगे इसलिए खाने-पीने की भी सारी व्यवस्था कर दी गई थी। घने व गहरे वन में दिन-रात चल कर सेनापति अभग्नसेन पांच सौ चोरों के साथ एक ऐसे स्थान पर आ पहुँचा कि जहाँ से दंडनायक पर अचानक ही हमला कर सके।

 

इस ओर दंडनायक भी रात-दिन चल कर ठीक उसी स्थान से गुज़र रहे थे कि जहाँ अभग्नसेन अपने सैन्य के साथ छिपा हुआ था। सैन्य के साथ गुज़र रहे दंडनायक को देखकर अभग्नसेन अपने सैनिकों के साथ दंडनायक पर टूट पड़ा।

 

अचानक हुए इस आक्रमण से दंडनायक और उसके सैनिक हड़बड़ा उठे। उनके तो होश ही उड़ गए। इस स्थिति का अभग्नसेन और उसके सैन्य ने पूरा लाभ उठाया। दंडनायक के सैनिकों पर वे तूफान की भाँति टूट पड़े और उसकी सेना का बड़ा बुरा हाल किया। पांच सौ चोरों की सेना ने एक साथ मिलकर राजा महाबल के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। उनकी सेना के हाथी, घोड़े और रथों का तो नामोनिशान मिटा दिया। स्वयं दंडनायक को भी अपने रथ से उतार फेंक अपमानित कर उसका बुरा हाल किया। अपने नायक का यह हाल देख शेष सैनिक भी अपनी जान बचाकर इधर-उधर भाग गए। दंड-नायक भी जैसे-तैसे कर बड़ी मुश्किल से पुरि-मताल नगर पहुँचा।

 

राजा महाबल को अपनी पराजय के समाचार देने दंडनायक ने बड़ी मुश्किल से अपने पाँव उठाए। बलहीन शरीर, तेजहीन चेहरे के साथ राजा के सामने उपस्थित हो कर उसने कहा, ‘महाराज! हमारे पास अश्व बल, गज बल, रथ बल और योद्धाओं की पूरी सेना होते हुए भी हमारी पराजय हुई, इसके पीछे कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है – अभग्नसेन को जंगल के सारे गुप्त इलाकों का पता होना। उसे पहाड़ियों के ऊँचे-नीचे सारे इलाकों की जानकारी है, जब-कि हमें मुख्य मार्ग के अलावा उस इलाके की कुछ भी जानकारी नहीं। तत्पश्चात् हमसे भी अधिक मात्रा में उनके पास खाने-पीने की चीज़ें थीं। महाराज! इन्हीं कारण वश हमारे पास चतु-रंगिणी सेना होने के बावजूद हमारी बुरी तरह से हार हुई। हम ज़िंदा रहकर भी अभग्नसेन को पकड़ नहीं पाए।’

 

दंडनायक की बात सुनकर राजा महाबल भी सोच में पड़ गए। राजा महाबल बहुत ही चतुर और बुद्धिशाली राजा थे। उन्होंने बारीकी से सोच-विचार किया। अभग्नसेन को यदि हराना है तो बल तो कम नहीं आएगा। उसके साथ या तो चतुराई से या तो छल से ही काम लेना होगा।

 

यह विचार कर राजा महाबल ने सबसे पहले सेनापति अभग्नसेन के मित्रों, जाति बंधुओं, रिश्ते-दारों आदि को भरपूर सोना, चाँदी, रत्न आदि देकर अपनी ओर लालायित करने का प्रयत्न किया। (ताकि अभग्नसेन से उनको अलग कर सके) दूसरी ओर सेनापति अभग्नसेन को भी किसी बड़े राजा को दी जाए ऐसी एक से एक मूल्यवान भेंट भेजकर उसे भी फाँसने का प्रयास किया।

 

कुछ समय बीतने पर राहा महाबल ने पुरिमताल नगर में एक बहुत ही विशाल, आकर्षक, मनोहर, सैकड़ों स्तंभों से शोभित एक भवन का निर्माण किया। यह भवन पर्वत के शिखर के जैसा आकार वाला था अतः उसका नाम कुटाकार भवन रखा गया। इस भवन के उद्घाटन के समय सारे नगर में दस दिनों के एक भव्य उत्सव का आयोजन किया गया।

 

इस उत्सव में चारों ओर विशेष रूप से निमंत्रण भेजा गया। सेनापति अभग्नसेन को निमंत्रण देने हेतु राजा महाबल के आदेश अनुसार उनके परिवार के पुरुष शालाटवी की ओर निकल पड़े। दिन-रात यात्रा कर रहे परिवार के पुरुषों ने एक सुनहरी सुबह को चोरपल्ली शालाटवी में प्रवेश किया। अभग्नसेन और उसके परिवार ने सभी की बहुत आवभगत की।

 

स्नानादि कर सभी परिवार के लोगों ने सेनापति अभग्नसेन से विनती की, ‘हे देवानुप्रिय! पुरिमताल नगर के राजा महाबल ने नवनिर्मित कुटाकार शाला के उद्घाटन के अवसर पर दस दिन के एक उत्सव का आयोजन किया है। इस अवसर पर आप स्वयं वहाँ आने का अनुग्रह करेंगे या आप के लिए भोजन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प माला, अलंकार आदि यहीं पर भेज दें?’

 

राजा महाबल के इस सहसा निमंत्रण से प्रभावित हुए अभग्नसेन ने कहा, ‘हे भद्र सज्जनों! राजा महा-बल को मेरा प्रणाम कहना, और साथ में कहना कि आपके दिए निमंत्रण से मैं अति प्रसन्न हुआ हूँ। मेरे सत्कार हेतु आपको ये सारी वस्तुएँ यहाँ तक भेजने का कष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं, मैं स्वयं ही वहाँ उत्सव में शामिल होने आ जाऊँगा।’ यह सुनकर परिवार के पुरुष आनंदित हो उठे। वे भी अभग्नसेन की आवभगत से संतुष्ट होकर आनंद पूर्वक पुरिमताल जाने को निकल गए।

 

इस ओर सेनापति अभग्नसेन ने भी पुरिमताल नगर जाने की तैयारी आरंभ कर दी। अपने परिजनों और रिश्तेदारों समेत थोड़े ही दिनों में शालाटवी चोरपल्ली से निकलकर अभग्नसेन ने भी सपरिवार पुरिमताल नगर में प्रवेश किया। राजा महाबल के साथ भेंट होते ही दोनों ही बेहद खुश हुए। अभग्नसेन ने राजा महाबल को जय-विजय से सम्मानित किया इतना ही नहीं, महाराज को उचित मूल्यवान उपहारों से भी नवाज़ा। राजा महाबल ने भी प्रसन्नता से सारी भेंट का स्वीकार कर अभग्नसेन को कृतज्ञ किया।

 

राजा महाबल के आदेश से अभग्नसेन का नई बनी कुटाकार शाला में ही रहने का प्रबंध किया गया।

 

अभग्नसेन के जाने के बाद राजा ने अपने परिवार के पुरुषों को बुलाकर कहा, ‘तुम सभी विपुल मात्रा में भोजन तैयार करवाओ। भिन्न-भिन्न प्रकार के पेय द्रव्य तैयार करवाओ। मीठे फलों व मुखवास से थालियाँ सजाओ। इसके अलावा खुशबूदार पुष्प मालाएँ, कीमती वस्त्र और मूल्य-वान आभूषण और भाँति-भाँति की मदिरा को तैयार कर सेनापति अभग्नसेन की सेवा में – कुटा-कार शाला में पहुँचाओ।’

 

परिवार के पुरुषों ने राजा के आदेश अनुसार सारी वस्तु कुछ ही समय में कुटाकार शाला में पहुँचा दी। सेनापति अभग्नसेन ने भी स्नानादि कर अपने परिवार के साथ भर पेट भोजन किया। अंत में पांच प्रकार की मदिरा का पान कर मदोन्मत्त हो कर भवन में यहाँ-वहाँ घूमने लगा।

 

गुप्तचरों के ज़रिये राजा महाबल को यह समाचार मिलते ही उसने परिवार के पुरुषों को आदेश दिया, ‘सबसे पहले पुरिमताल नगर के दरवाज़े बंद कर दो और सेनापति अभग्नसेन को ज़िंदा पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो।’

 

राजा की आज्ञा अनुसार अभग्नसेन को पकड़ कर रस्सियों से बाँध कर महाबल के सामने उपस्थित किया गया। राजा महाबल ने अभग्नसेन को उसके भूतकाल के बुरे कर्मों को याद दिला कर राज पुरुषों से कहा, ‘इस पापी को आज छोड़ना नहीं। उसके दोनों हाथ पीठ के पीछे बाँध दो। फिर हाथी, घोड़े, सशस्त्र सैनिकों के साथ उसे राजमार्ग के भिन्न-भिन्न चौराहों पर ले जाओ। हर एक चौराहे पर उसके सामने ही उसके आगे क्रमानुसार उसके चाचा, चाची, बेटे, पुत्रवधू, दामाद, बेटी, पोते, नाती पोते-पोतियाँ, नाती-नातिन, ताऊ, बुआ, मौसी, मौसा, मामी, मामा और इसके मित्र, जान-पहचान वाले, जाति बंधु सभी को दंडित करो। उसके सामने ही एक-एक को मार कर उनके राई जितने टुकड़े कर अभग्नसेन को ही खिलाओ। उनके शरीर से निकला लहू भी उसे पिलाओ। साथ ही अभग्नसेन को भी चाबुक से मार-मार कर उसी के शरीर के मांस के छोटे-छोटे टुकड़े कर उसे ही खिलाओ और उसे अपना ही लहू पिलाओ।’

 

राजा महाबल के आदेश के अनुसार राज पुरुषों ने एक ओर उसके परिवार के लोगों को इकट्ठा कर उन्हें मार कर उनका लहू उसे पिलाया। मांस के टुकड़े खिलाए और दूसरी ओर अभग्नसेन के शरीर से मास खींच-खींच कर उसके टुकड़े कर उसी को खिलाया और उसे उसी का लहू पिलाना शुरू किया। अभग्नसेन और उसके परिवार के लोगों की दर्दनाक चीख़ों से सारा आसमान गूँज उठा।

 

हे भव्य जनों! उन दिनों हम भी पुरिमताल नगर में थे। एक दिन सुबह के पहले प्रहर का उपदेश पूरा होने के बाद सभी नगर जन अपने-अपने स्थान पर चले गए थे। मध्याह्न होते ही गणधर गौतम मेरी अनुमति लेकर गोचरी के लिए निकले। राजमार्ग में उनकी दृष्टि अभग्नसेन पर पड़ी। अभग्नसेन की गहरी – अति गहरी पीड़ा देख उनका हृदय द्रवित हो उठा। नगर में से बाहर निकल कर वे मेरे पास आए, शीश झुकाकर उन्होंने मुझे अभग्नसेन की घोर पीड़ा की बात बताई। फिर मुझसे पूछा, ‘भगवंत! अभग्नसेन अपने पूर्व जन्म में कौन था? और वह अपने कौन से कर्म का फल भुगत रहा है?’

 

गौतम की जिज्ञासा को संतुष्ट करने हेतु मैंने कहा, ‘गौतम! आज से असंख्य साल पूर्व इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में पुरिमताल नामक एक समृद्ध नगर था। उस नगर में उदित नामक एक राजा राज करता था। उसी नगर में निर्णय नामक एक व्यापारी था, जो कि अंडों का व्यापार करता था। वह धनवान तो था लेकिन धर्मी नहीं था। वह धनिक था, किंतु संतुष्ट नहीं था।

 

निर्णय के पास अनेक मनुष्य नौकरी करते थे। ये सारे नौकर कौए, कबूतर, उल्लू, बगुले, मोर, मुरग़े आदि अनेक जलचर, थलचर, नभचर प्राणियों के अंडों को बक्सों में भरकर निर्णय को पहुँचाते थे।

 

निर्णय इन अंडों को अपने अन्य नौकरों को सौंप देता। ये नौकर भी उन अंडों को तवे, कढ़ाई पर रख कर उसे तलने, सेकने और पकाने का काम करते थे। उसके बाद नगर के बीच की दुकानों पर जा कर उन्हें बेच देते थे और अपना गुज़ारा करते थे।

 

स्वयं निर्णय भी तले हुए, सेके हुए और पके हुए अंडों का भोजन करता था। ऊपर से भिन्न-भिन्न प्रकार की मदिरा का पान करता था।

 

इस प्रकार सैकड़ों साल तक निर्णय ने हिंसक व्यापार और मांसाहार आदि करके अत्यधिक पाप कर्मों को बांध लिया। अंत में एक हज़ार साल का आयु व्यतीत करके मृत्यु के बाद वह तीसरे नरक में नारकी बन कर उत्पन्न हुआ। सात सागरोपम जितने लंबे काल तक नरक की पीड़ा भोग कर वहाँ से स्थान भ्रष्ट होकर, विजय नामक चोर सेनापति की पत्नी स्कंदश्री के उदर में अभग्नसेन रूप में उसने जन्म लिया।’

 

अभग्नसेन का वर्तमान जन्म कह कर मैंने गौतम से कहा, ‘गौतम! अभग्नसेन का अभी पूर्व जन्म के पाप कर्मों का उदय चल रहा है। उसी की वजह से घोर – अति घोर पीड़ा उसे भुगतनी पड़ रही है।’

 

अभग्नसेन का संपूर्ण कथानक सुनने के बाद गौतम ने मुझसे दूसरा प्रश्न किया, ‘भगवंत! चोर सेनापति अभग्नसेन यहाँ से मर कर कहाँ जाएगा?’

 

तब मैंने कहा, ‘आज दोपहर को अभग्नसेन को सूली पर चढ़ाया जाएगा। सैंतीस साल की आयु पूर्ण कर रौद्र ध्यान में मृत्यु प्राप्त करके वह पहली नरक में नारकी के तौर पर उत्पन्न होगा। एक सागरोपम तक नरक की घोर पीड़ा भोगेगा। तत्पश्चात् मृगापुत्र की भाँति संसार में स्थावर आदि में लाखों बार जन्म लेगा।

 

अंत में, वाराणसी नगरी में सुअर बनेगा। शिकारी उसका शिकार करेंगे। बाद में वह उसी नगरी में श्रेष्ठी पुत्र के रूप में जन्म लेगा। युवावस्था में वैराग्य को प्राप्त कर महाव्रत धारण कर सुविशुद्ध संयम का पालन कर निर्वाण पद को प्राप्त करेगा।’

प्रभुवीर के श्री मुख से अभग्नसेन का कथानक सुन कर पावापुरी की दान शाला में बैठे श्रोता निर्वेद भाव से भाव विभोर हुए।

 

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जिनके प्रवचनों में लोगों को जकड़ कर रखने की क्षमता है। प्रसंगोचित प्रवचन करने की अद्भुत कुशलता है। और प्रवचन के साथ-साथ कलम चलाकर साहित्य का सृजन करके जिन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। ऐसे प्रवचन प्रवर आचार्य भगवन्त उपकार करते हुए श्री विपाक सूत्र आगम ग्रन्थ की कथा को हृदयस्पर्शी शब्दों में कलमबद्ध किया है। वाचकों के लिए यह आगम कथा निश्चय ही हृदय के द्वार खोल देने वाली बनेगी, ऐसी श्रद्धा है।

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