किस तरह से करे? यह हमारा प्रश्न है। करना है कि नहीं? यह ज्ञानिऔं का प्रश्न है। यदि करना हो, तो उस करने के रास्ते पर दौड़ना शुरू करो। आत्मा के सुख का अनुभव नहीं होता है, यह हमारी असल समस्या नहीं है।अभी तो उस रास्ते पर हमने कदम तक नहीं रखा है। यह हमारी असल समस्या है। आज तक हमें क्याँ किया?
साधना की बातें की। साधना नहीं करने के बहाने ढूँढे। साधना के विघ्नों का विस्तार किया।
साधना करने की हमारी स्थिति ही नहीं है, ज्यादा-से ज्यादा दो चार कदम चलकर अटक गये, लटक गये, भटक गये।एक परिहास (मजाक) जैसा हो गया, साधना नहीं हुई।
आत्मसुख का अनुभव करना है? सच में करना है? तो ‘लगा तीर वर्ना तूक्का’ यह वृत्ति को छोड़ दो, देखते है, होगा तो करेंगे, नहीं तो बाद में, यह सब वृत्ति छोड़ो, अन्य सब कुछ छोड़कर साधना को समर्पित हो जाओ, तो ही आप साधना कर सकोगे।
साधना की हमें कोई किमत ही नहीं है। तो हम साधना कैसे कर सकेगे?
साधना के नाम पर कुछ भी छोड़ने की हमारी तैयारी ही नहीं है तो साधना होगी किस तरह? सिम्पल बात है, या साधना के लिए सबकुछ ही छोड़ दो, या तो 'साधना करनी तो है' इत्यादि चिकनीचुपड़ी सूफियानी बातें छोड़ दो।
प्रभु वीर की तरह साधना के लिए सबकुछ छोड़ कर निकल पड़ने की हमारी तैयारी है सही? प्रभु के पास दो ओप्शन्स थे।या राजमहल या साधना। प्रभु ने सेकन्ड़ ओप्सन Choose किया। इसीलिए ही प्रभु साधना कर सके।
हमारी तकलीफ यह है कि हमें राजमहल में बैठकर साधना करनी है जो Actually Possible ही नहीं है।फिर भी इसी तरह ही साधना करनी है, उसका सीधा अर्थ यही है कि हमें साधना नहीं करनी है।राजमहल में बैठकर ही साधना करनी है=राजमहल में हो सकती हो तो साधना करनी है= नहीं तो नहीं करनी है= हमको राजमहल से ही मतलब है, साधना से नहीं। छाती पर हाथ रखकर हम खुद से पूछेंगे? क्याँ हमारी यह स्थिति नहीं है?
आतमसुख अनुभव करो प्यारे
इसका तात्पर्यार्थ हम यह लेते हैं कि ऑंख बंद करके पालथी मारकर अंदर से सुख का अनुभव करने का प्रयास करना। हकीकत में इसका तात्पर्यार्थ यह है कि साधना करो। तो हम फिर से पालथी का अर्थ ही साधना कर कर देने में ललचा जाते है। साधना का अर्थ है सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की आराधना। यही एक मार्ग है। जिसके ऊपर चलकर अनंत आत्माओ ने आत्मसुख का अनुभव किया है और अनंत आत्माएँ आत्मसुख का अनुभव करेंगे।इस मार्ग को छोड़कर आत्मसुख का अनुभव करने का प्रयास करना यह कन्याकुमारी के रास्ते से कश्मीर पहुँचने के प्रयास करने जैसी घटना है।
आतमसुख अनुभव करो प्यारे।
गाँव में बड़े पंडितजी आये। विद्वत्ता का प्रदर्शन करने के लिए बहोत ही उत्सुक थे। घोषणा करवायी, मेरे प्रश्न का जवाब कोई नहीं दे सकता। जो पंडित आता उसे प्रश्न करते गटागट गटागट गटागट मतलब क्याँ? सब निरुत्तर हो गये। आखिर में गाँव के एक अनपढ़ किसान ने कमर कसी।
जैसा ही प्रश्न किया गया वैसे ही उसके पेट में एक ठूँसा मारकर कहाँ प्रश्न ही गलत है। वह पंड़ितजी तो गभरा गये।किसान ने कहाँ, पहले बीयं बीया होता है, फिर वपंवपा फिर उगंउगा, लणं लणा, फिर रसं रसा और उसके बाद गटागट गटागट गटागट होता है।
आत्मानुभूति का अर्थ स्वरूप का अनुभव करने में आये, वहाँ हकीकत में यही ही घटना होती है।
गटागट का अर्थ रसपान है, यह बात तो सौ फीसदी सच है। पर रसपान हो ही ना सके तो उस अर्थ का क्याँ अर्थ ही रहेगा? सीधा रसपान तो कैसे हो सकेगा? ज्यादा से ज्यादा हवापान हो सकता है। रस तो है ही नहीं।
बीयं बीया है-सम्यग् दर्शन। वपं वपा है-सम्यग् ज्ञान। उगं उगा है-सम्यग् चारित्र, लणं लणा है-आत्मविशुद्धि। रसं रसा है-आत्मपरिणति और गटागट गटागट गटागट है-आत्मानुभूति।
जिनवचन पर अविहड़ श्रद्धा यह बीज है, सम्यग् ज्ञान यह रोपना है, सम्यक् चारित्र यह फसल है।
साधक उसमें से आत्मविशुद्धि को प्राप्त कर लेता है। राग-द्वेष की मंदता, कषायों की मंदता, विषयतृष्णा की मंदता यह आत्मविशुद्धि के लक्षण है।
आत्मविशुद्धि में से आत्मपरिणति का रस झरता है और साधक उसे गटागट गटागट गटागट पीता है।
आत्मानुभूति यह रसपान है।
कारण में कार्य का उपचार करके, रिझन को रिझल्ट का नाम देंगे तो बीयंबीया यह गटागट है। वपंवपा यही गटागट है।
उगंउगा यही गटागट है। लणंलणा यही गटागट है। रसंरसा यही गटागट है। और यदि यह सबकुछ नहीं है, तो फिर गटागट भी गटागट नहीं है। गटागट सिर्फ शब्द में ही रह जायेगा, हकीकत में नहीं होगा।
आतमसुख अनुभव करो प्यारे
एक श्रावक अहोभावपूर्वक जिनवाणी सुनते सुनते जिनवचन के प्रति श्रद्धा को मजबूत कर रहा है।
यह भी ऊपरोकत अपेक्षा से आत्मानुभूति है।
सद्गुरु के चरणों में बैठकर एक महात्मा दशवैकालिक आगम की गाथा सिख रहे है, यह भी आत्मानुभूति है। प्रतिक्रमण-पड़ीलेहण लोच-भिक्षाचर्या आदि चारित्र क्रिया- यह भी आत्मानुभूति है। सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र बहोत ज्यादा घूँटता जाये, बहुत ज्यादा घूँटता जाये और आत्मविशुद्धि बढ़ती जाये यह भी आत्मानुभूति है।
आत्मापरिणति का रस भीतर में घूँटता जाये यह भी आत्मानुभूति है।
और यदि यह सब नहीं है तो आत्मानुभूति यह मात्र शब्द में ही रह जायेगी। हकीकत में नहीं होता है।
गटागट यानी रसपान ही। बीयंबीया आदि कुछ भी नहीं, यह विधान गटागट का अंतराय है। आत्मानुभूति यानी स्वरूप का अनुभव ही। सामायिक, प्रतिक्रमण, दीक्षा आदि कुछ भी नहीं, यह विधान आत्मानुभूति का अंतराय है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि, सामायिकादि करने वालों में भी आत्मानुभूति नहीं दिखती हो, वहाँ क्याँ समजे? तो उसका जवाब यह है कि, बीज में रस नहीं दिखाई देता। रस यह बीज का अंतिम परिणाम है। चक्रवर्ती के चर्मरत्न में बोया हुआ बीज शाम को फलित होता है। उसी तरह किसीको बीज जल्दी फलित हो जाता है, किसीको कालांतर से फलता है। थोड़ी भी श्रद्धा के साथ जिनशासन के एक भी योग की आराधना करने में आये, तो अर्ध पुद्ग्ल-परावर्त की अंदर तो अवश्य मोक्ष देकर ही रहता है।
उतना समय भी विशेष आशातना से पतित हुऍं जीवो को लगता है। बाकी के जीवों तो बहुत ही अल्प समय में मोक्ष में पहुँच जाते है।
असल प्रश्न आत्मानुभूति क्यों नहीं दिखती है यह नहीं है, असल प्रश्न आत्मानुभूति क्यों नहीं होती है? यह भी नहीं है। असल प्रश्न तो यह है की आगम और शास्त्रों में जिनका उल्लेख तक नहीं किया गया है, ऐसी विलक्षण साधना को ही पारमार्थिक मोक्षमार्ग मानकर गुमराह होते जाते है।
यदि चमत्कारिक अनुभव और विरतिशून्य पालथी का ईतना ज्यादा महत्व होता तो भगवान ने उसका उल्लेख तक क्यों नहीं किया? सैकड़ों चरित्रों के अंदर परंपरागत देशविरति और सर्वविरती की साधना करते हुए आत्मा ही मोक्ष में जाती है। एसा स्पष्ट क्यों दिखने को मिलता है? सुधर्मास्वामी से ईतनी बड़ी गफलत कैसे हो सकती है? पूर्वाचार्य 'राम' को भूलकर 'रामायण' लिख सकते है?
श्री भगवती सूत्र, ज्ञाता धर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्शा, अनुत्तरोपपातिक दशा, विपाकसूत्र, निरयावलिका, मरणविभक्ति, भक्तपरिज्ञा आदि आगमों में सैकड़ों साधनाकथायें हैं। जिनमें उन साधक का अंत में मोक्ष होगा या नहीं उसका वर्णन किया गया है। उन साधनाकथाओं में तो आगमों और शास्त्रों में कही गई साधना पद्धतिओं का ही संवाद है।
नहीं कि आधुनिक कल्पित साधनापद्धतिओं का, तो फिर सर्वज्ञकथित सिद्ध हुई साधनापद्धतिओं का अवलंबन लेना अच्छा है? या आधुनिक आपके - मेरे जैसों ने बनाई हुई पद्धति का? कि जिसका अंतिम परिणाम शंकास्पद है, उनका अवलंबन लेना है?
सर्वज्ञकथित पद्धति का अवलंबन लेनेवाले में आत्मानुभूति क्यों नहीं दिखाई देती है? ये सवाल ही गलत है।
मैंने तो सगी आंखों से उन साधनायात्रिओमें आत्मानुभूति के लक्षण देखे है। सहज निष्कषाय परिणति, राग – द्वेष की अत्यंत मंदता, हर एक प्रवृत्ति में झलकती आंतर परिणति, जिनेश्वरदेव कथित स्याद्वादतत्व का विशुद्ध बोध....इन सभी के द्वारा प्रकट हुई आत्मविशुद्धि.... यदि उनमें भी आत्मानुभूति नहीं होगी तो फिर अन्यत्र कहाँ होगी?
आतमसुख अनुभव करो प्यारे
इसका तात्पर्य ये है कि व्यवहार - निश्चय के समन्वय स्वरूप सर्वज्ञकथित मोक्षमार्ग पर चलो।समभाव के साथ सामायिक करो, विशुद्धि के साथ पौषध करो, भेदज्ञान के साथ लोच कराओ, स्थिर परिणाम के साथ विहार करो, अनासक्तभाव के साथ उपवास करो, परप्रवृत्ति के पूर्णत्याग के साथ स्वाध्याय करो, उपयोग के साथ पडिलेहण करो।
आतमसुख अनुभव करो प्यारे
श्रीमंत बनो - इसका अर्थ होता है व्यापार आदि के द्वारा अर्थोपार्जन करो। निरोगी बनो यानी दवाइयाँ, पथ्य आदि द्वारा चिकित्सा करो। विद्वान बनो यानी विविध ग्रंथों का गहराईपूवक अभ्यास करो।आत्मसुख अनुभव करो यानी रत्नत्रयी की साधना करो।
सुमता आत्मा को आग्रहभरा निमंत्रण देती है। आप निजमहल पधारो..... किस तरह से पधारना है..... उसका रूट भी बताती है। वहाँ पर आने का फल भी बताती है। बालभावविस्मृति यह निजमहल की और का प्रस्थान है। उचितमर्यादाग्रहण - यह रुट है। आत्मासुखानुभव यह फल है।
बालभाव अब बिसरी रे, ग्रहों उचित मरजाद।आतमसुख अनुभव करो प्यारे, भांगे सादि अनाद ।।
सुमता अब आंखोंमें आशा का अंजन लगाकर आत्मा के सामने देख रही है। कहने को तो अब कुछ भी बाकी नहीं है, फिर भी आत्मा किसी परेशानी में लग रही है। सुमता थोड़ी भावुक हो जाती है, और कहती है -
सेवक की लज्जा सुधी रे, दाखी साहेब हाथ,तो शी करो विमासण प्यारे, अम घर आवत नाथ ।।...... पिया....3
हे प्रियतम! हे नाथ! मैं आपकी सेविका हूँ। मैंने आप को मेरी सारी ही लाज, मेरा गौरव, मेरी परिस्थिति हाथोहाथ दिखाई है। तो अब आप हमारे घर आने से परेशान क्यों हो?
(क्रमशः)
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