थोड़ी समझदारी
बाह्य विश्व में विवाह का अर्थ किया जाता है
'खत्म हो जाना।’
अतरंग विश्व में विवाह का अर्थ है
प्राप्त कर लेना, लाभ होना और निहाल हो जाना।
बाह्य परिणय तो अनंत बार किया और खत्म हो गये।
अनंत काल के बाद यह अद्भुत अवसर हमारे आँगन में आया है।
आंतरिक परिणय का प्रस्ताव सामने चलकर आया है।
स्वीकार कर लेंगे,तो काम बन जाने वाला है।
दो ही विकल्प हैं -
या हम पूरे हो जाएँगे,
या हमारे दुःख खत्म हो जाएँगे।
थोड़ी-सी भी समझदारी होगी तो पसंद करना बिलकुल भी कठिन नहीं है।
पद
पिया निज महल पधारो रे, करी करुणा महाराज..... पिया.
तुम बिन सुंदर साहिबा रे, मो मन अति दुःख थाय,
मन की व्यथा मन ही मन जानत, किम मुख से कही जाय?.....पिया.1
बालभाव अब बिसरी रे, ग्रहो उचित मरजाद,
आतमसुख अनुभव करो प्यारे, भांगे सादि अनाद.....पिया.2
सेवक की लज्जा सूधी रे, दाखी साहेब हाथ,
तो शी करो विमासण प्यारे, अम घर आवत नाथ..... पिया.3
मम चित्त चातक घन तुमे रे, ईस्यो भाव विचार,
याचक दानी उभय मिल्या प्यारे, शोभे न ढील लगार.....पिया.4
चिदानंद प्रभु चित्त गमी रे, सुमता की अरदास,
निज घर घरणी जाण के प्यारे, सफल करी मन आस..... पिया.5
शुद्ध आत्मपर्याय यानी सुमता। अध्यात्म विश्व में आत्मा की अर्धांगिनी। ऐसे देखा जाये तो उसका विवाह अनादि काल से हो चुका है, और वैसे देखा जाये तो वह हमेशा की कुमारिका है। हमारी संस्कृति में वरण करना और विवाह करना ये दोनों अलग बातें हैं। स्वयंवर मंडप में कन्या वरमाला पहनाती हैं, और फिर बाद में उसका विधिपूर्वक विवाह होता है। कन्या के बचपन में या जन्म के पहले से माँ-बाप वचनबद्ध होते हैं, और उस आधार से कन्या वर का वरण कर चुकी होती है। विवाह होना अभी बाकी होता है।
सुमता की कथा व्यथा से भरपूर है। वह वरण कर चुकी है, उसका विवाह भी हो चुका है, किंतु फिर भी उसकी स्थिति कुमारिका या विधवा जैसी है, क्योंकि उसके पति आत्मा का कोई पता नहीं है। वह अनादिकाल से घर में आया ही नहीं है। वह कहीं पर भटक रहा है। वह बाहर भ्रमण कर रहा है। और सुमता आर्त्तस्वर में, करुण शब्दों द्वारा उसका आह्वान कर रही है –
पिया निज महल पधारो रे, करी करुणा महाराज… पिया
घर संसार के राज्य का महाराज पति होता है। अंतरंग साम्राज्य का महाराज आत्मा होता है। सुमता उसे कहती है, ‘हे प्रिय! पधारिये ना आपके अपने महल में!! आप अपने घर कब आएँगे? कब?
दस साल पहले की घटना है। मैं प्रतिक्रमण के बाद गुरुदेव के पास बैठा था। सामायिक पारके एक श्रावक आए। गुरुदेव के पास शांति से बैठने की उनकी भावना तो थी, पर वे जल्दी से चले गए। साफ शब्दों में कहें, तो भागते हुए गए। कारण बताते हुए गए कि, “घर पर श्राविका चिल्ला रही है कि आप साथ में होते ही नहीं हैं।”
मुझे कुछ-कुछ अंदाजा आ गया। ऑफिस, प्रतिक्रमण, सत्संग में उनका दिन चला जाता है। श्राविका घर पर पूरा दिन अकेले रहकर परेशान हो जाती है, और रात को साढ़े आठ के बाद भी आगे बढ़ता हुआ घड़ी का कांटा…
बच्चे की स्कूल छूटने का टाइम हो गया हो, और दौड़-भाग करके पहुँचने का प्रयत्न करते हुए पिता, उनकी नजरों के सामने अकेला-तन्हा-परेशान होकर रोता हुआ उनका बेटा। यह दूसरी घटना है। यहाँ भी बेचैनी तो है ही। मात्र उसकी अभिव्यक्ति बदल जाती है।
आठ घंटे के अकेलेपन के बाद की प्रत्येक क्षण कातिल बनती जाती है। तो सुमता के अनंत कालचक्रों के अकेलेपन के बाद की प्रत्येक क्षण कैसे बीत रही होगी? कैसी छटपटाती होगी सुमता! कैसी टूट के बिखर गई होगी सुमता! दोनों हाथ जोड़कर, भरे हुए गले से, अश्रु बहती हुई आँखों से उसने ये शब्द कहे होंगे?
करी करुणा महाराज!
शब्द सीधे हैं, सादे हैं, पर तीक्ष्ण हैं। हृदय के आर-पार निकल जाए वैसे हैं। क्या अभी भी आपको मुझ पर दया नहीं आती है? क्या अभी भी मुझ पर सितम गुजारने को और कुछ बाकी है? अब और कितनी प्रतीक्षा कराओगे मुझे? कितनी? कि...त...नी? बस, अब बहुत हो चुका। प्रिय! अब तो आपके घर पधारिये...!
तुम बिन सुंदर साहिबा रे, मो मन अति दुःख थाय,
मन की व्यथा मन ही मन जानत, किम मुख से कही जाय?
हे सुंदर स्वामी! आप के बिना मेरे मन में अति दुःख हो रहा है। मेरे मन की व्यथा को मेरा मन ही जानता है। उसे मुख से तो कैसे कह सकते है?
अधूरी कहानी सुनने में ज्यादा रोमांचक लगती है। पर वास्तविक जीवन जीने में तो जीवंत वेदना होती है। कहानी में उतना तो आश्वासन होता है कि, जितनी कथा हो गई उतनी तो पूरी थी। वे पात्र, वे प्रसंग, वे संवाद, जो भी था वो पर्याप्त था। लेकिन आत्मा का तो पात्र ही अधूरा है। सुमता की व्यथा निष्कारण नहीं है, उसे समझने वाला पत्थर भी पानी हो जाए, ऐसी उसकी वेदना है।
आधा फलित हुआ आम्रपेड़ आधा आम दे सकता है? पांचवी पास विद्यार्थी को एस-एस-सी का आधा सर्टिफिकेट मिल सकता है? शादी में दो फेरे लेने से आधे जीवनसाथी बन सकते हैं? अहमदाबाद से सूरत पहुंचे वह आधा मुंबई देख सकता है? सेठ जो काम कहे उसे आधा ही करने वाले नौकर को आधा पगार मिल सकता है? कार में आधे ही पहिये हो तो वह आधे अंतर तक पहुँचा सकती है?
अधूरा होना-ना होना, ये दोनों एक-समान हैं। दूसरी अपेक्षा से, अभाव से भी ज्यादा दुःखद है। अभाव की निष्फलता फिर भी समझ में आ सकती है। जो व्यक्ति अहमदाबाद से निकला ही नहीं, तो वह मुंबई कैसे पहुँच सकता है? अधूरेपन की निष्फलता को समझ तो सकते हैं, पर उसका स्वीकार करना असहनीय है। वह अहमदाबाद से निकला, नडियाद, आणंद, भरूच, सूरत, वलसाड, वापी, तलसारी सभी कुछ पार करके मनोर पहुँचा और वहीं अटक गया। मुंबई की एक झलक तक उसे देखने को नहीं मिली। कितनी दर्दनाक बात है!
सुमता के बिना आत्मा अधूरी है। शुद्ध पर्याय के प्रागट्य के बिना वाली आत्मा विश्व की सर्वोत्कृष्ट करुणता है। नरक भयानक नहीं है। नरक तो एक सहज रिज़ल्ट है। भयानक है अशुद्ध आत्मा। आज तक आत्मा को अनंत बार नरक मिली है, उसका मूल इसके सिवा और कुछ भी नहीं था। अशुद्धि ही निगोद है, अशुद्धि ही नरक है, अशुद्धि ही 84 लाख योनि है, अशुद्धि ही भयानकता की पराकाष्ठा है।
याद आता है
अध्यात्मसार – प्रपञ्चसञ्चयक्लिष्टा – न्मायारूपाद् बिभेमि ते।
प्रसीद भगवन्नात्मन्, शुद्धं रूपं प्रकाशय।
ओ प्रपंच के संचय से क्लिष्ट बनी आत्मा! ओ मायारूप आत्मा! तुझसे मुझे डर लग रहा है। तू प्रसन्न हो जा, ओ भगवान! तू अब तेरे शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर।
एक अरबपति को लगा कि अब वह बहुत ज्यादा नहीं जीने वाला है। उसका वारिस उसका इकलौता बेटा था। सब कुछ उसे सौंप देना है, पर उसने देखा कि उस बेटे पर जोखिम बहुत ज्यादा है। यदि वह घर से बाहर निकला तो वह मर सकता है। कोई उसे मार देगा, कोई उसे पागल कर देगा, कोई उसकी निर्मम हत्या कर देगा, कोई उसके हाथ-पैर काट डालेगा, कोई उसकी आँखें फोड़ डालेगा। इसलिए उसे संपत्ति देने का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। सिक्युरिटी की टोटल व्यवस्था कर सकते हैं, पर सिर्फ घर में, बाहर नहीं। बाहर तो बिल्कुल भरोसा नहीं है। बाहर तो चाहे जितनी व्यवस्था कर लो, अधूरी ही रहेगी है। अरे! बाहर तो व्यवस्था का भी भरोसा नहीं है।
यह सोचकर उस अरबपति ने विल बनाई। जब तक मेरा बेटा घर के बाहर घूमता-फिरता है, तब तक उसे विरासत में एक पैसा भी नहीं मिलेगा। वह हमेशा के लिए घर में रहेगा, कभी भी बाहर नहीं जाने की शपथ ग्रहण करके रहेगा, तो वह मेरी सारी संपत्ति का मालिक माना जाएगा।
बेटे को चाहिये तो थी संपत्ति ही। पर उसके लिए वह बाहर कहीं पर मजदूरी करता था, पूरा दिन कड़ी मेहनत करता था। अरे! भीख भी मांग लेता था। जब कोई व्यक्ति उसे विरासत की और घर की बात बताता तो उसे बहुत ही आश्चर्य होता था, कौन सी विरासत? कौन सा घर? मुझे तो कुछ पता भी नहीं है। क्या कह रहे हो आप? यह सब छोड़कर चला जाऊँ? मेरी नौकरी छूट जाएगी। फिर मुझे रोजगारी कौन देगा? फिर मेरी दाल-रोटी का क्या होगा? फिर तो मैं भूखा नहीं मर जाऊँगा? वह व्यक्ति उसकी बात सुनकर फटी आँखों से उसे देखता रहता है।
एक दिन एक व्यक्ति उसके पास आकर कहने लगा, ‘तेरी पत्नी तेरे विरह में सिसक-सिसक कर रो रही है। यह मजदूरी नहीं, मूर्खता है। यह तेरी दाल-रोटी नहीं, बत्तीस पकवानों से वंचितता है। यह भीख नहीं, बहुत बड़ा तमाचा है। तेरी पत्नी अविरत तेरा स्मरण करती है। तू सब कुछ छोड़कर सिर्फ अपने घर आ जा। अरबों का साम्राज्य तेरी प्रतीक्षा कर रहा है। तुझे हमेशा का सुख मिल जाएगा। हमेशा के लिए मौज-मजा मिल जाएगी। उसे छोड़कर तू पैसों के लिए यहां वहां क्यों भटक रहा है, ये तो कैसी मूर्खता है! बस भाई! अब बहुत हो चुका। तू अपने घर पर पहुँच जा। अभी तुझे एक क्षण का भी विलंब नहीं करना चाहिए।
वह पुत्र अचंभित होकर, मुंह फैलाकर देखता रहता है। “क्या बात करते हो आप? अरबों रुपये? ऐसा थोड़े ही हो सकता हैं? कहीं गया, तो मेरे दो सौ रूपये की नौकरी भी चली जाएगी। और घर पर खाली बर्तन कुश्ती करेंगे। जाओ भाई जाओ! क्यूं पेट पर लात मारते हो? मैं ही मिला था क्या आपको? मजदूरी किये बिना कभी पैसे मिल सकते हैं?”
उस बात को आज बरसों बीत गए। पत्नी घर पर रो-रो कर गंगा-जमना बहा रही है। अरबों की विरासत धरी की धरी रह गई है। वह अभी भी मजदूरी कर रहा है, अपना पसीना बहा रहा है। और उसकी पत्नी की आँखों से बहता प्रत्येक आंसू कह रहा है –
पिया निज महल पधारो रे, करी करुणा महाराज…
तुम बिन सुंदर साहिबा रे, मो मन अति दुःख थाय
मन की व्यथा मन ही मने जानत, किम मुख से कही जाय… पिया निज...
( क्रमशः )
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