Ambition
- Muni Shri Krupashekhar Vijayji Maharaj Saheb
- Feb 26
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एक शिक्षक आदिवासी क्षेत्र की एक स्कूल में नए-नए नियुक्त हुए थे। स्कूल के पहले ही दिन वे कक्षा में पढ़ाने गए। वे सभी विद्यार्थियों से उनका परिचय पूछ रहे थे। इसी दौरान उन्होंने एक लड़के को खड़ा किया और पूछा – "बेटा! तुम्हारा नाम क्या है?"
लड़के ने उत्तर दिया – "मेरा नाम रमेश है, साहब!"
शिक्षक ने आगे पूछा – "बेटा, तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?"
रमेश ने उत्साहपूर्वक उत्तर दिया – "साहब! मुझे राजा बनना है।"
रमेश का यह उत्तर सुनते ही पूरी कक्षा हँसी से गूँज उठी। शिक्षक ने तुरंत सभी को डाँटा और शांति स्थापित की। जब कक्षा शांत हो गई, तो शिक्षक ने विद्यार्थियों को समझाया –
"बच्चों, राजा केवल एक ही प्रकार का नहीं होता। आप सभी भी अपने-अपने क्षेत्र में राजा बन सकते हैं। यह सोचना कि सफलता केवल बड़े लोगों के लिए आरक्षित है, पूरी तरह से गलत है। हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो, अपनी मेहनत और लगन से सफलता प्राप्त कर सकता है। रमेश की महत्वाकांक्षा सराहनीय है। यदि वह कड़ी मेहनत करेगा, तो अवश्य ही राजा बनेगा—चाहे वह क्रिकेट का मैदान हो, कॉर्पोरेट जगत हो, फिल्मी दुनिया हो या कला क्षेत्र। मेहनत और संकल्प के बल पर कोई भी व्यक्ति अपने क्षेत्र का राजा बन सकता है।"
महत्वाकांक्षा यदि शुद्ध और आध्यात्मिक हो, तो वह सूखी धरती पर वर्षा के समान जीवनदायी बनती है, परंतु यदि वह अशुद्ध एवं भौतिक हो, तो हरे-भरे उद्यान को भी पलभर में उजाड़कर वीरान बना देती है।
त्रिकालज्ञानी वीतराग परमात्मा स्वयं आशा, इच्छा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा रखने से मना करते हैं।
पंचसूत्रकार कहते हैं— "अविक्खा अणाणंदे" अर्थात जहाँ अपेक्षा है, वहाँ आनंद नहीं होता। यदि आपको सच्चा आनंद चाहिए, तो अपेक्षाएँ त्यागनी ही होंगी!
हम संपूर्ण रूप से अपेक्षाओं से मुक्त नहीं हो सकते। कुछ न कुछ करने या कुछ बनने की महत्वाकांक्षाएँ जागृत होने से पहले ही हमें अपने मन को यह समझा लेना चाहिए कि हम दुःख के मार्ग पर चलने की तैयारी कर रहे हैं।
यदि महत्वाकांक्षा रखनी ही है, तो उसे भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बनाना चाहिए। क्योंकि महत्वाकांक्षा एक ओर वरदान है, तो दूसरी ओर अभिशाप भी। यह संसार के लिए कल्याणकारी औषधि भी हो सकती है और इसके विनाश का कारण बनने वाली वृत्ति भी।
यदि मनुष्य की महत्वाकांक्षा शुभ, सत्कर्म और आध्यात्मिक हो, तो यह समस्त जगत के कल्याण का कारण बनती है; किन्तु यदि उसकी महत्वाकांक्षा अशुभ, भौतिकतावादी और स्वार्थपूर्ण हो, तो यह समस्त समाज के पतन का कारण बन जाती है।
मनुष्य की महत्वाकांक्षा केवल उसी तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उसके संपर्क में आने वाले सैकड़ों लोगों को प्रभावित करती है।
यदि किसी ने सेवा करने की महत्वाकांक्षा रखी, तो वह ईसा मसीह, पंडित श्री श्री रविशंकर, विनोबा भावे जैसे महान व्यक्तित्व बन गए।
यदि किसी में जगत को ज्ञान और बोध कराने की आकांक्षा जगी, तो वे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि और आदिशंकराचार्य बन गए।
यदि किसी ने देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने की इच्छा की, तो वे महात्मा गांधी, वीर सावरकर और शहीद भगत सिंह जैसे राष्ट्रनायक बन गए।
मनुष्य को सदैव ऐसी महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए, जिससे वह स्वयं सुखी रहे और अपने आसपास के लोगों को भी सुखी बनाए। सच्ची महत्वाकांक्षा केवल स्वार्थ तक सीमित नहीं होती, बल्कि वह समस्त समाज के कल्याण के लिए भी होती है।
अंततः, हमें यह संकल्प अवश्य लेना चाहिए—
➡ मैं भले ही सभी को सुख न दे सकूँ, किन्तु किसी को दुःख अवश्य नहीं पहुँचाऊँगा।
➡ मैं भले ही सभी को प्रसन्न न रख सकूँ, किन्तु किसी को पीड़ा नहीं दूँगा।
➡ मैं भले ही सभी को धर्ममार्ग पर न चला सकूँ, किन्तु किसी को पापमार्ग की प्रेरणा कदापि नहीं दूँगा।
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