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Anger : A Terror

Updated: Apr 12




अमरदत्त एवं रत्नमंजरी के मस्तिष्क में अलग-अलग घटनाएं बहुत तेज गति से चलचित्र की भांति चलायमान हो रही थीं… सत्यश्री… क्षेमं-कर… चन्द्रसेन… पुत्रवधू… मुसाफिर… गुस्सा… मुनि… गोचरी … प्रशंसा… बिजली…।

चिन्तन की इस प्रक्रिया में उनके श्वास उखड़ने लगे-

मरण… विनाश… अंधेरा… बस अंधेरा…।

उनको चक्कर आने लगे और ऐसा अनुभव होने लगा कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। खड़े रहना मुश्किल होने लगा। उसे लगने लगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने उन पर नियंत्रण कर लिया है और मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया है।

वे धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उनकी चेतना मंद पड़ती जा रही थी। अंततः धीरे-धीरे वह चेतना-शून्य हो गए।

 

अमरपुर नगरी का साम्राज्य चहुंओर विस्तीर्ण था। महल के गवाक्ष में बैठे मकरध्वज राजा मदन के मद का मानमर्दन करने वाली राजरानी मदनसेना के साथ अपने भावी जीवन पर विचार-विमर्श कर रहे थे।

‘प्राणेश्वर! कितने ही वर्ष बीत गये, परंतु मेरी एक इच्छा अभी तक पूर्ण नहीं हुई।’ मदनसेना की इस शिकायत को सुनकर राजा मकरध्वज असह्य पीड़ा में डूब गये।

‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति…’। पुत्रहीन की सद्गति संभव नहीं है। इस प्रकार के वचन राजा के कान को बर्छी की तरह बींध जाते हैं। परंतु, क्या कर सकते हैं! विधि से बड़ा बलवान कोई नहीं है।

‘मदनसेना! अभी तो तुम ऋतुवती नहीं हो। भगवान से प्रार्थना करो कि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करें।’ राजा द्वारा उच्चरित इस प्रकार के वचन सुनकर मदनसेना कुछ आश्वस्त हुई।

रानी राजा के केश संवारने लगी। राजा मकरध्वज का केश-विन्यास पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध था।

रानी की पैनी नजर में एक सफेद बाल आ गया। रानी ने वह बाल खींच कर तोड़ दिया। ‘आह! क्या कर रही हो मदना!’ राजा ने बाल टूटने की पीड़ा अनुभव करते हुए कहा।

‘कुछ नहीं। बस तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूं।’

‘क्या?’

‘यह देखो!’

रानी ने राजा के हाथ पर एक सफेद बाल रख दिया।

‘यह कहां से निकला?’

रानी ने सस्मित हास्य से कहा- ‘जहां से आह निकली थी।’

अचानक राजा मकरध्वज का चेहरा गंभीर हो गया। राजा के चेहरे पर अचानक आये इस परिवर्तन से रानी आश्चर्यचकित हो गई। कुछ क्षण में राजा की आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगी।

‘क्या हुआ प्राणनाथ?’ रानी ने राजा के आंसुओं को देख कर पूछा।

‘कुछ नहीं प्रिये! समय आ गया है।’ राजा ने कहा।

 

श्रावण-भादों के गर्जन करते मेघ की मानिंद नगर की जनता की आंखें बरस रही थी। रुदनपूर्ण दारुण दुःख को व्यक्त करते हुए शब्द वातावरण को गंभीर बना रहे थे।

एक मोटे ताड़-वृक्ष के चारों तरफ भयानक कोलाहल हो रहा था। लोग इतने ज्यादा थे कि सूर्य की किरणें भूमि पर आने में असमर्थ थीं।

‘आप लोग शान्त हो जाइये।’ घटादार लम्बी दाढ़ी वाले एक कुलपति ने अपनी बुलंद गंभीर आवाज में कहा। वहां शान्ति छा गई।

‘आप के प्राणप्रिय राजा आज के इस पावन अवसर पर राजर्षि बनने जा रहे हैं। यह शोक करने का नहीं, आनन्द का विषय है। आप का उन पर अपार प्रेम है, पर राजेश्वर जिस मार्ग का अनुसरण करने जा रहे हैं, वह अत्युत्तम है।’ लोगों को समझाते हुए कुलपति ने कहा।

कुलपति ने मंत्री को संकेत किया। मंत्री सामने आया।

‘आज हमारे प्रजावत्सल राज-राजेश्वर मकरध्वज संसार की मोह-माया का परित्याग कर अपना राज्य भार अपने अधिकारी को सौंप कर राजमाता मदनसेना के साथ तापस-व्रत स्वीकार करने के लिए तत्पर हैं।’

‘इस संसार में पृथ्वी पर राजा तो बहुत हैं, परंतु पृथ्वीराज से योगिराज बनने वाले नहींवत् हैं। इन्हीं में से एक अपने महाराज हैं। यह बहुत ही गौरव की बात है।’ मंत्री ने तापसों के कुलपति की ओर देखते हुए कहा, ‘मैं कुलपति से प्रार्थना करता हूं कि वे हमारे राजा मकरध्वज को तापस वेष अर्पण करें।’

इतना कह कर मंत्री शान्त हो गया। कुलपति ने मंत्रोच्चार आरंभ किया। राजा और रानी की आंखों में एक चमक आ गई। वे इस अनोखी दीक्षा के लिए सजग हो गये।

कुलपति राजा के पास आया।

‘आज मैं राजा मकरध्वज को तापस-दीक्षा प्रदान करता हूं।’

यह कह कर कुलपति ने राजा के हाथ में कमंडल और वृक्ष-छाल का कपड़ा दिया। राजा ने अपना मुकुट उतार कर एक तरफ रख दिया। इसी प्रकार कुलपति ने रानी को भी दीक्षा प्रदान की।

जयनाद से पूरा वन क्षेत्र गुंजायमान हो उठा। कुलपति राजा के पास आया और बोला- ‘हमारे इस आश्रम में आप का स्वागत है।’

‘महापराक्रमं कृतम्!’

 

हिमालय के पर्वतों में खिली हरियाली मानो इस वन क्षेत्र में उतर आई हो। पक्षियों का कलरव इस शांत वातावरण में दिव्य संगीत की अनुभूति करा रहा था। राजा को तापस कुलपति बड़े ही सुन्दर ढंग से धर्म-तत्त्व समझाते थे।

गूढ़ गर्भवती राज-तापसी मदनसेना राज-तापस मकरध्वज के साथ वन में विचरण करते हुए मुक्त कंठ से बात कर रही थी।

अचानक राजतापसी नीचे भूमि पर बैठ गई। राजतापस उसके पास पहुंच गये।

‘मदना! क्या हुआ तुम्हें? अचानक इस तरह कैसे नीचे बैठ गई ?’

भयभीत राजतापस के चेहरे पर दीनता व्याप्त हो गई।

‘प्राणेश्वर! मेरे पेट में बहुत पीड़ा हो रही है… कृपा कर कुछ करो न !’

राजतापसी घायल कबूतरी की तरह तड़प रही थी।

राजतापस ने आसपास देखा। वहां के वृक्ष फल-हीन थे। कहीं भी पानी का नामोनिशान नहीं था। बातें करते हुए राजतापस एवं राजतापसी आश्रम से बहुत दूर निकल आये थे।

राजतापस ने दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई। आगे कुछ होगा, उनके मन में ऐसी आशा जगी।

‘मैं आता हूं’ कह कर तड़प रही राजतापसी को छोड़कर संभावित स्थल की ओर दौड़ पड़े।

कुछ दूर जाने पर ही एक विशाल सरोवर दिखाई दिया। राजतापस ने अपने कमण्डल को शीतल जल से भर लिया। पास में ही लाल मीठा फल दिखाई दिया। फलाहार के उद्देश्य से राजा ने थोड़े फल भी तोड़ कर अपने पात्र में धारण लिए।

वापस दौड़ते हुए वहां पहुंचे, जहां राजतापसी को छोड़ कर गये थे।

‘मदना! हे मदना!’ राजतापस तापसी को ढूंढने लगे। ‘मदना…! हे मदना…!’

तभी अचानक उनके कानों में मद्धिम स्वर से रोने की सुनाई दी। उस आवाज का अनुसरण करते हुए वे वहां तक पहुंच गये, जहां से रोने की आवाज आ रही थी। वहां का दृश्य देख कर राजतापस का मन प्रफुल्लित हो उठा।

( क्रमशः )

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