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Divine Court



Divine Court

एक लालची शाहुकार ने अपनी धूर्तता और छल-कपट से एक गरीब विधवा बुढ़िया की जमीन हड़प ली। वह जमीन, जो बुढ़िया के जीवनयापन का एकमात्र सहारा थी, अब उसके हाथों से निकल गई।


बुढ़िया ने हाथ जोड़कर शाहुकार से विनती की, "मुझे मेरी जमीन लौटा दो। मेरे पास और कुछ भी नहीं है।"

परंतु शाहुकार ने घमंड में आकर कहा, "यह जमीन अब मेरी है। मैं इसे हरगिज़ वापस नहीं करूंगा। तुझे जो करना है, कर ले।"


गाँववालों ने बुढ़िया को अदालत जाने की सलाह दी। न्याय की उम्मीद में बुढ़िया ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। लेकिन शाहुकार चालाकी में माहिर था। उसने ऐसे कागजात तैयार कर लिए, जिससे यह साबित हो सके कि बुढ़िया ने अपनी मर्जी से जमीन बेच दी है। जबकि हकीकत यह थी कि बुढ़िया को बहला-फुसलाकर उससे दस्तखत करवाए गए थे। जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा, शाहुकार का पक्ष मजबूत होता गया।


एक दिन बुढ़िया अपनी व्यथा लेकर जज के घर पहुँच गई। उसने रोते हुए अपनी पूरी कहानी सुनाई। दयालु स्वभाव के जज का हृदय द्रवित हो गया, परंतु कानून और कागजात शाहुकार के पक्ष में थे इसलिए वह लाचार थे। जज ने बुढ़िया को सांत्वना देते हुए कहा, "मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा।"


जज ने शाहुकार को अपने घर बुलाया और उसे एक प्रस्ताव दिया। उन्होंने कहा, "मुझे तुम्हारा केस लंबा खींचने में कोई दिलचस्पी नहीं है। अगली तारीख पर ही तुम्हारे पक्ष में फैसला सुनाने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मेरी एक छोटी-सी माँग है।"


शाहुकार ने तुरंत पूछा, "कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?"


जज बोले, "मेरे घर के बगीचे के लिए मुझे एक बोरी काली मिट्टी चाहिए। यह मिट्टी उसी विवादित खेत से लाई जानी चाहिए। और बोरी तुम्हें ही उठानी होगी।"


शाहुकार ने यह माँग मान ली। जज और शाहुकार खेत पर गए। जज ने खेत के बीच से एक बड़ी बोरी मिट्टी भरी और शाहुकार से उसे उठाने को कहा। शाहुकार ने बोरी उठाने की कोशिश की, पर वह उसे उठा नहीं सका। पसीने से तर-बतर शाहुकार को देखकर जज बोले, "भले आदमी, तुम इस छोटी-सी बोरी को उठाने में असमर्थ हो। सोचो, उपरवाले न्याय के सामने इस पूरे खेत को कैसे उठाओगे? जो हक तुम्हारा नहीं है, ऊपरवाले की अदालत में तुम्हें उसका जवाब देना होगा।"


एक ऐसा त्रिकालिक सिद्धांत है, जिसे हमें सदैव याद रखना चाहिए। यह सिद्धांत कहता है कि मेरे हर कर्म को कोई न कोई देख रहा है, जान रहा है, और उसी के अनुरूप समय आने पर मुझे उसका फल भी अवश्य मिलेगा। यह नियम अटल है, जिसे न कोई बदल सकता है और न ही टाल सकता है।


सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो मानव मस्तिष्क की सीमाओं में बंधा हो सकता है, लेकिन कर्मसत्ता की कोर्ट में न कभी अन्याय हुआ है, न होगा।


सुप्रीम कोर्ट में चाहे एक खून करो या दस, सजा समान ही मिलेगी। परंतु कर्मसत्ता की न्याय प्रणाली हर कर्म का अलग-अलग हिसाब रखती है। यहाँ हर छोटे-बड़े कर्म का लेखा-जोखा दर्ज होता है और उसका सटीक फल मिलता है।


सुप्रीम कोर्ट की सीमाएँ स्पष्ट हैं। कभी-कभी यह निर्दोष को फाँसी दे देती है और अपराधी को छोड़ देती है। लेकिन कर्मसत्ता की कोर्ट में न्याय अचूक है। यह कहती है:

  • जो करेगा, वह भरेगा।

  • जो बोलेगा, वह भी भरेगा।

  • और जो सोचेगा, वह भी भरेगा।


सुप्रीम कोर्ट केवल शारीरिक और आर्थिक दंड तक सीमित है, जबकि कर्मसत्ता की न्याय प्रणाली मानसिक, भावनात्मक, और आत्मिक स्तर पर भी सजा देती है।

  • शरीर की दुष्ट चेष्टा ने गजसुकुमार को अंगारों की असहनीय पीड़ा सहने पर मजबूर किया।

  • वचन की दुष्टता ने तंदुल मत्स्य को सातवें नरक की भयावह यातनाएँ झेलने पर विवश किया।


यह सिद्ध है:कर्म की गांठ जो हँसते बांधी जाए,वो आँसुओं संग जीवनभर सताए।

आइए, हम यह संकल्प लें:

  • भविष्य में यदि हमें दुःख से बचना है, तो वर्तमान में दुष्ट कार्यों से दूर रहना होगा।

  • और यदि भविष्य में सुख की अनुभूति चाहिए, तो वर्तमान में सत्कर्म करते हुए एक आदर्श जीवन जीना होगा।

2 Comments


Guest
Jan 29

Very nice 👍

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Pragnesh Shah
Jan 28

Very nice 👍 good example for better understanding of karma

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