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दृष्टाभाव की पराकाष्ठा!



दृष्टाभाव की पराकाष्ठा!

संत कबीर... अपनी आध्यात्मिक निष्ठा के कारण उस समय सर्वत्र प्रसिद्ध हो गए थे। लेकिन इतनी प्रसिद्धि के कारण गाँव के पंडित बहुत ही दुःखी हो गए। वे सोचने लगे कि आखिर साधारण से दिखने वाले इस व्यक्ति की ख्याति इतनी क्यों बढ़ रही है कि राजा स्वयं इनके भक्त बन गए हैं। अब किसी भी तरह इन्हें बदनाम करना पड़ेगा।


पंडितों ने मिलकर एक योजना बनाई। योजना के अनुसार, गाँव की एक साधारण महिला को अच्छा-खासा पैसा देकर समझाया गया कि जब कबीरजी रास्ते से गुजरें, तब वह उनका हाथ पकड़कर, गले लगकर जोर-जोर से चिल्लाए। इसके बाद बाकी काम पंडित संभाल लेंगे।


अगले दिन कबीरजी रास्ते से गुजर रहे थे, तभी वह महिला उनके पास आई, उनका हाथ पकड़ा, गले लगी और जोर-जोर से चिल्लाने लगी:"मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे थे...? मैं आपकी प्रेमिका हूँ। आपने मेरा इस्तेमाल किया और अब साधु बनकर सम्मान पा रहे हैं। संसार का आनंद लेकर अब आप सन्यासी बने बैठे हैं!"


कबीरजी ने उस महिला से प्रेमपूर्वक कहा:"अच्छा हुआ, तुम आ गई। तुम्हारे मिलने के बाद अब मुझे यह मान-सम्मान नहीं चाहिए। भगवान का बहुत-बहुत आभार कि उन्होंने तुम्हारा साथ दिया। चलो, अब तुम घर आ जाओ। मेरे साथ रहो। अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाना।"


कबीरजी की इन बातों से महिला तो घबरा गई, और साथ ही पंडित भी स्तब्ध रह गए। ऐसा होगा, इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन पंडितों ने महिला को इशारे से कहा कि वह कबीरजी के साथ ही चली जाए। वह महिला भी कबीरजी के साथ चल पड़ी।


इधर, दुश्मन पंडितों ने तुरंत राजा को खबर भिजवा दी कि जिन गुरु को आप मानते हैं, वे तो अपने घर में किसी महिला को साथ रखते हैं।


कबीरजी महिला की सेवा करने लगे, तो वह महिला और भी ज्यादा घबरा गई। वह रोने लगी। तब कबीरजी ने कहा:


"अरे! तू क्यों रोती है? मैं तेरे साथ हूं, फिर चिंता किस बात की?"महिला को कुछ समझ नहीं आया कि अब क्या करे।

उसी समय राजा को इस घटना की खबर मिली। उन्होंने तुरंत अपने सैनिकों को कबीरजी को बुलाने के लिए भेजा। सैनिकों से राजा का संदेश मिलते ही कबीरजी प्रसन्न हो गए। उन्होंने उस महिला का हाथ पकड़ा और सैनिकों के साथ राजा के दरबार में पहुंचे।


यह दृश्य देखकर राजा आश्चर्यचकित रह गए। इससे पहले कि कबीरजी कुछ कहते, वह महिला जोर-जोर से रोने लगी और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगी। उसने कहा:"महाराज! मुझे माफ कर दीजिए। मैं इनकी कोई पत्नी या प्रेमिका नहीं हूं। मुझे तो सिर्फ एक नाटक करने के लिए पैसे दिए गए थे। इनका इसमें कोई दोष नहीं है।


इन्होंने मुझे बड़े आदर और सम्मान के साथ रखा, और अब तो ऐसा लग रहा है कि शायद यह मुझे अब यहां से जाने ही न दें। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे क्षमा करें। मुझे तो केवल पैसे लेकर यह नाटक करना था।"


महिला की बात सुनकर राजा क्रोधित हो गए और बोले:"कबीरजी! आपने तो सारी हदें पार कर दीं! इस तरह रास्ते से किसी भी महिला को अपने घर ले जाना, क्या आपको शर्म नहीं आती? आपके जैसे सज्जन व्यक्ति के लिए यह सब शोभा नहीं देता कि आप किसी महिला का हाथ पकड़कर उसे घर ले जाएं और फिर यहां दरबार में ले आएं। यह सब आपको शोभा नहीं देता!"


राजा के क्रोध का उत्तर देते हुए कबीरजी ने जो कहा, वह सुनकर सबका हृदय पिघल गया। इस कठिन परिस्थिति में उन्होंने जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखा, वह अद्भुत था।


कबीरजी ने गंभीर स्वर में राजा से कहा:"महाराज! इन पंडितों और इस महिला का बहुत-बहुत धन्यवाद। पंडितों ने पैसे देकर यह नाटक करवाया, और महिला ने पैसे लेकर नाटक कर दिया। मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि बिना पैसे दिए मुझे यह नाटक देखने को मिल गया। सच में, खेल देख लिया... नाटक देख लिया।अब मैं अपने भीतर झांक रहा हूं और सोच रहा हूं कि मैं अब तक केवल एक द्रष्टा (देखने वाला) हूं, कहीं कर्ता (कर्म करने वाला) तो नहीं बन गया हूं? अगर हम इस घटना की तरह पूरे जीवन को नाटक समझकर देखें, तो कोई भी दुःखी नहीं हो सकता। कर्ता बनने से केवल दुःख मिलता है, लेकिन साक्षीभाव अपनाने से केवल सुख ही सुख मिलता है।"


यह सुनकर वह महिला, पंडित और स्वयं राजा कबीरजी के चरणों में नतमस्तक हो गए। वे समझ गए कि ऐसी कठिन परिस्थिति में भी कबीरजी ने अपना द्रष्टाभाव और अलिप्तता को कैसे बनाए रखा। उनके आध्यात्मिक जीवन का रहस्य और उनकी महानता सबके सामने स्पष्ट हो गई। यही कारण है कि वे इतने प्रसिद्ध हुए। यह आज सभी को समझ में आया।

תגובה אחת


Pragnesh Shah
13 במרץ

Very nice. Thank you for sharing

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