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गड़बड़ी करने वाले साधु की निंदा करने से पाप लगता है?

Updated: Jul 28, 2024




Gadbad

आज एक कहानी से शुरू करते है।

 

एक नगर में एक बड़ा उस्ताद चोर था। बड़े बड़े घरों में चोरी करता था। फिर भी कभी राजरक्षकों के हाथ में नहीं आता था। नगर की पूरी प्रजा त्राहिमाम पुकार उठी। राजा तक बात पहुँच गई। राजा ने चोर को पकड़ने के लिए गुप्तचरों को आदेश दिया। गुप्तचरों ने अपनी चालाकी से चोर को दूसरे दिन ही पकड़ लिया।

 

राजा ने चोर को फांसी की सजा ज़ाहिर की। चोर सजा सुनकर राजा को एक विनती करता है की आप भले ही मेरे गुनाहों की मुझे सजा दीजिए परंतु मेरे पास रही हुई विद्या को पहले आप स्वीकार कीजिए।

 

राजा ने पूछा कौनसी विद्या है तेरे पास?

 

चोर कहता है कि राजन! मेरे पास लोहे से सोना बनाने की विद्या है। इसके लिए मुझे 3 दिन कुछ यज्ञ-याग करने पड़ेगे और तत्पश्चात मिलने वाली भस्म से मैं आपको तुरंत ही लोहे से सुवर्ण बनाने की विद्या सीखा सकता हूँ।

 

राजा ने अनुमति दी।

 

भारी सुरक्षा के बीच उस चोर को रखा गया। उसने 3 दिन तक यज्ञ-याग किए। और विपुल प्रमाण में भस्म तैयार की। भस्म तैयार होते ही उसने राजा को बुलाया और कहा राजन! आप इस भस्म का स्वीकार कीजिए और भस्म को लोहे पर लगाकर लोहे को सोने में परिवर्तित कीजिए।

 

राजा सोचते है की इसके पास ऐसी विद्या थी तो उसने अब तक चोरी क्यों की?।

 

राजा पूछते है कि भाई! आपके पास इतनी विशिष्ट विद्या होने के बावजूद आपने अब तक सोना क्यों नहीं बनाया? चोरी ही क्यों करते रहे?

चोर कहता है राजन! इस विद्या में ऐसा है कि जिसने जीवन में कभी भी चोरी की हो वो यदि इस भस्म का उपयोग करता है तो उसकी 7 दिन में मौत हो जाती है। मैंने बचपन से लगाकर कई सालों में अनेक चोरियाँ की थी इसीलिए मैंने इस विद्या का कभी उपयोग नहीं किया। मगर आप तो राजा हो आपने तो कभी चोरी नहीं की होगी इसलिए आप इस भस्म का उपयोग कीजिए।

 

राजा इस बात को सुनकर सन्न हो गये। राजा सोचते है की मैंने प्रजा के पैसे से बहुत मज़े किए है। चोरी की है इसीलिए मैं भस्म को हाथ नहीं लगाऊंगा, मगर मेरा मंत्री बहुत प्रामाणिक है उसे मैं बुलाता हूँ।

 

राजा ने मंत्री को बुलाया, सारी बात बतायी। मगर जब 7 दिन के मौत की बात सुनी तो मंत्रीश्वर को भी पसीना छूट गया। उन्होंने कहा माफ करो राजन! मैंने भी कर (टैक्स) के पैसे से भ्रष्टाचार किया है। मैं हाथ नहीं लगाऊंगा।

 

मंत्री की बात सुनकर राजा बड़े आश्चर्यचकित हो गये और उनको सेनापति की याद आयी। उनकी निष्ठा पर उनको बड़ा विश्वास था।

 

सेनापति को हाजिर होने का फरमान दिया और सेनापतिजी तात्कालिक हाजिर भी हो गये।

 

राजा ने अपनी सारी बातें बतायी। सेनापति भी हाथ जोड़कर कहने लगे कि क्षमा करो महाराज! राज्य की रक्षा के लिए जो शस्त्र खरीदे जाते है और कई नये भी बनवाये जाते है। उसमें मैंने भ्रष्टाचार किया है।

 

राजा सिर पर हाथ रखकर लंबा निःश्वास छोड़ते है। बाद में कोषाध्यक्ष, नगरसेठ, राजपुरोहित से लगाकर एक के बाद एक सब को बुलाया मगर किसी ने उस भस्म को हाथ नहीं लगाया।

 

अरे! पूरे नगर में ढिंढोरा पीट दिया कि कोई तो आओ! भस्म से लोहे को सोना बनाओ।

 

लेकिन एक भी नगरवासी आगे नहीं आता है। क्योंकि किसी ने School Time में किसी के  Compass Box में से Pencil चुराई है तो किसी ने School Bag में से कोई Book…।

 

छोटे थे तब उसके जैसी और बड़े हो गये तो उसके जैसी चोरी करते ही गये।

 

पूरे नगर से जब कोई एक भी इन्सान भस्म को हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ तब चोर ने कहा कि माफ़ करना राजन! मुझे ऐसा नहीं पूछना चाहिए मगर मैं अब पूछने के लिए अपने आप को रोक नहीं सकता हूँ इसलिए पूछ रहा हूँ की चोरी आप ने की, मंत्रीश्वर ने की, सेनापति ने भी की और पूरे नगरजनों ने की। मगर सजा मुझे अकेले को ही क्यों? आप सबको क्यूँ कोई सजा नहीं?

 

चोरी करना गुनाह है कि

चोरी करते पकड़े जाना यह गुनाह है?

 

राजा मौन हो गये!

 

 

पहला प्रश्न:- आप निंदा किसकी करते हो?

जो दोषों का सेवन करते है, पापाचरण करते है उनकी? या जो दोषों का सेवन करते हुए पकड़े गये है, जिनका पापाचरण ज़ाहिर हो गया है उनकी?

 

दूसरा प्रश्न:- दूसरों को अपराधी मानने वाले हमने अब तक कितने अपराध किए हैं और वर्तमान में कर रहे है वो कभी देखा है?

 

जवाब देने की ज़रूरत नहीं है आपका जवाब क्या है वह मुझे समझ में आ गया है।

 

यदि आप अपने आप को धार्मिक मानते हो, बहुत चुस्त धार्मिक समझते हो, और विशेष रूप से शासन प्रेमी होने का गर्व लेते हो तो आपको मालूम होगा कि धर्म में प्रवेश पाने वाला अर्थात् सम्यगदृष्टि आत्मा कभी किसी के दोष देखता ही नहीं है। केवल उपबृंहणा – अनुमोदना ही करता है। कहाँ कितना बुरा है वह नहीं देखता मगर कहाँ कितना अच्छा है वही देखने का काम करता है। श्रीकृष्ण महाराजा का दृष्टांत इस विषय में सुप्रसिद्ध है। सभी निंदक धर्मात्मा(?) को इस दृष्टांत का आत्मचिंतन पूर्वक पुनरावर्तन करना चाहिए।

 

पता नहीं क्यूं! मगर एक बात तो देखी है की तुच्छबुद्धि वालों को पतित आत्माओं की निंदा-अपमान करने में बहुत मज़ा आता है। पतित जीवों की बातों को बढ़ा-चढ़ाकर फैलाना उनका निजी व्यवसाय सा बना दिखता है।

 

अच्छा है कि X-Ray, Sonography, CT Scan, M.R.I. जैसी testing machine की तरह मन के विचारों को आसानी से जाँच करने वाली machine आई नहीं है। जिस दिन ऐसी machine आ गई तब इन बेचारे निंदकों का क्या हाल होगा?

 

अपने आप को सज्जन शिरोमणि बताने वाले, परम धार्मिक रूप से दुनिया के सामने पेश होने वाले, “मैंने तो ऐसा कभी कुछ किया ही नहीं है।” ऐसा आत्मवंचना के साथ भ्रम का पोषण करने वाले महाशयों को अपना मुँह छिपाना पड़ेगा। किसी छोटे बिल में घुस जाना पड़ेगा।

 

अरे! खुदके दोष देखने में से हमें कहाँ फुरसत मिलती है कि दूसरों के दोष देखने जाए। हम जिनकों निम्न समझते है मगर हो सकता है कि वो महान हो। क्योंकि हमारी नजरों में खामी हो सकती है। जैसे ट्रेन की दो पटरी कभी एक साथ नहीं होती फिर भी हमें एक होती दिखती है ना!

 

प्रभु महावीर ने केवलज्ञान में सबको देखा... सब कुछ देखा मगर कभी किसी की निंदा नहीं की। हम तो अज्ञानी हैं। क्यों हम पूज्य साधु-साध्वी की निंदा करें? हो सकता है कि कर्मवश उनसे गलती हुई भी सही मगर हमें उनकी निंदा करने का अधिकार नहीं मिलता है।

 

अब तक उन्होंने जो संयम जीवन का पालन किया उसको हमने देखा? कि अभी-अभी उन्होंने जो गलती की उसको हमने देखा?

 

क्रिकेटर 99 रन बनाकर आउट भी हो जाता है तो लोग तालियां बजाते हैं। आउट हो गया फिर भी तालियां!! हाँ, क्योंकि 99 रन बनाएं उसके लिए तालियां बजती है, नहीं कि आउट हो गया उसके लिए।

 

हमें तो पू. साधु-साध्वीजी ने अब तक संयम जीवन का जो पालन किया उसकी अनुमोदना करनी है। किंतु उनके दोषों के सेवन की निंदा हमें नहीं करनी है।

 

यदि ऐसा हो गया कि उनके गुरुदेव ने उनको डाँटा, शिक्षा की, प्रायश्चित दिया और वे शुद्ध हो जाएंगे मगर हम उनकी निंदा करते रहे तो चिकने कर्मों का बंध कर बैठेंगे।

 

प्रश्न : मान लो उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी। जिसको हम माफ़ भी नहीं कर सकते है।  हमारे मन में उन कार्यों-पापों के कारण आक्रोश प्रकट हो गया है और हमें मन में उनके बारे में बहुत कुछ करने की इच्छा हो रही है। तो हमें क्या करना चाहिए?

समाधान : दीक्षा के पूर्व विदाय समारोह में दीक्षार्थी अपने उद्बोधन में कहते हैं कि “अब तक मेरे एक ही माता-पिता थे। मगर संयम जीवन अंगीकार करने के बाद से मेरे लिए पूरे संघ के सभी श्रावक-श्राविकाएं माँ-बाप बन जाएंगे।”

 

पूछना चाहता हूँ कि आपने अब तक माँ-बाप बनकर पूज्य साधु-साध्वीजी की चिंता, योगक्षेम, देखभाल, सम्भाल कितनी की?

 

उनकी विहार चर्या, गोचरी चर्या और बीमारी के वक्त आपने कितना खयाल रखा?

(कभी शाम की गोचरी के विषय में शांति से चिंतन करना।)

 

उनके स्वाध्याय, संयम, समाधि के बारे में कितनी गंभीर बने?

 

उनके शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के विषय में आपने कितना ध्यान रखा?

 

उन्होंने यह गलती क्यों और कैसे की। उनका सकारात्मक एनालिसिस करने की कोशिश भी की? और कभी अंतरात्मा को पूछना की पू. साधु-साध्वीजी को सचमुच में हमारी संतान के रूप में समझा है?

 

आपके बेटे-बेटी युवा होने के जोश में कुछ न करने जैसा कर बैठते हैं। तब आप ऐसा ही करते हो जैसा आप पूज्य साधु-साध्वीजी के साथ करते हो? या करना चाहते हो?

 

उनको Expose करना, सोशल मीडिया पर शेयर करना, लोगों में बड़ा चढ़ाकर बातें फैलाना ऐसा ही कुछ आपके बेटे-बेटी के लिए करते हो?

 

अरे! आप दूर दूर के विहारों में कभी गये नहीं!

आपने पंडित जी के पगार के बारे में कभी पूछा नहीं!

बड़े बड़े ऑपरेशन के वक्त उनके संसारी परिवार का संपर्क किया और उनको सौंप दिया।

प्रभावकता के पीछे दौड़ने वालों! आप सच्चे संयमप्रेमी हो?

 

जैसे अन्न के अतिरेक से अन्न का मूल्य नहीं समझाता।

जैसे जल के अतिरेक से जल की कीमत नहीं समझाती।

वैसे पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत का बार बार दर्शन-वंदन का लाभ मिलना, उनके अति परिचय में आना उससे उनका महत्व नहीं समझाता। उल्टा हम उनकी निंदा करने लग जाते हैं इसलिए मैं आपको कहना चाहता हूँ की जब आपको साधु-साध्वीजी के दोष दिखने लगे तब आप उनसे दूर हो जाना। उनके संपर्क-सत्संग में मत रहना। वरना आपका ज्यादा नुकसान हो जाएगा।

 

देखो, गलत करते रहना चाहिए, भूल सुधारनी नहीं चाहिए मैं उसके पक्ष में नहीं हूँ।

जो गलत है, वो गलत ही है। मगर उसकी चर्चा गलत है।

ग़लत को सुधारने का ये तरीका नहीं है।

 

प्रभु ने अंधे को अंधा नहीं बोलना ऐसा कहा है। तो दोषी-अपराधी को हम क्यों दोषी-अपराधी कहे। उनकी वर्तमानकालीन आत्मावस्था मलिन है। उनका केवल पर्याय ही देखेंगे तो हमारा सम्यक्दर्शन शुद्ध नहीं है। उनका आत्म द्रव्य तो शुद्ध ही है।

 

किसीकी भी पापप्रवृत्तियों की निंदा करने से नाही संघ को लाभ होगा, नाही शासन को लाभ होगा और नाही तो स्व को लाभ होगा। ऊपर से नुकसान ही नुकसान है।

 

उसका जो सही रास्ता है वही हमें अपनाना चाहिए।

 

1.    पहले उनसे एकांत में मिलकर हितचिंतक कल्याणमित्र बनकर उन्हें प्रेमपूर्वक सद्भावपूर्वक समझाने की कोशिश करनी चाहिए।

2.    बाद में सफलता न मिले तो उनके गुरु महाराज जी से बताना चाहिए। बात करनी चाहिए।

3.    वहां भी लगता है कि शासन हीलना नहीं रुकती है तो गच्छाधिपति – प्रवर समिति से बात करनी चाहिए। मगर अपने मुंह से इधर-उधर चर्चा करके निंदा नहीं करनी है।

शास्त्र कहते हैं कि एक साधु या एक साध्वी की निंदा करने से ढाई द्वीप में विराजमान 100 करोड़ से अधिक साधु-साध्वीजी की निंदा करने का पाप हमें लगता है।

 

सावधान!!!

 

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