कंदमूल के एक-एक कण में अनंता जीव होते है, यह साबित करने के 5 मुद्दे है, उनमें से दूसरे 'जीव अनादि अनंत है'।इस मुद्दे को साबित करती हुई (a) और (b) ऐसे दोनों बातों को हमने देखा.. अब तीसरी बात देखते है। (c) मान लो कि जीव उत्पन्न होते है.. तो जिस समय पर उत्पन्न होते है उस समय सभी में समानता मानेंगे या विषमता मानेंगे? यानि कि सभी के तत्कालीन स्वभाव- संस्कार- बाह्य उपलब्धियां, सुख – दुःख - ज्ञान आदि एक समान मानेंगे या विषम मानेंगे?
यदि विषम मानना हो तो उस विषमता के कारणरूप उस प्रत्येक जीव का विवक्षित उत्पत्तिकाल के पूर्व भी अस्तित्व को मानना पड़ेगा। यहीं परंपरा पूर्व - पूर्वकाल के लिए भी मानना जरूरी होने से जीव को अनादि मानना ही पड़ेगा। और उन सभी जीवो में उत्पत्तिकाल में समानता को ही मानना होता तो, वर्तमान में भी समानता को ही मानना चाहिए। पर देखने में तो विषमता दिखाई देती है। उत्पत्तिकाल में हर प्रकार से समानता धरानेवाले उत्तरकाल में भी विषम बन ही नहीं सकते। क्योंकि, विषम बनाने में कारणभूत कोई भी विषमता उनमें है ही नहीं। इसलिए वर्तमान में दिखनेवाली विषमताओं के कारणरूप भूतकालीन विषमता.. उसके कारणरूप ओर भूतकालीन विषमता... इस प्रकार विषमताओं के अनादिप्रवाह को मानना जरूरी होने से जीव ‘अनादि’ है। और उसका सर्वशून्य नाश कभी भी नहीं होने के कारण जीव बिना अंत का ‘अनंत’ है।
इसका अर्थ एक भी नया जीव उत्पन्न नहीं होता है। या एक भी जीव का कभी-भी नाश नहीं होता है। अर्थात् जीवो की संख्या FIX है।
अब तीसरे मुद्दे को देखते है (3) जीव का मोक्ष संभवित है। इसलिए जीवो का मोक्षगमन चालू ही है।
(a) विश्व के किसी भी जीव से पूछो जिस सुख का नाश हो जाए वैसा सुख चाहिए, या जिसका कभी भी नाश नहीं हो वैसा शाश्वत सुख चाहिए?
स्वाधीन सुख चाहिए कि पराधीन?
दुःखों से मिश्रित सुख चाहिए की अमिश्रित?
उत्कृष्ट सुख चाहिए या निम्न कक्षा का?
सभी का जवाब शाश्वत, स्वाधीन, दुःखमुक्त, उत्कृष्ट सुख चाहिए। जिसे पूरा विश्व सुख चाहता है एसा यह सुख कहीं पर तो होना ही चाहिए। जो कहीं भी, कभी-भी नहीं होते वैसे आकाशसुमन आदि की तो किसी को भी कभी-भी इच्छा नहीं होती है। और एसा शाश्वत - स्वाधीन सुख संसार में तो कहीं पर भी नहीं है, यह सभी के अनुभवसिद्ध है। इसलिए ऐसे सुख के स्थान के रूप में मोक्ष को मानना जरुरी है।
b) जिन शब्द व्युत्पत्ति के बने हुए हो, यानि कि शब्द बनने के नियमों के आधीन होकर बने हुए हो।और असामासिक हो उन शब्दों का भावार्थ इस विश्व में होता ही है।
जैसे कि जिस जीव ने प्राणधारण किया हो वह जीव। 'जीव' शब्द इस प्रकार से व्युत्पत्ति से बना हुआ है और असामासिक है। तो उसका वाच्यार्थ इस विश्व में है ही। इसी ही तरह घट-पट आदि शब्दों को जानना है। पर 'ड़ित्थ' शब्द व्युत्पत्ति से बना हुआ नहीं है। तो उसका वाच्यार्थ विद्यमान होगा ही एसा नियम नहीं बाँध सकते हैं।
खर (गधा) और शृंग (शींग).. यह दोनों व्युत्पत्ति सिद्ध असामासिक शब्दों है। इसलिए उसका वाच्यार्थ भी इस विश्व में होता ही है। पर 'खरशृंग' सामासिक शब्द है। इसलिए उसका वाच्यार्थ नहीं होगा तो भी कोई दिक्कत नहीं है। (गधे का शींग नहीं होता है।)
‘मोक्ष’ शब्द व्युत्पत्ति से बना हुआ है, और असामासिक है। इसीलिए उसका वाच्यार्थ 'मोक्ष' इस विश्व में होना ही चाहिए।
(c) डायोजनीज उसके जमाने का प्रसिद्ध फिलोसोफर था। राजा की ओर से उसे राजगुरु बनने का आमंत्रण मिला था। पर उनको अपनी मस्ती में जीना था इसलिए मना कर दिया। फिर किसी दूसरे विद्वान की उस पद पर नियुक्ति हो गई।एक बार डायोजनीज बर्तन माँज रहे थे, तब उस विद्वान की राजपालखी वहाँ से गुजर रही थी। विद्वान ने डायोजनीज से कहाँ की थोड़ी राजा की खुशामत करनी आती होती तो ऐसे बर्तन नहीं माँजने पडते... तब डायोजनीज ने खुमारी से उस विद्वान से कहाँ; आपको दो बर्तन माँज लेना आता होता, तो राजा की खुशामत नहीं करनी पड़ती।...
हाँ, उस विद्वान से भी डायोजनीज ज्यादा मस्त, सुखी, प्रसन्न थे, क्योंकि किसी भी प्रकार की स्पृहा नहीं थी।
दुनिया में ऐसे लोग दिखाई देंगे, की 6 करोड़ की स्पृहा अपेक्षा रखनेवाले को 5 करोड़ मिल हो... और मुश्किल से दोसौ - तीनसौ की अपेक्षा रखनेवाले को पाँचसौ मिल गए हो... तो 5 करोड़वाला दुःखी होगा... 500₹ वाला खुश- खुश होगा। स्पष्ट है कि, जैसे-जैसे स्पृहा घटती जाती है, वैसे वैसे सुख बढ़ता जाता है।
इसलिए ही ज्ञानसार में महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि 'परस्पृहा' यही महादु:ख है। ‘नि:स्पृहत्व’ यही महासुख है।
इसीलिए ही ऐसा भी कहा जाता है कि-
Desire to be Desireless... इच्छा करनी हो तो एक ही करने जैसी है की- इच्छाशून्य बन जाना।
दुनिया की किसी भी भाषा किसी-भी संस्कृति में ऐसी बातें देखने को मिलती ही है। इसलिए मान लेना चाहिए कि कोई एसी अवस्था होनी ही चाहिए कि जहाँ जीव इच्छाशून्य बन जाता हो।
और, एसा भी दिखाई देता है कि, एक से दूसरे की इच्छा - स्पृहा कम हो... दूसरे से तीसरे की कम हो... यह तरतमता आगे बढ़ती रहती है। तो अवश्य ही कोई जीव संपूर्ण इच्छाशुन्य होगा... यह इच्छाशून्य अवस्था ही मोक्ष है।
और इच्छा यही दु:ख है। इसलिए इच्छाशून्य अवस्था में परमसुख होता है।इसीलिए ही भारत में उद्भवित किसी भी आस्तिकदर्शन मोक्ष के लिए किए गए पुरुषार्थ को ही मानव जीवन का मुख्य कर्तव्य मानता है।
ऐसी अन्य भी अनेक दलीलों से मोक्ष सिद्ध होता है।
इस मोक्ष में इच्छाएँ ही नहीं है, इसलिए फिर से नए कोई कर्म - पाप बाँधने नहीं होते है। क्योंकि तरह-तरह की इच्छाएँ ही जीव के द्वारा पाप कराती है। इसलिए मोक्ष में जाने के बाद फिर से वापस संसार में कभी भी आना नहीं होता है।
और, यदि मोक्ष में से भी वापस संसार में आना होता तो वह ‘मोक्ष’ रहेता ही नहीं। संसार का ही एक स्वरुप बनकर रहे जाता, क्योंकि कुछ काल तक सुखी रहो... और फिर से दु:खी बन जाओ... इस संसार की यही ख़ासियत है।
और मोक्ष पाने की साधना अति अति दुष्कर है। इसलिए मोक्ष में से यदि वापस संसार में आकर दु:खी होना हो तो मोक्ष प्राप्त करने के लिए कोई साधना करेगा ही नहीं। क्योंकि time being सुख तो संसार में भी कहाँ नहीं मिलता है?
इसलिए एक बार मोक्ष में गया हुआ जीव फिर से कभी-भी संसार में नहीं आता है, एसा मानना आवश्यक है।
और, यदि मोक्ष है, मोक्ष मार्ग है, तो आंतरो – आंतरो में जीवों का मोक्षगमन चालू ही है, यह भी मानना जरूरी है।
4) जीवो की संख्या अनंतानंत है-
अब संसार अनादि है। यानि कि कितना भूतकाल बीत गया? उसके लिए हम जितनी भी कल्पना करेंगे जैसे की अनंतानंत- अनंतानंत- अनंतानंत काल बीत चुका है… यह गिनती कम ही रहेनेवाली है। यदि यह नहीं मानते तो इतने काल के पूर्व में विश्व का प्रारंभ मानना पड़ेगा जो कि संभव नहीं है। यह हम देख चुके हैं।
इतने विराट भूतकाल में अनंतानंत- अनंतानंत- अनंतानंत जीव मोक्ष में गए हैं, क्योंकि आंतरे - आंतरे में जाते ही रहते हैं।और फिर भी संसार तो एक अंश मात्र भी खाली हो रहा हो, एसा नजर नहीं आता है। और यदि कभी-भी खाली हुआ होता तो अभी तक खाली हो ही गया होता। क्योंकि यह जितने काल में खाली हो जाने की कल्पना हम करेंगे, उससे कई गुना अनंतानंत काल गुजर ही चुका है। इन सभी बातों को थोड़े सहृदयता से गहराई से सोचनी चाहिए।
और जितने जीव मोक्ष में गए हैं, उससे भी अनंतानंत गुना जीव संसार में रहते हैं।इतने अधिक प्रमाण में अनंतानंत गुना होते है की जिससे चाहे कितना भी काल गुजर जाए और जीव मोक्ष में जाते ही रहते हो, तो फिर भी इस संसारस्थ जीवों की संख्या में ख़ास कोई कमी होती नहीं है।वर्ना तो इस घटोतरी होते होते कभी तो संसार खाली ही हो जाता... और तो फिर ऊपर बतायानुसार अब तक तो ख़ाली ही हो गया होता।
इसीलिए ही शास्त्र में भी लिखा गया है कि-
केवली भगवंत को जब भी पूछा जाता है कि अभी तक में कितने जीव मोक्ष में गए? तो उनका यही जवाब होता है कि एक निगोद का अनंतवा ही भाग मोक्ष में गया है।
इसलिए जीव अनंतानंत है।
5) इन जीवों के रहने का क्षेत्र भी यदि अपरिमित अनंतानंत गुना होता, तो तो जीवों का परस्पर मिलन अति अति दुष्कर हो जाता... 25-50 काष्ठ के टूकड़ों को रहने का क्षेत्र पेसिफिक महासागर जितना हो, तो इन टूकड़ो का परस्पर मिलन होना कितना मुश्किल बन जायेगा!
इसलिए यह मानना जरूरी है कि, इस अपार अनंतानंत जीवों का रहने का क्षेत्र अपरिमित नहीं है पर परिमित है।शास्त्रवचनानुसार यह ‘लोक’ प्रमाण है जो असंख्य आकाशप्रदेश प्रमाण है।
इस प्रकार से परिमितक्षेत्र में अपरिमित अनंतानंत जीवो को रखना हो तो, कुछ ऐसी बातों मानना ही पड़ेगा कि, जिस अल्पस्थान में अनंतानंत जीवो को अपने में समा लेता हो।
ऐसी चीजों को शास्त्रीय भाषा में साधारण वनस्पतिकाय कहते हैं। जिसमें एक- एक शरीर में अनंतानंत जीव होते हैं।इसे ही 'निगोद' भी कहते हैं। आलू – प्याज़ आदि कंदमूल का भी यह साधारण वनस्पतिकाय में शास्त्रकारों ने समावेश किया है।
क्योंकि इसमें साधारण वनस्पतिकाय की व्याख्या फिट बैठती है।
इसलिए कंदमूल के एक-एक कण में अनंतआनंत जीव का होना साबित होता है।
इन सभी बातों को सुक्ष्मविचारणा पूर्वक गहराई से सोचने के लिए सभी सुज्ञों को प्रेरणा है। जिन बातों को मानने के लिए 80-90% तो पावरफुल तर्कों का पीठबल है। और नहीं मानने में तो अनेक असंगतियां है।ऐसी बातों में भी 'धर्म की कही गयी बातों में शंका ही करना है’
ऐसे कदाग्रह के आधीन होनेवाली शंकाओं को तिलांजली देकर यदि खुले दिल से विचार किया जाए तो ऐसी बातें एकदम तर्कसंगत होना अवश्य प्रतीत होगा।
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