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एक नगर के मुख्य राजमार्ग पर एक सुंदर बंगला था। सुबह की खिलती उषा में किसी ने उस बंगले का दरवाजा खटखटाया। घर के मालिक ने दरवाजा खोलकर देखा, तो सामने मुस्कुराते हुए एक सज्जन खड़े थे।
सज्जन ने कहा, “मुझे रहने के लिए घर चाहिए। मिलेगा?
मालिक ने कहा, “आपको कोई गलतफहमी हुई है। यह बंगला ‘मेरा’ है, इसमें 'मैं रहता हूँ, मुझे यह किराए पर नहीं देना है।”
सज्जन ने कहा, “पूरा बंगला नहीं, तो एकाध माला रहने के लिए मिल सकता है?”
मालिक ने कहा, “इस बंगले का एक भी माला खाली नहीं है।”
सज्जन बोले, “कोई एक कमरा?”
मालिक, “अरे! सभी कमरे सामान से भरे हुए हैं।”
सज्जन, “मेरे पास कोई सामान नहीं है। बैठने के लिए सिर्फ एक कोना भी मिल जाए, तो भी चलेगा।”
मालिक, “अरे भाई, मुझे अभी कुछ सामान और भी लाना है, वह सामान कहाँ रखूँगा, मुझे तो इसकी चिंता है? माफ कीजिए! मैं आपको रहने की जगह नहीं दे सकता।”
मालिक ने दरवाजा बंद कर दिया। कुछ देर के बाद किसी काम से मालिक ने दरवाजा खोला और नीचे देखा तो कुमकुम के पदचिह्न थे और चारों ओर महक फैली हुई थी।
किसी निपुण व्यक्ति ने कहा, “भगवान तेरे दरवाजे पर आकर वापिस लौट गए, ऐसा लगता है।”
इस घटना के बाद उस मालिक की मानसिक स्थिति कैसी रही होगी? यह बात रहने देते हैं। पर, हमारे भी जीवन रूपी बंगले के दरवाजे पर अनेक बार शुभ विचार रूपी परमात्मा पधारते हैं। कभी सद्वाचन से, कभी सद्श्रवण से, कभी सत्संग से मन में शुभ विचारों के सुंदर बीज का रोपण होता है। जिसमें से सुंदर आचारों का वटवृक्ष विकसित होता है। जिस पर परोपकार के पुष्प, प्रामाणिकता की कलियाँ और पवित्रता की डालियाँ आती हैं। उन सभी के सार के रूप में मीठे मधुर चित्तप्रसन्नता रूपी फलों की सुंदर जमावट होती है।
उस प्रसन्नता के फल हमें तो तर-बतर करते ही हैं, पर उसका स्वाद हम जिनको भी चखाते हैं, वे भी तर-बतर हो जाते हैं।
पर उस शुभ विचार रूपी परमात्मा को हमारे जीवन रूपी गृह में प्रवेश ही नहीं मिलता है। उसका कारण है - हमारे मन में संग्रह करके रखा हुआ बेकार कचरा।
कहीं पर हमारे मन की स्वार्थ वृत्ति, कहीं पर अहंकार वृत्ति, कहीं कपट लीला, तो कहीं भौतिक महत्वाकांक्षाएँ। ऐसी तो अनेक तुच्छ, फालतू और बेकार विचारधाराएँ, दुर्भाव, दुर्ध्यान और दुश्मनी के भावों के फालतू सामानों के कारण हम शुभ विचार रूपी परमात्मा को हमारे जीवनगृह में प्रवेश करवाने के लिए जगह नहीं दे पाते।
आज एक आत्मनिरीक्षण करते हैं कि, चित्त प्रसन्नता रूपी सुंदर फल देने वाले उन सुंदर विचारों के बीज अनेक माध्यमों से हमारे पास आते तो हैं।
पर वे बीज सुंदर आचार रूपी वट वृक्ष क्यों नहीं बन पाते? और मेरे जीवनगृह को सुगंध से तर-बतर क्यों नहीं बनाते? ऐसे कौन-कौन से अंतराय रूपी परिबल हैं? मेरे मन की ऐसी कौन-कौन सी दुष्टवृत्ति है जो मुझे प्रसन्न नहीं होने देती?
साथ ही एक संकल्प करते हैं कि आज ऐसी कोई एक दुष्टवृत्ति को खोजकर उसे बाहर निकालने का प्रणिधान करेंगे, प्रार्थना करेंगे और दृढ़ प्रयत्न करेंगे।
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