जिनशासन तेरे लिये...
- Priyam
- Dec 12, 2024
- 4 min read
Updated: Dec 19, 2024

छगन बगीचे में अपनी पत्नी के साथ बैठा था। पत्नी को खुश करने के लिए उसने कहा, "तू कहे तो आसमान के तारे भी तोड़ लाऊं।" पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, "अच्छा, ऐसा करो, इस बगीचे में जो फूल हैं, उन्हें तोड़कर ले आओ।" यह सुनकर छगन ने तुरंत मना कर दिया।
पत्नी आश्चर्यचकित होकर बोली, "आसमान से तारे तोड़ने की बात कर रहे थे, और अब बगीचे के फूल तोड़ने से मना कर रहे हो?"
छगन ने हंसते हुए जवाब दिया, "आसमान में कोई चौकीदार नहीं होता। लेकिन यहाँ बगीचे में माली है, और उसके हाथ में डंडा भी है!"
इस संवाद से हमें एक गहरी सीख मिलती है।
आज का विषय है - 'जिनशासन तेरे लिए'
हमारा दृष्टिकोण अक्सर इस छगन के जैसा होता है। जब त्याग या समर्पण की बात आती है, तो हम बड़ी-बड़ी कुरबानी की बातें कर लेते हैं, लेकिन जब छोटे-छोटे कर्तव्यों को निभाने की बात होती है, तो हम जान कुरबान करने के नाम पर पीछे हट जाते हैं।
जिन शासन के लिए हमें बड़ी कुर्बानियों की आवश्यकता नहीं है।यह मार्ग हमें कुछ त्यागने से अधिक, कुछ ‘बनने’ की प्रेरणा देता है।
1. जिनशासन के लिये पृथ्वी बन जाओ-
छगन चौराहे पर एक अमरीकी से मिला। उसने छगन से पूछा, “आपके यहाँ इलेक्ट्रिक वायर इतनी ऊंचाई पर क्यों लगाए जाते हैं?” छगन ने जवाब दिया, “ताकि हमारी बहनें उस पर कपड़े न सुखाएं।”
यह कहने दीजिए कि वायर की बात छोड़ दीजिए, लेकिन क्या हम अपने जिनशासन का भी वैसा ही इस्तेमाल नहीं करते? उस पर कपड़े नहीं, बल्कि अपने अहंकार को टांग देते हैं। अपने मत्सर को टांग देते हैं। अपने आपसी खींचतान, दिखावे, दंभ और प्रतिस्पर्धा को टांग देते हैं। शासन के नाम पर हमने ऐसा बहुत कुछ कर दिया है, जो नहीं करना चाहिए था। हमने बहुत कुछ उसमें डाल दिया है, जो नहीं डालना चाहिए था।
अब समय आ गया है कि हम शासन के सच्चे वाहक बनें। जिनशासन की जिम्मेदारियों को समझें और उनका निर्वाह करें। आइए, जिनशासन के लिए पृथ्वी बन जाएं।
एक भाई मेरे पास आए। उन्होंने कहा, “हमारे संघ में मैं ट्रस्टी हूँ। कभी-कभी ऐसा होता है कि पूजारी नहीं आते, तो उस दिन मैं खुद केसर घिसता हूँ। उस दौरान कई लोग आते हैं, मुझे देखकर पूछते हैं, ‘पूजारी नहीं आए?’ पर कोई भी मेरी मदद नहीं करता।”
हमारी अपेक्षाएँ, लापरवाही और गैरज़िम्मेदारी का यह एक छोटा-सा नमूना है। मैं अपने शिष्यों को सिखाता हूँ कि यदि आप उपाश्रय में कहीं जा रहे हैं और देखते हैं कि रास्ते में कचरा पड़ा है, तो उसे उठाकर उचित स्थान पर रखने के बिना आगे बढ़ गए, तो आपका हृदय कठोर और निष्क्रिय हो जाएगा। आप देख रहे हैं कि पानी का घड़ा खुला पड़ा है, लेकिन उसे ढकने के बजाय आगे बढ़ जाते हैं, तो चाहे आप कितना भी स्वाध्याय करें, आपके भीतर ज्ञान का परिणमन नहीं होगा।
शासन के लिए पृथ्वी बन जाइए। शिखरजी और शत्रुंजय को आपको अपने कंधों पर वहन करना है। ऐसा सामर्थ्य और बल आपको छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियों को उठाने और उन्हें निभाने से मिलेगा। पृथ्वी सबकुछ सहन करती है। चाहे उसके ऊपर टावर पर टावर खड़े कर दिए जाएँ, वह कभी हाथ ऊँचे नहीं करती। कोई उसे जलाए, खोदे या सुरंग बनाए, फिर भी वह सहनशील बनी रहती है। संस्कृत में पृथ्वी को "सर्वंसहा" कहा गया है, यानी जो सबकुछ सहन कर ले।
आपने कभी संघ के अग्रणी से यह कहा है कि अगर पूजारी नहीं आए, तो उस दिन मुझे सेवा का अवसर दीजिए? क्या आपने कभी पाठशाला संचालक से कहा है कि मेरी आवश्यकता हो तो बताइए? बारह महीनों में एक बार भी ऐसा मन हुआ है कि आज मैं व्याख्यान हॉल का काजा निकालू (सफाई करूँ)? या दस सालों में एक बार भी यह विचार आया है कि मुझे व्याख्यान की पाट को पूरी तरह स्वच्छ करना चाहिए?
पृथ्वी को "माता" कहा जाता है, क्योंकि उसमें वात्सल्य होता है। संघवात्सल्य और शासनवात्सल्य, ये भाव तीर्थंकर पद की प्राप्ति की महान आराधनाएँ हैं। हमें कठिन तपस्या करना सरल लगता है मगर शासन सेवा भारी लगती है।
एक बार मैं ज़मीन पर हाथ टिकाकर स्वाध्याय करता था। मेरी उँगली में तीव्र पीड़ा हुई। देखा तो एक चूहा भाग रहा था। मेरे शिष्य ने यह देखा और दो-तीन दिन तक मेरी उँगली पर मरहम लगाते रहे। वह दस सेकंड की सेवा वात्सल्य का प्रतीक थी। गुरु महाराज के प्रति एक प्रकार की ममता थी।
पाट को स्वच्छ करने में कितना समय लगता है? सामयिक, प्रतिक्रमण, प्रवचन श्रवण या छठ्ठ करके सात यात्रा की तुलना में? फिर भी यदि ज्ञानी की दृष्टि में वात्सल्य से अधिक लाभ होता है, तो इसे नज़रअंदाज़ क्यों करें? ‘वच्छल्ल पभावने अट्ठ’ – बिना वात्सल्य की सब आराधना ‘बगैर एक के शून्य’ जैसी हो तो?
जब तक हम जिनालय के हर उपकरण के कण-कण के प्रति भक्तिभाव नहीं रख सकते, तब तक हम भगवान के भक्त भी नहीं बन सकते।
यह कहने दीजिए कि अपनी उँगली के लिए तो सभी उपाय करें, लेकिन गुरु की उँगली के लिए निर्लेप बने रहें। क्या यह हमारी वास्तविकता नहीं है? घर के फर्नीचर के प्रति जो आत्मीयता होती है, क्या वही आत्मीयता संघ की पाट, नाण, या स्थापनाजी के प्रति भी है? क्या हमें देरासर की एक-एक वस्तु से उतना ही प्रेम है जितना अपने घर की वस्तुओं से?
मेरे शिष्य जो प्रेम से मेरी उँगली पर दवाई लगाते थे, उस प्रेम के साथ देरासर का एक भी चामर हमने कभी-भी स्वच्छ किया है?
पृथ्वी, मातृत्व, वात्सल्य – यही चौथे आरे का वास्तविक अर्थ है। मेरा संघ, मेरा शासन, मेरा देरासर, मेरा उपाश्रय। शासन के प्रति यह वात्सल्य ही भाव महाविदेह क्षेत्र है। यदि हम चाहें, तो आज और अभी से इस भाव महाविदेह को आत्मसात कर सकते हैं।
(क्रमशः)
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