भगवान महावीर स्वामी के परिनिर्वाण के बाद 270 साल से लेकर 330 साल की एक भव्य कालखंड की ऐतिहासिक गाथा यहाँ पर पेश होने जा रही है। भारत के महान साम्राज्य मौर्या साम्राज्य का अंतिम सितारा सम्राट संप्रति अस्त हो रहा था, उसी समय कलिंग-आज के ओरिस्सा की ओर से एक महान सितारा उदित होने जा रहा था। उसका नाम था- महामेघवाहन कलिंगचक्र-चक्रवर्ती खारवेल राजा भिखु राय। आश्चर्य की बात यह थी कि ये दोनों ही सम्राट जैन धर्म के चुस्त अनुयायी थे।
ऐतिहासिक तथ्य इन दोनों को बहुत बड़े ‘साम्राज्य स्थापक’ के रूप में पेश कर रहा है, फिर भी इनकी इतिहास लिखनेवाले साक्षरो ने बड़ी उपेक्षा की हो ऐसा लग रहा है। क्या कारण होगा वह तो भगवान ही जाने। शायद सेक्युलरिझम के प्रभाव-दुष्प्रभाव के कारण ऐसा किया गया हो! व्यक्ति ने निजी धर्म मान्यता को लेकर व्यक्ति के समूचे विराट व्यक्तित्व को अनदेखा कर देना यह तो बहुत ही बड़ा अन्याय कहा जाएगा? यह कैसी विद्वक्तता कैसी साक्षरता?
अस्तु, यह कथा अनजान पन्नों को खोल रही है। शायद बहुत लोगो ने तो ‘खारवेल’ यह नाम भी नहीं सुना होगा। कलिंग- कुमारगिरी - कुमारगिरी पर्वत शृंखला, खारवेल, आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ति सूरिजी, आर्य बल, आर्य उत्तर- बलिस्साह आर्य सुस्थित- सुप्रथिबद्धसुरीजी सम्राट सम्प्रति आन्ध्रपति शातकर्णी, तामील गणसंघ मगधपति बृहद्रथ, पुष्यमित्र इन सभी वास्तविक सन्दर्भों, व्यक्तित्वो के साथ साथ इस विस्तृत जीवन गाथा-संघर्ष गाथा और विजय गाथा में जंगल, जंगल का जीवन, सेनापति वप्रदेव, सेनापति पुत्र बप्पदेव, कामरू किंकिणी आचार्य तोसालि पुत्र वगैरह ढेर सारे परिकल्पित पात्रों की भी बात बताई है।
यह कथा एक अद्भुत कालखंड को जीवंत करती है। लेखकश्री ने इस शौर्यकथा में अपनी विद्वत्ता के ज़रिए ऐतिहासिक तथ्यों का परिचय दिया है। वाचक इस कथा को जब पढ़ेंगे तब उस कालखंड के भावों में बह जाएँगे। बंसाला, वीरभद्र, भीष्म जैसी अनेक महा कथाओं के लेखक पूज्यश्री की रसप्रचुर एवं प्राचीन मूल्यों को उजागर करती यह शौर्यकथा सभी आबाल-वृद्ध वाचकों की पहेली पसंद बनेगी। अभी ज्यादा नहीं कहना चाहता, अब यह अद्भुत कथा आपके सामने प्रस्तुत है।
प्रवेश
यह कथा जिस समय शुरू हुई, उस समय भगवान महावीर स्वामी के निर्माण को २३९ वर्ष बीत चुके थे। २४० वर्षों के इस इतिहास में भारत राष्ट्र के धार्मिक तथा शासकीय भूगोल में बहुत बदलाव आ चुका था, और सतत बदलाव हो भी रहा था।
भारत की इस धरती पर परमपिता प्रभु महावीर द्वारा स्थापित या प्ररूपित जैनधर्म दूर-दूर तक अपना व्याप बढ़ा रहा था। जो भी व्यक्ति इस धर्म का श्रवण करता था वह एक ही बात कहता था कि, “भले ही कठिन होगा, किन्तु यह धर्म सर्व कल्याणकारी तो अवश्य ही है।”
दूसरी ओर कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ने सन्यास लेकर जिस धर्म की प्ररूपणा की, उस सुगत मत का नाम था - बौद्ध मत। इसका भी बहुत अधिक विस्तार हो रहा था। बौद्ध मत के भिक्षुओं और संघ के सदस्यों के पास अपने मत के विस्तार के लिए एक अमोघ और असरकारक उपाय था - धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध। उपरान्त, बौद्ध मत, जैन धर्म की अपेक्षा अधिक सरल भी था। यदि सरल तरीके से धर्म हो सकता हो, तो कठिन मार्ग पर जाने की क्या आवश्यकता है? कौन मनुष्य इतना फालतू है? धर्म भी हो, कठिनाई भी ना हो वही अच्छा है ना!!
यह काल बौद्ध धर्म के लिए भी स्वर्णिम काल जैसा था। मौर्य राजवंशी अशोक ने बौद्ध धर्म को पूरे विश्व में फैला दिया था, और बौद्ध भिक्षु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अशोक के साम्राज्य के विस्तार में उसके सहायक बने। बदले में सम्राट अशोक भी बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए पूरे दिल के साथ जुड़ चुका था, ‘अहो रूपम्, अहो स्वरः!’ इसीलिए तो राज्यारोहण के 4 वर्ष बाद वह अपने पिता बिन्दुसार और दादा चन्द्रगुप्त का धर्म, यानी जैन धर्म छोड़कर बौद्ध बन चुका था। क्योंकि निर्ग्रन्थ श्रमण कभी भी सांसारिक राज्य लिप्सा के पोषण के लिए प्रयास नहीं करते थे। किन्तु बौद्ध भिक्षु राजकाज में रुचि लेते हुए नजर आते थे।
उस काल और उस समय में मगध के मध्यवर्ती शासन में पाटलिपुत्र में अशोक ने एक विराट सभा बुलाई, जिसमें बहुत सारे बौद्ध भिक्षु उपस्थित थे। भिक्षुओं के प्रमुख ने एक घोषणा की, “आज से हम अपने यजमान अशोक को एक नया नाम दे रहे हैं - ‘प्रियदर्शी।’ अब से हम भारत के प्रत्येक भाग में तथा भारत के बाहर भी हर स्थान पर घूमकर देवानुप्रिय प्रियदर्शी के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करेंगे। ताकि लोकमत उस के पक्ष में सदैव सहमत हो। याद रखिए, जहाँ-जहाँ सम्राट प्रियदर्शी का साम्राज्य है, वहाँ वहाँ शाक्यसिंह मुनि गौतम बुद्ध का भी साम्राज्य है। धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि।”
इस घटना के बाद बौद्ध भिक्षु और सम्राट अशोक, दोनों विस्तारवादी नीति के क्रियान्वयन में अत्यधिक व्यस्त हो गए। साम्राज्य और साम्राज्य का लोभ उसके मन में लगातार बढ़ रहा था। चाहे धर्म साम्राज्य हो या सत्ता का साम्राज्य, तृष्णा और लिप्सा तो दोनों के खराब ही होते हैं।
सम्राट अशोक तो पण्डित चाणक्य से भी अधिक मुस्तैद और होशियार था। ‘धर्म राज्य’ के नाम पर उसने बड़े-बड़े राजाओं को झुका दिया और बहुत ही चालाकी से अपने राज्य में उनका समावेश कर लिया था। उसका साम्राज्य पूरे आर्यखण्ड पर, ब्रह्मदेश, जावा, सुमात्रा से पंजाब तक तथा नेपाल से आन्ध्र तक लगभग एकछत्र रूप से फैल चुका था। ऐसी स्थिति में पिछले हजारों वर्षों से ब्राह्मणों के हाथ में पला और विकसित हुआ वैदिक ब्राह्मण धर्म भी धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा था।
जैन मुनि तो कभी भी विरोध की बात में आते ही नहीं। जैनों के आचार तथा उपदेश इतने असरकारक होते हैं कि कोई भी व्यक्ति उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। जैन धर्म कभी भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई नहीं लड़ता। प्रभु महावीर ने भी मात्र उपदेश ही दिया, विरोध कभी भी नहीं किया। ‘विवाद नहीं, संवाद’ - जैन धर्म की यही नीति है। स्याद्वाद का सिद्धान्त सबको समावेश करते हुए चलता है।
किन्तु ब्राह्मण धर्म मुख्य रूप से क्रियाकाण्ड एवं विधि-विधान पर टिका हुआ था। काल के प्रभाव से वे यज्ञ हिंसक बन चुके थे, और ऐसे हिंसक विधानों का बौद्ध अनुयायियों ने खुले आम विरोध किया। सत्ता में बैठे शासकों की ओर से उन्हें पूरी सहायता होने के कारण ब्राह्मण अपने धर्म का विरोध सुनकर भी चुपचाप बैठे रहे। प्रजा का मत भी धीरे-धीरे ब्राह्मणों की उपेक्षा तथा बौद्धों के अभ्युदय में जुड़ गया। इस प्रकार उस समय ब्राह्मण धर्म को सर्वाधिक हानि हुई। जिस समाज में ब्राह्मण हमेशा पूजनीय माने जाते थे, आज वह समाज उनकी उपेक्षा कर रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था।
राजनीति में धर्म का प्रवेश हो चुका था। साम्राज्य के विस्तार के लिए धर्म एक साधन बन चुका था। कुछ राज्याधिकारी एवं मन्त्री, बौद्ध भिक्षु का वेश धारण करके अन्य साम्राज्य में जाकर धर्म का और साथ ही साथ मौर्य साम्राज्य का निडर होकर विस्तार करने लगे थे। वे मुनि गौतम बुद्ध को भगवान तथा सम्राट प्रियदर्शी को भगवान के दूत के रूप में पेश कर रहे थे। इस प्रकार सम्राट अशोक का साम्राज्य रूपी सूर्य जोर से तप रहा था।
ऐसे समय में प्रभु वीर के निर्माण के २३९ वर्षों तक, अर्थात् अपने साम्राज्य के (209 वर्ष से) 30वें वर्ष में धर्मचक्र का सतत प्रवर्तन करके अशोक सभी जनपदों को अपनी ध्वजा के अनुशासन के अधीन कर चुका था। परन्तु एक जनपद अभी भी अडिग खड़ा था। उसका नाम था कलिंग जनपद।
कलिंग एक ऐसा अजेय और अखण्ड साम्राज्य था, जिसे ना तो अशोक की तलवार की परवाह थी, न ही सुगत धर्मचक्र के प्रवर्तन की कोई असर थी। कलिंग के निवासी बिना ढाल और कवच के ऐसे ही युद्ध में उतरते थे। उनके युद्ध करने के नियम कुछ अलग ही थे, और तरीके तो विलक्षण थे। कलिंग का एक-एक सैनिक 10-10 विदेशी सैनिकों के लिए पर्याप्त होता था। उन्हें किसी दूसरे के साम्राज्य में कोई अड़चन पैदा करने में रुचि नहीं थी, किन्तु अपने साम्राज्य में कोई दूसरा व्यक्ति माथा मारे, तो यह उनसे सहन नहीं होता था। कलिंग की प्रजा स्वतन्त्रता प्रेमी और स्वाभिमानी जीवन शैली की थी। उस प्रजा के लिए कलिंग के सिंहासन पर बैठा राजा ही भगवान था। उन्हें किसी देवदूत या मसीहा की कोई गरज नहीं थी।
दूसरी ओर समग्र कलिंग प्रजा के जो अधिष्ठायक देव थे, वे थे आकाश को छूते कुमारगिरि एवं कुमारीगिरि पर्वत द्वय पर विराजित श्री कलिंगजिन - स्वर्णिम, शान्त सुधारस श्री ऋषभदेव परमात्मा। कलिंग का निवासी, चाहे वह जैन हो, बौद्ध हो, ब्राह्मण हो; चाहे वह श्रमिक हो, शिल्पी हो, कर्मचारी हो या व्यापारी; चाहे वह राजा हो या प्रजा; पुरुष हो या स्त्री; बालक हो, युवा हो या वृद्ध, कलिंगजिन उन सब के अघोषित कुलदेवता धर्मदेवता थे। किसी को बहुत अधिक पता नहीं था, और उन्हें अधिक जानना भी नहीं था कि ये धर्मदेव कौन से समाज के देव हैं? इस बात की उन्हें परवाह भी नहीं थी। कलिंगजिन, प्रजा के मन की गहराई तक प्रवेश कर चुके थे। कलिंगवासी माँ अपने बच्चे को सिखाती थी कि, कभी भी डर लगे तो कलिंगजिन का जाप करना। जब भी किसी बालक का जन्म होता तो सबसे पहले कलिंगजिन के नाम से ही उसका कर्णवेध किया जाता था।
आश्चर्य की बात तो यह थी कि, पिछले 100 वर्षों से कुमार पर्वत पर स्थित वह जाज्वल्यमान जिनालय भग्न स्थिति में था, और अन्दर विराजित श्री कलिंगजिन, जो कलिंग का हृदय थे, उन्हें पाटलिपुत्र का आठवां नन्दराजा चोरी करके ले जा चुका था। और साथ ही वह उस तीर्थ स्थल को ध्वस्त भी कर चुका था। इस कारण कलिंग की समस्त प्रजा त्रस्त, दुःखी और पीड़ित थी। उस समय से प्रत्येक मगधवासी, कलिंग के लिए शत्रु के समान था। कलिंग का प्रत्येक पिता अपने पुत्र को सिखाता था कि, मगध के लोग अत्यन्त दुष्ट हैं, राक्षस हैं और आततायी हैं। कलिंग के प्रत्येक गली-चौराहे, हर पत्ते-बूटे, हर प्रसंग तथा महोत्सव में वहाँ के वृद्ध, कथाकार, चारण आदि स्वाभिमान भरी बोली में कलिंग के युवाओं को प्रोत्साहित करते थे, दर्दभरी अपील करते थे कि, ‘जागो! कोई तो जागो! कोई तो कलिंगजिन को पाटलिपुत्र की कैद में से मुक्त कराओ। कोई तो हमारे हृदय को फिर से धड़कता हुआ बनाओ। हे कलिंगजिन! आप हमसे क्यों रूठे हुए हैं? आप कलिंग पुनः कब पधारेंगे? पधारिए!! पधारिए!!’
आज जब कुमार-कुमारी पर्वत पर कलिंगजिन की उपस्थिति नहीं थी, किन्तु फिर भी प्रत्येक कलिंगवासी सुबह उठते ही पर्वत को हाथ जोड़कर नमन करता था, और संध्या होते ही पहाड़ की ओर मुख करके दीपक करता था। कलिंगजिन जितने पूज्य थे, उतने ही यह पहाड़ भी पूज्य थे।
कुमार एवं कुमारी पर्वत पर बनी हुई 20 से अधिक गुफाओं में आज भी निर्ग्रन्थ श्रमण निरन्तर तपस्या करते थे। उनके चरण की धूल शरीर पर लगाने से भले-भले रोगी के पुराने रोग भी समाप्त हो जाते थे। यदि उनकी कृपा दृष्टि हो जाए तो भाग्यहीन के भी भाग्य खिल जाते थे।
किन्तु वे अत्यन्त असंगी थे। अधिकतर तो वे मौन रहते और ध्यान में ही रत रहते थे। अनेक वैरागी तो शरीर पर वस्त्र भी धारण नहीं करते थे। गुफा के अन्दर ही उनका निभाव होता था। किन्तु उनका शरीर स्वर्ण की प्रतिमा की भक्ति तेज प्रतिबिम्बित करता था।
कलिंगवासी दूर से ही उनके दर्शन किया करते थे। उन्हें भीड़ पसन्द नहीं थी। वे अपनी साधना में ही मग्न रहते थे। थे वे सभी जैन मुनि ही, किन्तु कलिंग की हर धर्म की जनता के वे हृदयेश्वर सन्त थे। वे सबके लिए पूज्य थे और प्रत्येक कलिंगवासी उनके लिए कहता था, ‘सच्ची साधना तो मात्र इन्हीं की है।’
कलिंग का राजा अपने निजी जीवन में जैन धर्म का दृढ़ आराधक था। भले ही वह स्वयं जैन था, किन्तु प्रजा पर धार्मिक रूप से किसी भी प्रकार का दबाव नहीं देता था। इसके उपरान्त भी कलिंग की समस्त प्रजा का हृदय कलिंगजिन, असंगी साधु और जैन धर्म के तत्त्व ज्ञान से गहरा रंगा हुआ था। उन पर बौद्ध धर्म का चक्र कुछ खास असर करने में विफल था।
बौद्ध भिक्षु ताक लगाए बैठे थे, गुप्तचरों ने बहुत कुछ ढूंढने का प्रयास किया, किन्तु कहीं पर कुछ भी हाथ नहीं लगा। उनके विचक्षण मन्त्री अपने दिमाग की कसरत करके थक गए। संधिविग्रहिकों को यह समझ नहीं आ रहा था कि, यहाँ संधि करनी चाहिए या विग्रह। कलिंग बस अजेय रहना चाहता था, सदैव अजेय; कुमार-कुमारीगिरि पर्वत की भाँति। भले ही घर की शोभा लुट जाए, सर्वस्व ध्वस्त हो जाए, किन्तु कलिंग फिर भी अजेय ही रहेगा। खण्डहर बना हुआ प्रासाद भी पूज्य ही रहेगा, क्योंकि वह भी कलिंग की अस्मिता का भाग था।
भारत के अधिकतर जनपद अपनी सत्ता के अधीन होने के बाद यह कलिंग अशोक के पैर में कांटे की तरह चुभ रहा था। कलिंग मगध के दक्षिण भाग में स्थित था। अशोक को स्वतन्त्र कलिंग की स्वतन्त्रता बहुत कष्ट दे रही थी। इस कारण अशोक ने मौका देखकर कलिंग पर धावा बोल दिया। रोंगटे खड़े हो जाए ऐसा खूंखार जंग होने लगा। छोटा सा कलिंग खण्डहर जैसा बन गया, किन्तु अशोक झुकने को तैयार नहीं हुआ।
रणसंग्राम में प्रतिदिन शवों के ढेर के ढेर लग रहे थे, रोज-रोज रणभूमि बदलनी पड़ रही थी। खुली आँखों से तलवार लेकर लड़ने वाले मगध और कलिंग के सैनिकों के शव, आँख बन्द होने के बाद एक दूसरे से लिपटे हुए चिरनिद्रा में सो रहे थे। बहती नदी का पानी भी उनके रक्त के वर्ण से अनेक दिनों तक लाल रंग का होकर बह रहा था।
अभी भी कलिंग हाथ ना लगने के कारण अशोक व्यग्र हो गया। अब वह प्रियदर्शी की जगह चण्डाशोक बन गया था। पाटलिपुत्र से और अधिक सेना लेकर उसने अधिक जोर से हमला किया। यह देख कर कलिंग के राजा क्षेमराज की आँखों से आँसू निकल आए। स्वतन्त्रता प्रेमी महामन्त्री और वीरों से भरी सेना होने के बाद भी अन्ततः उन्होंने अशोक से युद्ध विराम की मांग की, और इसके बदले उसे जो भी चाहिए वह देने की तैयारी बताइए। बस एक ही बात थी कि यह रक्त बहाना बन्द करो।
आखिरकार अपने द्वारा जीता हुआ कलिंग राष्ट्र देखने के लिए विजेता सम्राट अशोक, कलिंग राज्य की ओर चला। उस समय उसने बहादुरी और बलिदान की जो कथाएँ सुनी, जो दृश्य देखें तो उस अशोक के पाषाण हृदय में भी बुद्ध की दया और महावीर प्रभु की अपार करूणा का जल छलक उठा। उसने आधे रास्ते से ही अपना रथ वापिस घुमा लिया। पूरी रात उसने जागते हुए निकाली। युद्ध अनेक किए थे किन्तु यह युद्ध सबसे अधिक महंगा और दर्दनाक युद्ध था। कलिंग तो हार कर भी जीत गया था, और मगध जीत कर भी हार चुका था। उस रात सम्राट अशोक ने निर्णय लिया कि, ‘बस, अब इस विस्तारवादी सत्ता की महत्त्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाना ही पड़ेगा। हिंसा की होली अब नहीं खेली जाएगी।’ सम्राट अशोक ने विजय की याद में कलिंग में गुप्त संवत्सर का प्रारम्भ किया और कलिंग को मात्र अपनी आज्ञा के अधीन रहने का आदेश दिया।
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