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महानायक खारवेल Ep. 10






Episode 1o

( आर्य सुह‌स्तिसूरिजी सम्राट संप्रति और अपने मुनिवरों के साथ वार्तालाप करते हुए कहते है कि “स्वस्थ हो जाओ वत्स! आज मुझे तुझको और मेरे उत्तराधिकारी मुनिवरों को महत्त्व की बात बतानी है।” और अब आगे क्या कहते है पढ़िए। )

 

 

आर्य सुह‌स्तिसूरिजी की स्वस्थ एवं गंभीर आवाज परिस्थिति की गंभीरता का अंदाज दे रही थी। सभी पुनः स्वस्थ होकर आसनासीन हो गए और गुरुदेव अब जो बात बताने वाले हैं उसे सुनने के लिए उत्सुक हो गए थे।

 

"संप्रति! जब अपना जीवन ही आँख की पलक झपकने के समान क्षणिक है। तब भविष्य की अधिक चिंता करके क्या करना जो होना होगा वह होकर ही रहेगा। पर भाई! हमें इस बात का संतोष है कि हमने सत्यधर्म की प्रभावना करने के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता था उतने उत्तमोत्त‌म प्रयत्न किए। मुझे तेरे और मेरे प्रयत्नों से पूर्ण संतोष है। आज जब मेरे आयुष्य को सदी में एक वर्ष बाकी है, तब मेरी अंतरात्मा मुझे खुदको ही धन्यवाद कहती है। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। ना ही तुझसे और ना ही अपने आपसे...।"

 

"पर हाँ! कमी अवश्य रह गयी है। मुझसे कुछ कसर रह गई है। जिनशासन की प्रभावना के स्वप्न में मैं अविरत खोया रहा हूँ। उस समय कभी-कभी कुछ सूक्ष्म चीजों की सावधानी रखना भूल गया हूँ। एक विषय में बहुत ही गहराई से उतर जाते हैं तो दूसरे विषयों के साथ अन्याय भी कर बैठते हैं। ऐसा भाव नहीं होता है, पर ध्यान नहीं दे पाते हैं।"

 

"मेरे साथ कई बरसों तक ज्येष्ठ साधक आर्य म‌हागिरिजी थे। उनकी आयु 70 वर्ष की थी, तभी वे युगप्रधान बन गए थे। उसी समय में मेरी दीक्षा हुई थी। हम दोनों के गुरु महान मंत्रीश्वर शकटाल के पुत्र स्वनामधन्य महाब्रह्मचर्य की सिद्धिवाले अंतिम चौदह पूर्वधर श्री स्थूलभद्रस्वामी थे। वि.सं.215 में मैं उनका शिष्य बना था। उसी वर्ष में उन्होंने वैभारगिरी पर अनशन कर स्वर्गगमन को प्राप्त किया। उनके विरह के बाद आर्य महागिरिजी युगप्रधान बने थे। तब उनकी उम्र 70 वर्ष की थी और मेरी उम्र 25 वर्ष की थी।"

 

"दीक्षा के प्रथम वर्ष में ही गुरु का वियोग हो जाने से मेरा समग्र जीवन निर्माण आर्य महागिरिजी के हाथों से ही हुआ था। उन्होंने शिष्यवत् मेरा पालन किया। कुछ ही समय में 11 अंग और 10 पूर्व का अभ्यास कराया। अंतिम चार पूर्वों का अर्थ से गुरुदेव स्थूलभद्रस्वामी के समय में और सूत्र का आर्यमहागिरिजी के समय में विच्छेद हो गया था और यह पतन काल था। जिसके प्रभाव से उत्तरोत्तर पूर्व का ज्ञान अधिक विच्छेद होने वाला था। आगम सूर्य का प्रकाश धीरे-धीरे घटता जा रहा था।”

 

"परंतु गुरुतुल्य गुरुभ्राता महागिरिजी ने मुझे अपना समझकर तैयार किया था। खुदके पास जो भी था वह सबकुछ अल्प समय में मेरे में संक्रांत कर दिया था। उनके पास से ज्ञान लेकर उनके साक्षात् शिष्य भी तैयार हो गए थे। जिनमें से दो मुख्य थे। आर्य उत्तर या अपरनाम आर्य बहुल और आर्य बलिस्सह।"

 

"समय निकलता गया। जीवन के उत्तर अंत में इस महामुनि आर्य महागिरिजी ने गच्छ की जिम्मेदारी से मुक्ति ले ली। 85 वर्ष की उम्र में वे जिनकल्पी की तरह जीवन जीने लगे। जिनकल्प का तो विच्छेद हो गया था। पर महामुनि ने फिर भी जिनकल्पी मुनि की तरह जीना जारी रखा। संसार की प्रत्येक क्रिया और व्यवहार से अलिप्त होकर ध्यान मग्न बनकर...।”

 

“मैं उनसे छोटा था फिर भी श्रीसंघ के कार्य मेरे निरीक्षण से होते थे और इसीलिए संघ-समाज का महत्तम आदर मान मैं पाता था। जगह- जगह पर मेरे उत्सव होते थे। उस समय वे महामुनि नगर से दूर, धूमधाम से दूर किसी उद्यान में, किसी वीराने में, गहरे एकांत में, डेरा जमाकर बैठे रहते थे। कभी श्रुत चिंतन में तो कभी आत्मा की मस्ती में मस्त रहते थे। वे समस्त विश्व के साथ संपर्क में रहते थे।”

 

"मेरी प्रवृत्तियों में बहुत व्यस्तता रहती थी। उसमें भी सम्राट जबसे आपका परिचय हुआ, तब से मुझे क्षणभर साँस लेने का भी समय नहीं मिला था। श्रमणों के योगक्षेम की चिंता, संघों के प्रश्नों का समाधान करना, श्रावक-श्राविकाओं को आराधना में मार्गदर्शन देना और आपके द्वारा चल रही महान शासन प्रभावना में पर्याप्त समय देना। ऐसे संयोगों में मुझे आगम के निदिध्यासन का, श्रुत परिशीलन का और ध्यान का समय मिलता नहीं था। आर्य महागिरिजी संपूर्णतः निवृत्त थे और मैं संपूर्णतया व्यस्त रहने लगा। ऐसे संयोगो में नूतन मुनिवरों का स्वाध्याय करवाने का भी समय मैं नहीं निकाल सकता था….”

 

"आख़िर में आर्य बहुल और आर्य बलिस्सहजी सहयोग करने हेतु आगे आए। श्रमणों के अध्यापन की जिम्मेदारी उन्होंने उठा ली और मुझे निश्चिंत कर दिया। अन्यथा ज्ञान की धारा आगे कैसे चलती? तभी से गण में दो व्यवस्था हो गई। आचार्य बाह्य जिम्मेदारी संभालें और अध्ययन - अध्यापन की आंतरिक जिम्मेदारी वाचक - उपाध्याय संभाल लें। आर्य महागिरिजी मेरे उपाध्याय थे और आर्य के शिष्य मेरे शिष्यों के उपाध्याय बन गए।”

 

"यहाँ पर गच्छ में जब श्रमण तैयार हो गए, तब वे वाचक निजी निवृत्तिप्रधान साध‌ना के लिए कलिंग की और चल पड़े। कलिंग में कुमारगिरि पर्वत और कुमारीगिरि पर्वत है। उसमें कुमारगिरि पर्वत पर पूर्व के श्रावकों की बनायी गयी लेण-गुफावास है। उसमें जाकर ये वाचक निवृत्तिप्रधान जिनकल्पी की तुलना करने लगे।”

 

"आर्य महागिरिजी या उनका शिष्य परिवार भले ही संघ और समाज से दूर रहता था, पर संघ और समाज के विषय में, उसके भावि के विषय में सदा चिंतित रहता था। समय-समय पर आगमों के दर्पण में निहारता रहता था। श्रमण संघ को भीतर से मजबूत बनाने के लिए और शासन के महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर आनेवाली विपतियों को टालने के लिए निरंतर ध्यानमग्न एवं चिंतनमग्न रहता था। इस चिंतन के प्रभाव से उनको कई सारे पूर्व संकेत होते थे। कई दुर्घटनाओं को वे टाल देते थे।”

 

सम्राट! मेरी व्यस्तता के कारण जहाँ मैं पहुँच नहीं सकता था, जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता था, वहाँ ये वाचक पहुँच जाते थे और मुझे जागृत करते थे, मुझे सावधान करते थे।”

 

"एक समय की बात है उज्जयिनी नगरी थी। श्री संघ का योगक्षेम करने के लिए मैं स्थविरकल्पी आर्य सुहस्ति बस्ती के बीच रहता था और जिनकल्पी की तुलना से मेरे परमोपकारी गुरुतुल्य गुरुभ्राता बस्ती के बाहर एकांत जंगल में ठहरे थे।”

 

"मैं बस्ती में पाट पर बैठा था। धर्मश्रद्धालु लोग किसी चर्चा में मग्न हो गये थे। ऐसे में मेरा ध्यान दरवाजे की तरफ गया। तो वहाँ मैंने एकांत में किसी की भी नजर न पड़े इस तरह से खड़े हुए आर्य को देखा। मैं तो अवाक् रह गया। श्रावकों को छोड़कर में सीधा दौड़ पड़ा। जाकर उनका अभिवादन किया और बहुमानपूर्वक उनको पाट पर विराजमान किया। श्रावक खड़े होकर पर स्वस्थान पर चले गए। मेरी आँखों से अश्रू बहने लगे। मैंने कहा, गुरुदेव! मुझसे अविनय हो गया। मुझे क्षमा करो। आप कब से बाहर खड़े होंगे, मैंने आपको देखा तक नहीं।"

 

(क्रमशः)

 

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