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महानायक खारवेल Ep. 11




Episode 11

( उज्जयिनी नगरी में स्थविरकल्पी आर्य सुहस्तिजी बस्ती के बीच रहते थे और जिनकल्पी की तुलना से गुरुभ्राता आर्य महागिरीजी बस्ती के बाहर एकांत जंगल में ठहरते थे।

 

आर्य सुहस्तिजी किसी चर्चा में मग्न हो गये थे। ऐसे में उनका ध्यान दरवाजे की तरफ गया। तो वहाँ एकांत में किसी की भी नजर न पड़े इस तरह से खड़े हुए आर्य को देखा। आर्य सुहस्तिजी ने उनका अभिवादन किया और बहुमानपूर्वक उनको पाट पर विराजमान किया। फिर कहा, गुरुदेव! मुझसे अविनय हो गया। मुझे क्षमा करो। आप कब से बाहर खड़े होंगे, मैंने आपको देखा तक नहीं।

फिर आगे क्या होता है पढ़िए। )

 

 

"तब मुनिराज ने कहा, बंधु मुनिवर! आपने कितनी बड़ी जिम्मेदारी को ली है? श्री संघ की वैयावच्च करके आप कितनी निर्जरा कर रहे हैं? आपके कारण ही तो आज मेरे जैसे साधु निश्चिंत होकर जिनकल्पी की तुलना कर सकते हैं। आत्मरमणता का आस्वादन ले सकते है। आपकी इस साधना में मुनिराज! व्यवधान कैसे डाल सकता हूँ मैं? यह साधना तो हमारी साधना से भी बड़ी और महान है। मुनिवर! हम तो मात्र स्वोपकार साध रहे हैं। आपकी श्रेष्ठता के प्रभाव से ही तो आज समस्त आर्यावर्त ज्वलंत है। आपको आपकी इस साधना में बाधा न हो इसीलिए मैं तो ऐसे ही एकांत में खड़े-खड़े ध्यान धरता था। जिनकल्पी को क्या जंगल और क्या बस्ती? तीन हाथ की प्रासुकभूमि मिल जाए उतना काफी है। ध्यान लगाने के लिए और कितना चाहिए?”

 

"सम्राट! तब मेरी आँखों से आँसू छलक उठे थे और देखो आज यह बात आपको कहते- कहते 99 वर्ष की आयु में भी मेरा हृदय भर आया है।" सूरिसम्राट गद्गद् थे।

 

"फिर मुनिराज ने कहा - आपका श्रावक शिष्य है ना सम्राट संप्रति! उसका अपार उत्साह कभी- कभी साध्वाचार में बाधा पहुँचाता है और आप उसकी तरफ ध्यान नहीं रख सकते!"

 

“मैंने कहा - वह जो भी आराधना करता है, सब कुछ मुझे बताकर ही करता है।"

 

"तब गुरुदेव ने कहा – मुनिराज! तब तो फिर आप शासन के प्रभावना के एकांत लक्ष्य अत्युत्साह में यह भूल रहे हो कि साध्वाचार की सुरक्षा के बिना शासन की प्रभावना संभव ही नहीं है। क्योंकि साध्वाचार ही तो शासन है। जब तक साध्वाचार की स्थापना नहीं हुई थी, तब तक प्रभु महावीर की शासन स्थापना नहीं हुई थी। इसीलिए तो प्रभु की प्रथम देशना निष्फल गई थी मुनिराज!

 

"जी गुरुदेव! मैं समझ रहा हूँ उस बात को। इसीलिए तो साधु का वेश पहने हुए चतुर मनुष्यों को संप्रति ने साध्वाचार से अपरिचित क्षेत्रों में भेज दिया, तब मैंने उसे रोका नहीं है। इसी बहाने उन-उन क्षेत्रों वाले भी साध्वाचार से थोड़े परिचित हो जाएगे और वहाँ भी शासन फैलता जाऐगा।"

 

"पर भूल आप यह जाते हो। मुनिराय! कि इस वेश को एकबार पहनने के बाद फिर उतारा नहीं जा सकता है। वरना तो बहुत अनवस्था चलेगी।"

 

"क्षमा गुरुदेव! मुझे यह अपवाद धर्म लगा इस भूल का प्रायश्चित करने को में तैयार हूँ..." मैंने कहा।

 

"गौरव-लाघव का निर्णय करने में आप स्वतंत्र हो और शासन के सूत्रधार हो। जैसा आपको उचित लगा, वैसा आपने किया। पर मुनिराज! अभी मैं जो देखकर आ रहा हूँ, वह अत्यंत आघातजनक है और उससे शासन को किसी भी प्रकार का लाभ नहीं है।"

 

"ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है मुझसे? गुरुदेव!"

 

"अभी-अभी गोचरचर्या के दौरान मैंने सम्राट की दानशाला में से अन्न ग्रहण करते हुए मुनिवरों को देखा।”

 

"हाँ, यह सत्य है। इसमें साध्वाचार को किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचे, उसकी पर्याप्त सावधानी सम्राट ने रखी है। इसके लिए रसोईयों को कहा गया है कि श्रमणों के लिए अन्न नहीं बनाना है; पर पथिकों को दान देने के बाद जो बच जाता है, उसी में से ही श्रमणों को देना है।

 

"रोज-रोज अगर बच जाता है तो रसोईये कम क्यों नहीं बनाते हैं? कार्मिकी बुद्धि से उनको क्या अंदाज नहीं लगता? रोज-रोज थोड़ा ज्यादा किसके लिए बनाया जाता है? श्रमणों के लिए ही ना!"

 

"और श्रमणों के मन में ऐसे संस्कार क्यों डालने चाहिए? ऊँच-नीच कुलों में भ्रमर की तरह अज्ञात भिक्षा ग्रहण करते हुए श्रमणों की साधना खंडित हो जाती है और एक ही जगह से परिचित-पर्याप्त रसप्रचुर अन्न का लाभ होता है। फिर इसकी आदत पड़ जाएगी और फिर यही साध्वाचार बन जाएगा तो ब्राह्मण, बौद्ध भिक्षु और निग्रंथ श्रमणों के बीच आहार- भक्षण के विषय में कोई भी भेद कैसे रहेगा, मुनिराज?"

 

"विशेष गंभीर बात तो यह है कि यह दानशाला राजा की है। मुकुटबद्ध सम्राट का रसोईघर है। उसके वहाँ का अन्न श्रमणों के लिए कल्पित कैसे हो सकता है? आगमों में प्रभु महावीर ने श्रमणों के लिए राजपिंड का निषेध किया है। मुनिराय! राजपिंड के ग्रहण के कारण वर्तमानकालीन श्रमणों के मन और संयमाचार पर गहरा असर पड़ सकता है। इसलिए इसमें मुझे कुछ-भी लाभ नजर नहीं आता है, बल्कि इससे बेशुमार हानि नजर आती है।”

 

"आप श्रमणों के मात्र वात्सल्यदाता मत बनिए मुनिराज! आप अनुशास्ता बनिए। श्रमणों को केवल स्नेह मत दीजिए उनसे शिस्त का भी पालन करवाईए। ऐसा मोह लाभदायी नहीं है। इसलिए शीघ्र ही आपको यह आचार बंध करवाना चाहिए।"

 

"उन्होंने इतना कहा। मैंने उनको वचन दिया और वे चले गए। मैंने उस वचन का पालन किया या नहीं, यह जानने की भी उनको दरकार नहीं थी। मेरे ऊपर भरोसा था इसलिए ही नहीं, पर वे जिनकल्पी से तुलना करते थे, जगत् के प्रति उदासीन थे। यह तो वे जिनकल्पी नहीं थे इसलिए मुझे कहने को आए। अन्यथा वे जगत् के कारोबार में लेशमात्र भी रुचि नहीं दिखाते।"

 

"सम्राट! मैंने आपको दानशाला में श्रमणों को दान देते हुए अटकाया, उसके पीछे यही कारण था। जो मुझे आपको और मेरे पट्टधरों को बताना जरूरी था।”

 

"ऐसी तो कितनी ही जगह पर उन्होंने पितृवत् मेरा अनुशासन किया है। मैं समस्त संघ का योगक्षेम करता था और मेरा योगक्षेम यह अलगारी, अनामी, एकाकी, अगोचर विश्व में विहरने वाले महामुनि करते थे।”

 

"आज से 45 वर्ष पूर्व की एक घटना याद आ रही है। उस समय महामुनि आर्य महागिरि अंतिम बार मुझे मिलने आए थे और आखरी बार मेरे साथ बात की थी।”

 

"तब भी मुझसे अन्जाने में भूल हो गई थी। इसी पाटलीपुत्र में ख्यातनाम श्रेष्ठी वसुभूति नए-नए जैनधर्म में जुड़े थे। वे मुझे बहुत उपकारी मानते थे। मेरी बहुत भक्ति करते थे। एकबार मुझसे कहा - "पूज्यवर! में तो आपकी कृपा से अपार आनंद का अनुभव कर रहा हूँ। पर मेरी भावना है कि, मेरा पूरा परिवार भी इस धार्मिक आनंद का अनुभव करे। तो गुरुवर! आप मेरे गृह आंगन में पधारने का कष्ट करें।"

 

"और मैं वसुभूति महाशय के घर पर पहुँचा। प्रभु महावीर का तत्त्वज्ञान अनमोल है। आर्य महागिरिजी का आशीष अपार है। पूरा पूज्यवंत परिवार धर्म के रंग में रंग गया। फिर तो मनुष्यों को भी धर्म का व्यसन लग जाता है। सम्राट! जिस तरह से आपको चढ़ा वैसे वसुभूति और उसके पूरे परिवार को भी चढ़ गया। उनकी जिज्ञासा बढ़ने लगी। उसकी तृप्ति करने के लिए बार-बार उनके गृह आंगन में उपदेश हेतु पधरामनी होने लगी।”

 

"ऐसे में एक दिन मानो सूर्य और चंद्र इस स्थान में एक साथ प्रकाशित हुए। मैं उपदेश दे रहा था उसी वक्त महामुनि आर्य महागिरि भिक्षाभ्रमण के लिए निकले थे। ऊँच-नीच कुलो में भ्रमण करते करते वे वसुभूति के आंगन में पधारे।"

 

"परिवारजनों ने उनकी विशेष भक्ति नहीं की क्योंकि वे मौन थे, साधारण से लगते थे। वस्त्र भी आधे-अधूरे, जीर्ण-शीर्ण, मैले से थे। शरीर साधना के श्रम से शुष्क बन गया था। कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे कोई बाल जीव उनकी ओर आकर्षित हो जाए।"

 

"पर मैंने जैसे ही उनको देखा मैं अपनीं जगह से खड़ा हो गया। उनका अभिगम किया। उनको वंदना की। उनके दर्शन से कृतार्थता की अभिव्यक्ति दर्शायी।"

 

"उनके जाने के बाद श्रेष्ठी वसुभूति ने मुझसे उनके विषय में पूछा। मैंने कहा कि ये मेरे गुरु हैं। ये महान साधना कर रहे हैं। जो आहार त्याग कर देने योग्य हो वैसा ही असार आहार मिले तो ही लेते हैं। अन्यथा उपवासी रहते हैं। वे महान हैं…।“

 

"मेरी गद्‌गद्ता के कारण सेठ की आँखों में आँसू छलक उठे। पर उसका परिणाम विपरीत आया, जो मैंने सोचा नहीं था।"

 

"सेठ ने पूरे पाटलीपुत्र में अपने सभी सगे-स्नेहियों-स्वजन-बांधवों को सावधान कर दिया और आश्चर्य यह हुआ कि महामुनि आर्य महागिरिजी को घर-घर में से अब मिष्ट आहार मिलने लगा। लोग कहने लगे कि हमें इसका त्याग करना है। आपको खप हो तो स्वीकारो, अन्यथा हम नाली में डाल देंगे।"

 

"महामुनि ने वह भिक्षा ग्रहण नहीं की। वे तुरंत ही अपने एकांतनिवास की ओर वापिस पधारे। शहर के कोलाहल से दूर मंद-शांत पवन की लहरों से आवृत्त नीम, अंब और प्लक्ष के घने वृक्ष सहज छाया दे रहे थे, ऐसे खुले और बिना वाडों के, जहाँ पर बैठने के बाद ऐसा लगे की पूरी दुनिया के ऊपर आप बैठे हो, आप कोई घर, गाँव, नगर के नहीं हो, ऐसे सभी मौहल्लों में या सभी नाके पर, या गलियों में आपकी हद नहीं समाती है। आप समस्त धरा के मालिक हैं और समग्र वसुधा आपका कुटुंब है।“

 

"ऐसी उनकी सौंदर्यमय अद्भूत पंछियों के कलरव से परिपूर्ण शाताकारी जगह पर वे विराजमान थे और श्रुत के सागर में डूबकी लगाकर बैठ गए थे। पूर्व का ज्ञान अतिशय है। उसके गुणन-परिणमन के द्वारा भूत – भावी के भेद खुल जाते है। महामुनि के मन में सर्वघटनाएँ हस्तामलकवत् खुलती गई। उनकी आँखें खुल गई।"

 

"उस दिन शाम को मैं क्षेत्र प्रत्युपेक्षक श्रमणों के साथ चर्चा विचारणा कर रहा था। पाटलीपुत्र से जीवितस्वामी के दर्शन हेतु विदिशा जाना था। मगध से विदिशा का मार्ग बहुत ही लंबा था। गीतार्थ चतुर श्रमण स्वयं जाकर प्रत्येक गाँव-नगरों में सभी व्यवस्थायें, छोटे-बड़े, लंबे-चौड़े अनेक मार्गों, गच्छ की बाल-वृद्ध आदि की आवश्यकता अनुसार सुविधाओं का निरीक्षण करके आए थे और मुझे सब कुछ बता रहे थे। उतने में जाज्वल्यमान सूर्य के जैसे तपतेज से भास्वर महामुनि गुरुतुल्य आर्य महागिरिजी पधारे।”

 

"क्षणभर में सभी साधुगण स्वस्थान से खड़े होकर महामुनि के सन्मुख सात-आठ कदम आगे जाकर आर्य महागिरिजी को वंदन कर रहे थे। उन सभी से बेखबर महामुनि भीतर में स्थित थे। मैं सामने जाकर उनको वंदनकर विनय पूर्वक ले आया। पाट के ऊपर विराजित किया और सिर झुकाकर उनके आगे जमीन पर बैठ गया।"

 

"मुनिश्री! आघात का प्रत्याघात होता है। ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है। आप जो कुछ भी करते हो, वह सब नया-नया है, मिथ्या है, ऐसा कहने की हिम्मत नहीं करता हूँ पर रूढ़ि से नया है। यह सारे तात्कालिक अपनाये गए माध्यम हैं। वे सर्वकालिक नहीं बन जाए उसकी आपको बहुत गंभीरता से सावधानी रखनी पड़ेगी। चंद्र‌शाला में पहूँचने के लिए श्रेणि जरूरी है। पर वहाँ जाने के बाद तो वह श्रेणि अन्यथासिद्ध है। फिर बाद में उसका त्याग करना जरूरी है। आपने जो विध-विध माध्यम अपनाये है। जो आज तक के एक भी आचार्यवर ने नहीं अपनाया है। और भविष्य में भी कोई अपनायेगा या नहीं? यह प्रश्न है। ऐसे सभी माध्यमों को अवसर आने पर आपको छोड़ना ही पड़ेगा। इसे आपकी उपस्थिति में ही छोड देना। क्योंकि पाट तक जो परंपरा चलती रहती है, वह बाद में उपादेय समाचारी बन जाती है। इसलिए सावधान रहना...।”

 

"मैंने कहा - आपका छत्र छाया सिर पर है। मुझे निरंतर जागृत रखते हो। फिर मुझे कोई चिंता नहीं है। कुछ अनिष्ट नहीं होगा।"

 

(क्रमशः)

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