महानायक खारवेल Ep. 14
- Muni Shri Tirthbodhi Vijayji Maharaj Saheb
- Nov 17, 2024
- 5 min read

आज का वसंतोत्सव फीका साबित होने वाला है। बप्पदेव सोच रहा था। बप्पदेव महाराज वृद्धराज के प्रधान सेनापति वप्रदेव का पुत्र था। उसकी और खारवेल की शिक्षा साथ में ही हुई थी। वह और खारवेल दो जिस्म एक प्राण थे। लगभग दोनों साथ-साथ ही दिखाई पड़ते थे। पर आज आश्चर्य था कि इस वसंतोत्सव में बप्पदेव था और खारवेल नहीं था। खारवेल बप्पदेव का प्राण था। उसकी गैरहाजरी होने से बप्पदेव को लग रहा था कि खुद वह इस मेले में प्राणविहीन देह लेकर घूम रहा है। उसकी आशा-अरमान-उत्साह-सपने-राजमहल की युद्ध प्रशिक्षण भूमि में छोड़कर आया है। हाँ, खारवेल मगध से आने के बाद दिन और रात राजमहल के विशाल परिसर में अग्नि कोण में आई हुई विशाल युद्ध प्रशिक्षण भूमि में पड़ा रहता था। सम्राट की तलवार ने उसके गले पर ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा को भी घायल कर दिया।
"तू पागल तो नहीं हो गया है ना खारवेल! इस गले का जख़्म तो फिर से भर गया है। कुछ क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेता है। तुझे हो क्या गया है भाई।" बप्पदेव ने उसके गले की दाहिनी बाजू पर पड़े हुए तलवार के जख़्म पर फिर से औषध युक्त सूतर दबाते हुए कहा। जख़्म ऐसा छलक उठा था कि दबाते ही खून के लाल रंग से रंग गया था।
“इस तरह से तो कभी-भी तेरा जखम नहीं भरेगा खारवेल!"
“मैं उसे मरने देना भी नहीं चाहता हूँ...” खारवेल ने कहा। बप्पदेव स्तब्ध-सा रह गया। उसके स्वर के तीखेपन से उसके कँपकँपी सी छूट गई थी कभी-कभी इन्सान के मुख से कोई विराट शब्द निकला रहा होता है। ऐसा बप्पदेव ने जो सुना था उसका आज उसे अनुभव हो रहा था।
"क्यों?" बप्पदेव जरा सहमकर बोला।
“यह जख़्म साधारण प्रहार नहीं है। मौर्यों ने कलिंग पर किया हुआ वार है। यह जख़्म मुझे हमेशा याद दिलाया करता है कि, मुझे अभी भी मेरे लक्ष्य को साधना बाकी है।"
"खारवेल!” बप्पदेव ने उसके तपे हुए खुले कंधे पर हाथ रखा। "तेरा आक्रोश और आवेश शत्रुओं के सामने निकालना भाई! तेरे शरीर को क्यों दंड दे रहा है?”
"दंडपात्र को तो दंड मिलना ही चाहिए बप्पपदेव! शरीर मेरा दंडनीय है ही। जितनी चपलता से सम्राट ने म्यानमुक्त शस्त्री सीधे गले तक चलायी, उससे भी अधिक चपलता से क्यों इस शरीर ने प्रतिक्रिया नहीं दिखाई? सम्राट के अहसान के तले दबकर जीने से तो अच्छा होता कि यही शरीर उसी समय धड़-मस्तक से अलग होकर धरती पर रगड़ खा रहा होता। सम्राट ने मुझे दान दिया है बप्पदेव! जीवनदान!"
"मुझे सुलगना है। पाटलीपुत्र पर विजय प्राप्त नहीं होती, तब तक सुलगते ही रहना है। मैं सम्राट के समकक्ष खड़े रहने के लायक नहीं हूँ। सम्राट ने मुझे हरा दिया है। 78 वर्ष में जितनी चपलता सम्राट की है, उतनी 16 वर्ष में भी मुझमें नहीं है बप्पदेव! सम्राट के सामने भरी सभा में बिलकुल बच्चा साबित हो गया मैं। कलिंग छोटा बच्चा और मगध बड़ा मगरमच्छ। कलिंग तो मगध के ऋण के तले जीता है, यह बात भरी सभा में साबित हो गई। और इन सभी का कारण है – ‘यह जड़ शरीर।‘यह शरीर सजापात्र ही है बप्पदेव!"
"शांत.. शांत हो जाओ मेरे मित्र! अपने शरीर को ऐसा दंड मत दे... देख! पूरी सभा जब बेखबर थी, तब तुझे उस मगध का बाण दिखाई दिया था। तू जानता है ना? तूने मगध के उस बाण को कलिंग की कटारी से भेद दिया था। ये तेरे शरीर की चपलता थी और ये तेरे मन की सिद्धि थी..."
"कुमार खारवेल! सम्राट ने तुझे घाव दिया और तूने सम्राट को कटारी दी थी। मैं यकीन के साथ कहता हूँ मित्र! कि अभी सम्राट अपने राजमहल में बैठे-बैठे तेरी कटारी को हाथ में रखकर उसका निरीक्षण करते होंगे और पढ़ते होंगे। "कलिंग जिनस्स जयो होउ"
"मेरे सम्राट! तूने कोई छोटी-मोटी सिद्धि हाँसिल नहीं की है। तूने ऐसा काम किया है कि जिसे करने की ताकत आज कलिंग में किसी के पास भी नहीं है। मगध में जाना और वापिस सही-सलामत आ जाना यह तो भूखे शेर की गुफा में जाकर ज़िंदा वापिस लौटने जैसा है। उसे तू याद रख। इस जख़्म को भूल जा और जख़्म जिसे तू मगध को देनेवाला है, उसके सपने देख मित्र!”
"तेरी बात सत्य है मित्र।” खारवेल थोड़ा नरम पड़ गया था। ज्वालामुखी की तरह उसके अंग में उबलता हुआ रक्त शांत पड़ गया था। “मुझे अवश्य भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। मैं सैनिक नहीं हूँ कि ऐसे व्यर्थ प्रतिशोध को घुंटता रहूँ और अपने आपको कोसता रहूँ। मैं सेनापति नहीं हूँ कि जिसके लिए यह हार मृत्यु के बराबर होती है। मैं तो राजा हूँ। कलिंग की नीति ऐसा कहती है कि राजा को मात्र अपना ही हित नहीं देखना चाहिए। राजा के कोई अंगत दुःख-सुख नहीं होते है। राजा समग्र प्रजा का प्रतिनिधि होता है। प्रजा का स्वमान ही राजा का स्वमान है। प्रजा के सुख-दुःख के लिए जीए और मरे, वह राजा।”
"पर मेरी शिक्षा अभी मुझे अधूरी लगती है। सम्राट के प्रहार के सामने प्रतिक्रिया दिखाने में मेरे शरीर ने बहुत देर लगा दी। युद्ध में एसी अचपलता और असावधानी का परिणाम एक ही होता है - मृत्यु! सम्राट बनने के लिए सम्राट में जो असाधारणता चाहिए वह मैंने मगध में संप्रति राजा में देखी है। मुझमें अभी ऐसा बहुत कुछ होना चाहिए, जो एक सम्राट में होना आवश्यक होता है। वह सब मुझमें नहीं है। इसलिए मेरी अधूरी तैयारी को अंजाम देना जरूरी है बप्पदेव।”
"ठीक है। अभी तो कौमुदी में चल। फिर आकर तुझे जो करना है, वह करना”।
"नहीं, कौमुदी में अब मैं तभी आऊँगा जब यह पराजित कलिंग किसी देश पर विजय प्राप्त करेगा। जब विजय मिलेगी और हम विजेता होंगे, तभी हम कौमुदी मनायेंगे उसके पहले तो हरगिज नहीं।"
"तू नहीं जाता है तो मैं भी नहीं जाता हूँ। मुझे भी अपने आपको तालीम देनी पडेगी। उत्कल जब तूफान बनकर दौड़ रहा होगा, तब मुझे मेरे अश्व को भी उसके साथ-साथ रखना पड़ेगा ना!”
बप्पदेव ने कहा और हँस पड़ा।
तब उसके हास्य के सामने हास्य करते हुए खारवेल ने कहा - "मित्र! तू कौमुदी में जा। पता नहीं क्यों पर मुझे ऐसा लगता है कि इस बार कौमुदी कुछ अलग ही तरह से मनायी जाने वाली है। कलिंग ने मगध की नाक को दबाया है। ये बातें समग्र तोषालि में हर चौराहे पर गायी जाती है। कलिंगकुमार के पराक्रम से सभी विस्मित हैं। उसके साथ समग्र जनता में दो गुट हो गए है। किसी का कहना है कि वर्तमान में जैसा है, वैसा बराबर है। कलिंग में अभी शांति है। भूतकाल में पराजयों को सहन कर लिया है उसका अभी क्या लेना-देना है? हमें शांति अच्छी लगती है। ऐसे उपद्रव और उत्पात हमें नहीं चाहिए।"
"तो दूसरा समान्तर पक्ष ऐसा मानता है कि जब तक खोयी हुई अस्मिता वापस नहीं आती, तब तक शांति से बैठे रहना मूर्खता है। कलिंग का अपमान जिन्होंने किया है, और जो कर रहे हैं, उनकी नाक दबाकर उनको सीधा करना यह राजक्र्तव्य है और ऐसे कर्त्तव्य को राजा ने नहीं तो कम से कम राजकुमार ने समझा है और उसे निभाने के लिए आरंभ किया है। यह तो कलिंग की प्रजा के लिए गौरव करने जैसा अवसर है।”
"संक्षेप में कहे तो, एक पक्ष समाधानवादी है। उसे विजेताओं की दयानजर के तले पराजित और पराश्रित होकर ही उनकी कृपादृष्टि पर जीना है और दूसरा क्रांतिवादी पक्ष है, उसने कभी-भी किसी की भी अधीनता को ना ही स्वीकारा है, और ना ही स्वीकारभाव है। वह स्वतंत्रता प्रिय है। उसे स्वाधीनता चाहिए। स्वाधीनता के भोग से सर्व सुख नहीं चाहिए होते हैं और सर्व सुखो के भोग से स्वाधीनता ही चाहिए। इसलिए, तू कौमुदी में जा वहाँ क्या हो रहा है वह देख।”
खारवेल की बातों का आदर करके बप्पदेव कौमुदी में जाने के लिए रवाना हुआ। तब उसने सोचा कि सम्राट खारवेल जितना भावुक है, उतना ही विचारशील भी है।
यह सारी घटना अभी उसे याद आ गई। उसने सोचा- "कौमुदी पूरी होने आ गयी, माणवक बोलेगा वो ही का वो ही... हर साल जो सुनते आए हैं वो ही। अब तो शब्द- शब्द मुखपाठ हो गए हैं। पर कुछ भी नया नहीं देखने को मिला। आनंद भी नहीं हो रहा है, क्योंकि खारवेल साथ में नहीं है। देखो, क्या होता है?” और उसने माणवक की कथा में अपने कान धर दिये।
(क्रमशः)
Comments