( वनवासी कामरू अपनी प्रेयसी किंकिणी के ज़िद के कारण कौमुदी उत्सव में आया है। और यहाँ पर माणवक हर साल की तरह कथा करने का प्रारंभ करता है। )
"सुनो...सुनो...सुनो...सुनो मेरे कलिंगवासियों...! आपको कलिंग की बात बताता हूँ। जिसमें आकाश में चंद्र और तारे चमक रहे हैं, ऐसी रात की बात बताता हूँ।”
"600 वर्ष पुराना यह इतिहास है। 23 वें जिनेश्वर श्री पार्श्वनाथ अति खास हैं। उनके चरणों की छाप अभी भी कलिंग में पड़ी है, यह मात्र पदचिह्न ही नहीं है, आशीर्वाद की झड़ी है।"
"करकंडु राजा कलिंग के शासन में आए हैं। राजकाज को छोड़कर जिन्होंने कठिन संयम पथ को अपनाया है।”
“समय की सरक रही है रेत, और रचाये गए है दो गिरी तीर्थ, कुमारगिरी और कुमारीगिरी नाम है और पवित्र तीर्थधाम है ।"
"पार्श्वनाथ अरिहंत के श्रमण-श्रमणी जहाँ निरंतर आते हैं, साधना करके देह को गलाकर कर्मों के जंगल जलाते हैं।"
"पारसनाथ से ढाई सौ वर्ष का काल बीत जाता है, आर्यखंड़ की भूमि पर वर्धमान का धर्मशासन रचा गया है।”
“प्रभु महावीर का परम भक्त शिशुनाग वंशीय श्रेणिक बिंबिसार है। वह आर्य सुधर्मास्वामी के श्रीमुख से कलिंगतीर्थ की महिमा सुने अपार है।"
आर्य सुधर्मा कलिंग की यात्रा पर आए हैं। कुमारगिरी और कुमारीगिरी पर्वत पर विहरते हुए उन्होंने अपने पूर्वजों की साधना के परमाणुओ का स्पर्शन किया है। उन परमाणुओं के पावन स्पर्श से आर्यसुधर्मा पवित्र बन गए हैं। उनका समवसरण रचाया गया है। सीधे... राजगृह से महाराज सेणिय (श्रेणिक) बिंबिसार आए हैं। वे इस तीर्थ की रमणीयता और पवित्रता से अपनी आत्मा को धन्य मानते हुए इस तीर्थ का विकास करने के लिए कुमारगिरी पर्वत पर मनोहर पत्थरों की नक्शी से शोभित, देव-देवियों को भी आकर्षित करे ऐसा एक प्रासाद बनाते हैं। उसमें विराजमान करते हैं महामहिम, महाप्रभावशाली, नखशिख सुवर्णमय श्री ऋषभदेव की प्रतिमा। बोलो, कलिंगजिन की जय हो, विजय हो, जय-जयकार हो....।”
“परम आर्हत् राजा सेणिय (श्रेणिक) बिंबिसार इस पर्वतयुगल पर निर्ग्रंथ श्रमणों को वर्षावास के प्रयोजन से अनेक गुफावास तैयार करवाते है। उन स्वाभाविक वसतिगृहों में अनेक श्रमण साधना-आराधना हेतु कई बार आते हैं। अपना समय ध्यान, चिंतन, तपस्या के द्वारा व्यतीत करते हैं। कुमारगिरी - कुमारीगिरी पर्वत द्वय के परिसर में पवित्र परमाणुओं की पूँजी एकत्रित करते रहते हैं।"
समय बीतता रहता है। पीढ़ियाँ बदल जाती है। श्रेणिक चला जाता है और राजा अजातशत्रु – अपरनाम कोणिक राजगृह में आता है। वह कालिंग राष्ट्र में इस पवित्र पर्वतयुगल पर स्वनाम से अंकित पाँच गुफागृह बनाता है।
"प्रभु महावीर जब विद्यमान थे, तब मगध और वैशाली के बीच महाभयंकर युद्ध होता है। करोड़ों मनुष्यों का संहार होता है। चेटक राजा वैशाली को त्यागकर समाधिपूर्वक अनशन करता है और स्वर्ग सिधारता है। तब कोणिक निर्नागरक वैशाली को गर्दभनागल से खेड़कर पट्टण सो दट्टण कर डालता है।”
तब चेटक राजा का पाटवी शोभनराय नाम का पुत्र वहाँ से अपनी जान बचाकर अपने समस्त परिवार सहित कलिंग महाराजा और अपने श्वसुर सुलोचन की शरण में जाता है।"
"राजा सुलोचन निष्पुत्रक होते हैं और अपना राज्य शोभनराय को सौंपकर स्वर्ग में जाते है। इस प्रकार कलिंग की धरती पर चेटक वंश का शासन शुरू हो जाता है। बालो, चेतिय राजवंश की जय हो, विजय हो...।"
"भगवान महावीर के पाँचवे पाट पर आचार्य यशोभद्रसूरिजी विराजे तब मगध का साम्राज्य राजगृह से चंपा में, और वहाँ से पाटलीपुत्र में आ गया था। पाटलीपुत्र में वी.सं 60 में नंदवंश का साम्राज्य शुरू हुआ। आचार्य यशोभद्रसूरि म.सा. के समय में मगध में आठवाँ नंद आया और यह नंद अति लोभी था, अति क्रूर था, अति महत्वाकांक्षी था।"
"आर्यवर्त के सर्व जनपदों को उसने आक्रान्त किया, उसके सैन्य के घात से हर कोई त्राहिमाम् हो गए। हिमालय से समुद्र तक समग्र भूखंड को उसने साध लिया। सत्तर पीढ़ियाँ चल जाए उतने सुवर्ण का खजाना भर दिया।
और यह मिथ्यात्व से अंध बने नंदराजा ने कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग को जीतने में उसे बहुत समय लगा। कलिंग भले ही छोटा है, पर आत्म-सन्मान के लिए मर-मिटने वाला है। जब यहाँ पर आपत्ति आती है तब प्रत्येक नगरजन शस्त्र लेकर निकल पड़ता है। यहाँ की धरा में एकमात्र झंकार है, एकमात्र धड़कन है-स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता..."
पर नंद की सेना कलिंग की पूर्व सीमा पर लहराते समुद्र के जैसी विशाल थी और उसमें कलिंग डूब गया। कलिंग हार गया।
चेटक राजवंश में पाँचवा राजा चंडराय आया, तब आठवें नंद ने कल्कि को परास्त किया। वी.सं - 749 की यह पराजय की गाथा है। कलिंग हार गया। तोषालि नगरी की गलियाँ रक्त की धारा से छलक उठी।
इस आततायी राजा का क्रोध भड़क उठा। इतना छोटा सा जनपद और – इतना अहंकार? इतना खुमार? उसने अपना पूरा ग़ुस्सा कलिंग जनपद के प्राण समान कुमारगिरी-कुमारीगिरि पर्वत पर उतारा। कलिंगों के त्रस्त-क्षत देह पर गरम-गरम अंगारे डालकर उसने कलिंग की अस्मिता के साथ छेड़खानी की। राक्षसी रुद्र हास्य से हँसते-हँसते उसने कलिंग तीर्थ का विनाश कर दिया । श्रेणिक राजा का बनाया हुआ डेढ़ सौ साल पुराना प्राचीन प्रासाद तुड़वा दिया और अंदर बिराजमान हमारे कलिंग के प्राण, हमारे श्वास, हमारी आबरू, हमारे सर्वस्व श्री कलिंगजिन को वह हमलाखोर उठाकर पाटलिपुत्र में ले गया।"
"कलिंगजिन को बचाने के लिए कुमारगिरि पर्वत के प्रत्येक सौपान पर सैकड़ों कलिंगवासियों ने जान गँवाई, खून की नदियाँ बही, पर उस आततायी का हृदय नहीं पिघला तो नहीं पिघला और तब से कलिंग का प्राण पराधीन हो गया। नंद ने सुवर्ण गुफा में कलिंगजिन को कैद कर लिया। जैसे कि कलिंग को हमेशा के लिए पराजित कर दिया।
"समय गुजरता गया और शोभनराय के वंश का आठवाँ राजा खंगराय कलिंग की गादी पर आया। इसके काल में कलिंग की संतप्त धरा पर और अधिक मार और आघात पड़ने वाले थे। कलिंग लंबे समय तक किसी के भी पराधीन नहीं रह सकता था। कलिंग स्वतंत्र हो गया था। और तब मगध में नंद के साम्राज्य को आक्रान्त करके मौर्यवंश का उदय हो गया था। मौर्यवंश में चंद्रगुप्त और बिंदुसार आ चुके थे और तीसरे पुरुषपाट पर आया कालमुखा अशोक।"
"अशोक ने भी आठवें नंद की तरह ही समस्त आर्यखंड को साम्राज्य के तले आक्रान्त कर दिया और एक मात्र स्वतंत्र रह गया कलिंग।
"जिंदगी के अंतिम वर्षों में उसने कलिंग पर हल्ला मचा दिया। खेमराय ने जबरदस्त टक्कर देकर उसकी सेना को खदेड़ दिया। उसमे तो अशोक और गिन्नाया। उसका क्रोध बेकाबू हो गया। क्रोध जब दिमाग पर हावी हो जाता था, तब अशोक 'चंड़ाशोक' बन जाता था। समस्त सेना के साथ उसने कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग के एक-एक वीर ने दस-दस शत्रुओं का वध किया और खुद भी कलिंग की धरती पर कुचल गए। पर अशोक सेना का समुद्र लेकर आया था। कलिंग पर भीषण अत्याचार हो गया। एक लाख कलिंगी सैनिकों – नागरिकों का कत्ल हुआ और डेढ़ लाख नागरिक अपाहिज हो गए।
"आखिर में महाराजा खेमराज ने आँखों में आँसू के साथ अशोक के पास जाकर शांति की माँग की। तब जाकर अशोक शांत हुआ। उसने कड़ी मेहनत से इस विजय को प्राप्त किया था। उसने अपना संवत् प्रवर्ताया। वह उसके गौत्र - मौर्य के नाम से ‘मौर्य संवत्' के रूप में – प्रसिद्ध बना।"
"कलिंग की मार खाने के बाद अशोक भीतर से टूट-सा गया। उसे अपने साम्राज्य को टिकाने के लिए धर्मविजय का सहारा लेना पड़ा। कलिंग को जीतना कठिन है। जिसने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया हो, कंगाल बन जाने को तैयार हो, वो ही आए कलिंग के सामने युद्ध करने। कलिंग किसी के भी लिए सहज साध्य नहीं है। यह तो बहुत भारी देश है। जो भी इसकी स्वतंत्रता पर हाथ मारने आएगा, उसे इसके विजय के लिए अति- अति भारी-भरकम कींमत चुकानी ही पड़ेगी।"
"कलिंग महान है, था, और रहेगा। बोलो कलिंग महा जनपद की जय..." इतना कहकर माणवक अभी खड़े ही होने जा रहा था उतने में ही प्रजा में से एक नवलोहिया जवान खड़ा हो गया और जोर से ताली बजा-बजाकर बोला, "वाह! माणवकजी, वाह! अद्भूत..."
किंकिणी के कलेजे में जैसे दरार पड़ गई। आवाज कामरू की थी। पर कामरू को तो उसने अपनी बाजू में बराबर से खड़े रखा था। उसने अपने चारों ओर नजर घुमायी, कामरू कहीं पर भी नहीं था। किंकिणी के जाल से वह छिटक गया और वह कहाँ था?
ओ हो हो! मैदान के मध्यभाग में एक उँचा मीनार खडी कीया हुई थी। जिस पर विविध वस्त्र पहने हुए भिन्न-भिन्न रंगो से रंगे हुए शरीर वाले अनेक खिलाडियों और कारुओ ने तरह-तरह के दाँव खेले थे। उस लकड़े के ऊँची मीनार पर सीधे नारियल के पेड़ के जैसे चढ़ाव पर ना जाने कैसे यह कामरू चढ़ गया और बोलने लगा।
पूरी प्रजा का ध्यान वहाँ पर चला गया। मीनार की चोटी पर एक लड़का खड़ा था। उसने वहाँ पड़ी हुई मशाल अपने हाथ में ले ली। उसमें उसका चेहरा नजर आ रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि उसका मुख जल रहा है या मशाल? मशाल के जैसे ही भड़ाके उसके मुख से भी उठ रहे थे और उसके शब्द, शब्द नहीं थे। अंगार थे जहाँ गिरेंगे वहाँ सुलगा देने वाले थे।
"खल्लास….” किंकिणी ने सोचा।" ऐसी जबरदस्त इसे चढ़ गई है कि, असंभवित इस खंभे के ऊपर यह चढ़ गया है। अब इसे रोकना संभव नहीं लगता है। क्या करूँ मैं? कुछ ही क्षणों में निर्णय करके किंकिणी धीरे-से सरककर गायब हो गई।
(क्रमशः)
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