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"खारवे...ल! खारवे...ल!" सूनी विरानी में बप्पदेव का प्रतिघोष पड़ रहा था। उसे खुदकी ही आवाज सुनाई दे रही थी। उसकी आवाज जंगल के पेड़-पत्ते, पक्षियों और जंगली लंगूरों को सुनाई दे रही थी। पर जिसकों सुनना चाहिए था वो ही नहीं सुन रहा था। "कहाँ चला गया होगा ये?" परेशान बप्पदेव कुमारगिरि के सौपान चढ़े जा रहा था। आज तो उसे खारवेल को बहुत ही अगत्य के समाचार देने थे। अगत्य के और अद्भुत! उसकी छाती-फूली नहीं समाती थी। उसके हृदय में उत्साह समा नहीं रहा था। गरमी के कारण प्रस्वेदार्द्र देह पर पल-पल पुलकित हो रहे रोमांच ऊँचाई पर ठंडे सनसनाते पवन के कारण से हो रहे थे या उस बात के याद आ जाने से? यह समझना मुश्किल था। उसे उस बात के विचार मात्र से ही उत्तेजना हो जाती थी कि जब वह खारवेल को अपनी बात - बताएगा, तब उसे कैसा लगेगा? खारवेल निश्चित ही झूम उठेगा और खारवेल, उसका मित्र उसे हर्षातिरेक से गले लगा लेगा।
"खारवेल! है कहाँ तू?" बप्पदेव सीधे कलिंगजिन के भग्नावशेष प्रासाद के परिसर में आकर खड़ा हो गया। चारों दिशाओं में कहीं पर भी खारवेल नजर नहीं आया। आखिर में उसने धीमे कदमों से परिसर के अंदर प्रवेश किया। ना जाने कितने ही संतों, महर्षियों के द्वारा पवित्र बनी हुई यह भूमि! उस पवित्र रजकण का स्पर्श होते ही बप्पदेव रोमांचित हो उठा। उसने एक बाजू में पादुका उतारी। नीचे झुका और उस पवित्र धूल पर अपना सर टिकाया। दाहिने हाथ को धूल में रगड़कर उसने अपने मस्तक पर त्रिपुंड अंकित किया। उसकी आँखों में और अधिक ओजस और तेज की वृद्धि हुई। "कलिंग जिणस जयो होउ।” उसके कंठ में से बुलंद आवाज निकल पड़ी। जिसका प्रतिघोष कुमारीगिरि पर्वत की प्रत्येक गुफा में फैल गया और प्रत्येक गुफा ने उसके साद का प्रतिसाद दिया। एक साथ अनेक चित्कार उठे - "कलिंग जिणस जयो होउ।”
उल्लास के अतिरेक से बप्पदेव झूम उठा। पता नहीं इस परिसर में ऐसा तो क्या था कि जो भी कलिंगी यहाँ पर आता था, उसका मन मयूर नाच उठता था। उसका मरा हुआ अर्थात् मुरझा हुआ मन वापिस नवपल्लवित हो जाता था और उसे भरपूर प्रेरणा प्राप्त होती थी। इस परिसर मे ऐसा कुछ अद्भुत तत्त्व था कि फिर कलिंग के निवासियों की दीवानगी परापूर्व से चली आ रही पगलियत मात्र थी। यह तो ‘कलिंगजिन’ ही जाने, पर जो था, वह बहुत ही जीवंत था। धन्यता का अनुभव होता था यहाँ पर आने के बाद स्वर्ग या वैकुंठ की भी आशा नहीं रहती थी। जो भी है वह दुनिया की सारी दौलत यही ही है, ऐसा ही मानते थे। ऐसे पागलपन से भरे भोले, कल्पनाजीवी, स्वप्नशिल्पी कलिंग के लोगों के दो प्रतिनिधि थे। बप्पदेव और उसका अतिप्रिय सखा खारवेल! सेनापति पुत्र और राजकुमार।
बप्पदेव को याद आया कि, अभी खारवेल कहाँ होगा? इसलिए दबे पाँव धीरे-धीरे मंदिर के भग्नावशेष द्वार से अंदर प्रवेश किया और उसने मंदिर के बराबर मध्यभाग में ध्यानमग्न होकर बैठे हुए बिल्कुल अकेले ऐसे खारवेल को देखा। यह क्षण बप्पदेव के जीवन का सबसे धन्यतम क्षण था। वह उसके प्रियमित्र को इस मुद्रा में स्थिर बैठा हुआ देखकर ही थम गया। वह मुग्धभाव से मित्र के नज़दीक गया। वह धीरे से उसके मित्र के सन्मुख हुआ। खारवेल बंद आँखों से सीधे टट्टार होकर पद्मासन मुद्रा में ध्यानमग्न था। उसे देखकर बप्पदेव ने कल्पना की कि, जैसे भव्य जिनालय में ध्यानस्थ प्रतिमा की कमी यह खारवेल पूरा कर रहा है...!
कुछ क्षण तो वह ऐसे ही खारवेल के सामने पालथी लगाकर हाथ पर ठोढी टिकाकर एकटक खारवेल को निहारता ही रहा। पर मन में उठी हुई उन बातों को खारवेल को बता देने की छटपटाहट अब उससे रोकी नहीं जा रही थी। आख़िर में वह धीरे से खारवेल के कान में अपना मुँह रखकर फुसफुसाता हुआ बोला-
"खारवेल!" हवा के साथ उसके शब्द खारवेल के कानों में टकराये। उसने आँखें खोली और झटके से गर्दन घुमाकर देखा। उसकी आँखों से आँखें मिलते ही बप्पदेव चमक उठा। ओह! उन तेजस्वी जगमगाहट करती हुई आँखों में उसको कुछ दिखाई दिया और अभी उसे कुछ समझ में आये उसके पहले ही वह अदृश्य हो गया। बप्पदेव ने यदि रात को चंद्र के प्रकाश में यदि ऐसा कुछ देखा होता तो वह अवश्य चीख मारकर भाग जाता था पर सुबह का समय था और कलिंग जिन के तीर्थ का परिसर था, इसलिए वह निश्चिंतता से बैठ सका।
"खारवेल हूँ मैं ऐसे क्या देख रहा है?" खारवेल ने उसे टोका तब उसे होश आया। उसने लोचा मारते हुए कहा-
"हाँ...हाँ... खारवेल है तू। पर वह कौन था?"
"वो कौन भाई! मैं मैं ही हूँ। मैं दूसरा कैसे हो सकता हूँ?"
"नहीं खारवेल! मानो या ना मानो पर वह कुछ अमानवीय था। मैंने देखा है तेरी आँखों में। शपथ लेकर कहता हूँ मित्र! यदि इस कलिंगजिन के प्रसाद की पवित्र भूमि पर नहीं होता ना, तो मैं भूत! भूत! करके चिल्लाया होता।
बप्पदेव इस तरह से 'भूत-भूत' बोला कि खारवेल ठहाके लगाकर हँस पड़ा और अब वातावरण सहज हुआ। अभी बप्पदेव को लगा कि यह मेरा मित्र है, जिसे मैं जानता हूँ। वह कौन था? वो तो भगवान जाने।
“ठहर जा मित्र! पहले मंदिर के परिसर से बाहर निकल जाते हैं, फिर सारी बातें करते हैं। इस पवित्र जिनालयभूमि में सांसारिक व्यावहारिक बातें करना कदापि उचित नहीं है मित्र!"
कलिंगजिन के जिनालय के बाहर, सीधे पर्वत की शिखरी मैदान की भूमि जहाँ से ढलान लेती थी, वहाँ जमीन में से बाहर निकला हुआ एक काला पत्थर था। यही पत्थर खारवेल और बप्पदेव की प्रिय बैठक था। जहां बैठे-बैठे पूर्व में नीचे पूरी तोषालीनगरी दिखाई देती थी। खारवेल कई बार बप्पदेव को कहता था कि तू देखना मित्र! एक बार इसी पत्थर पर खड़े होकर हम एलान करेंगे। "कलिंग जिन की जय हो।" और बप्पदेव कह रहा था-"मैं कहूँगा कि, कलिंग चक्रवर्ती सम्राट खारवेल की जय हो।"
"बताओ मित्र! क्या प्रयोजन आ पड़ा कि तू सीधे यहा तक खींचा चला आया। कौमुदी के बाद तो तू जैसे गुम ही हो गया था। बहुत दिनों के बाद दिखाई दिया भाई। कहाँ गया था? कौमुदी में तू था तभी कोई धमाल हुई थी? कोई-कोई लोग कहते हैं कि कामरू नाम का कोई युवान मुँहफट होकर राजा और माणवक के सामने बोला था... वह क्या बात थी बप्पदेव।"
"मेरी बात बाद में कर। पहले बता कि इतने दिनों से मैं तुझे नहीं मिला तो तूने कभी-भी मुझे मिलने की कोशिश की? तुझे मेरी बिलकुल भी पड़ी नहीं है। सच में, तू हमेशा ऐसा ही करता है। मुझे तेरा ध्यान रखना है और तुझे मेरे कोई खबर तक नहीं लेनी?"
बप्पदेव की बात सच थी। पर बेचारा खारवेल भी क्या करे? वह सम्राट होने के लिए ही जन्मा था। इसलिए उसे बाकी सभी के लिए कोई भी लगाव या बंदन नहीं थे। वह प्रवृत्ति से राजा था । वह सामने से कहीं पर भी जाने वाला नहीं था और बाकी सभी जाने-अनजाने सामने से इसे आकर मिलने वाले थे। उसे एक बार मिलने के बाद फिर उनकी उदार चरितता पर वारी जाने वाले थे, महान राजा खारवेल!
पर फिर भी अभी तो बप्पदेव की इस फरियाद के सामने उसने अपनी कानपट्टी पकड़ ली। वह बोले, "मुझे क्षमा कर दे मेरे मित्र! पर मैं कुछ ऐसे प्रयोग में अटक गया था, कि उनसे अभी तक भी बाहर नहीं निकल सका हूँ।"
"क्या बात कर रहा है? कौन-सा प्रयोग है वह? कैसी अनुभूति है?” बप्पदेव ने पूछा।
"आज से सप्ताह के पूर्व हर वक्त की तरह ही मैं यहाँ कुमारगिरी पर्वत पर कलिंगजिन के भग्न परिसर में घूम रहा था। तुझे तो पता है कि, यहाँ पर जब-जब आता हूँ, तब-तब कुछ विलक्षण संवेदनाओं से भर जाता हूँ। पर उस दिन की घटना ही कुछ और ही थी। बप्पदेव! मैं तुझे वह बात शब्दों से नहीं बता सकूँगा और जितना कहूँगा इससे तुझे लगेगा कि मैं सच में विक्षिप्त चित्त हो गया हूँ।"
"परिसर की एक-एक चीजें, द्वार, परसाल, चौतरफी शृंगारचौकी, रंगमंडप, स्थंभावली, तोरणे, नकाशीकाम…
बप्पदेव! वे सभी मुझे सुरेख-संपूर्ण और सौंदर्यमय दिखाई दिये... भव्य-श्वेत रम्य जिनालय... जिसमें जगह-जगह पुष्पप्रकर बिछाये हुए थे। जिसकी अनेक भव्य रंगोलियाँ बनी हुई थी। जिसमें जगह-जगह धूपदान की सुगंधी धूम्रसेर वातावरण को श्वेत धूमपटल से भर रही थी। रंगबिरंगी वस्त्रों की वहाँ शोभा बिछायी हुई थी। जिनप्रासाद नववधू वनिता की जैसे शोभायमान हो रहा था। मैं स्तब्ध था। ऐसा कैसे हो सकता है? प्रासाद तो विध्वस्त हो गया है। क्या मैं वर्तमान से उठ गया हूँ? यह दर्शन भूतकाल का है या किसी अगोचर आगामी भविष्यकाल का? मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि जो दिखाई दे रहा था वह हृदय से बिलकुल सत्य ही लग रहा था परंतु बुद्धि उसे सत्य मानने को तैयार नहीं थी। किसी भी तरह से बुद्धि कैसे मानने को तैयार होगी? मैंने जो देखा था वह ये नहीं था।"
“कुतूहलता और मुग्धता से भरा मैं आगे बढ़ा। परिसर की बारीक-बारीक मुलायम रेत के स्पर्श से खुले पैरो में गुदगुदी होने लगी। कहीं से सुंदर तंतुवाद्य और चर्मवाद्यों के सूर कानों में पड़ने लगे। चारों तरफ उछलते रंगीन जल के फव्वारों में से जलशिखरों को खींच कर लाती हुई स्निग्ध सुगंधित समीर (पवन) देह को तरबतर कर रही थी। पाँचों इंद्रियों के मन मोहक विषयों का आस्वादन लेता हुआ मैं मंत्रमुग्ध हो गया था। जैसे मैं स्वर्ग में आ गया हूँ और मैंने जिनालय के भीतर प्रवेश किया।”
“क्या नहीं था जिनालय के भीतर में? सुवर्ण, रजत, रत्नों और मणि के ढेर, विशिष्ट अंगभंगिमा युक्त शालिभंजिका, विलक्षण शिल्पकलाओं के नमूने, प्रतिस्थंभ पर दीपमालिका और धूम्रावरण छोड़ते हुए धूपदान... मेरा हृदय रोमांचित हो उठा।”
"रंगमंडप में अर्धभूमि तक पहूँचा और मेरा ध्यान गर्भगृह में गया। ओह! नखशिख स्वर्णमय श्री कलिंगजिन वहाँ गभारे में शोभायमान हो रहे थे। मैं भावुक हो गया था। मेरी आँखों से तो अनायास ही आँसुओं के झरने बह रहे थे। बप्पदेव! मैं वहीं पर ही बैठ गया। मैंने हाथ जोड़कर मस्तक को जमीन पर टिकाकर कलिंगजिन को नमन किया और बोला, "कलिंगजिन की जय हो!"
"पर यह क्या? वहाँ तो तभी कोई भी नहीं था। फिर भी मुझे एक साथ ढेरों आवाजे सुनाई देने लगी। मेरे कानों में कुछ अलग ही सुनाई पड़ता था। मेरी बंद आँखों के समक्ष इस जिनालय में मुझे क्या दिखाई दे रहा था? बप्पदेव! मुझे संग्रामभूमि दिखाई दे रही थी..."
"संग्रामभूमि?" बप्पदेव ने कुतूहलता पूर्वक पूछा।
"हाँ, बप्पदेव! तू तो अभी चौंक रहा है। पर मुझे तो तब चौंकने का भी समय नहीं मिला था। मैं किसी अदृश्य प्रवाह में बहता जा रहा था। मैं किसी अदृश्यशक्ति के वश में आ गया था।"
"मैंने कलिंग के पूर्वी क्षेत्र में, सीधे समुद्र के किनारे से उछलती हुई एक जबरदस्त समुद्री तरंग के जैसा मनुष्यों का प्रवाह को देखा। जिसमें एक साथ शोर सुनाई दे रहा था। "कलिंग जिणस्स जयो होउ!” उन इन्सानों का प्रवाह धरती के विशाल भू-भाग पर फैल रहा था और सर्वप्रथम वह पश्चिम में सीधे महरहिठिय प्रदेश तक कलिंग के कुमारीपर्वत की हरियाली के जैसा हरित-रंग लिपट-सा गया था। रथिकों और भोजकों के बिना छत्र-मुकुट के झुके हुए मस्तक मुझे दिखाई दिए।"
"फिर वह समुद्री आँधी दक्षिण की और चली। आंध्र और द्रमिल क्षेत्र... यहाँ तक कि सिंहलद्वीप तक का क्षेत्र इस कलिंग की हरी-हरी चादर के तले आवृत्त हो गया। बप्पदेव! पश्चिम और दक्षिण में जहाँ भी देखो वहाँ कलिंग का विजयीध्वज स्थापित किया हुआ नजर आ रहा था और तोषाली में रोज-रोज विजयी महोत्सव चल रहे थे। बप्पदेव! यह सब मुझे अपनी आँखों के सामने दिखाई दे रहा था।"
"बप्पदेव! उसके बाद यह विशालकाय समुद्री तरंग कलिंग से उखड़कर सीधी उत्तर की तरफ चल पड़ी। उत्तरापथ में तक्षशिला और मथुरा से लेकर मगध-पाटलीपुत्र तक जहाँ देखो वहाँ सर्वत्र ही कलिंग का नीलरंग रंग गया था। बप्पदेव! इसका दर्शन या इस की अनुभूति की समाप्ति की पराकाष्ठा में पाटलीपुत्र का पराजित राजा कलिंगजिन की प्रतिमा कलिंग को सौंप रहा है और वे नखशिख स्वर्णवर्णीय भव्य कलिंगजिन मुझे यहाँ कुमारगिरी के मंदिर में दिखाई रहे हैं और किसी अदृश्य परिबल का साथ छूट जाता है और मैं जाग जाता हूँ और सामने देखता हूँ तो... यह क्या? गभारा खाली होता है। जिनप्रासाद के खंडहर, भग्न शिलाशक्ल चारों ओर बिखरे पड़े हैं। सभी भग्न-खंडित हैं। मेरे आनंद पर, मेरे उत्साह पर ठंड़ा-शीत पानी फेर जाता है। हँसू या उदास हो जाऊँ, यह मुझे समझ में नहीं आता है।"
"और उस दिन से हर रोज जब-जब जिनप्रासाद के-शृंगार मंडप में उन्नत शिखाभाग के बराबर नीचे के भूमिभाग पर मैं बैठता हूँ, आँखें बंद करता हूँ, बप्पदेव! कुछ क्षणों के बाद मुझे धक्का लगता है और मैं काल्पनिक दुनिया में सरक जाता हूँ। मैंने अभी तुझे बताया वह सारे दृश्य मुझे बार-बार घूम-फिरके दिखाई देते हैं। बप्पदेव! यह सब क्या हो रहा है? यह बराबर से मुझे समझ में नहीं आता है!"
“यह कलिंगजिन के अधिष्ठायकों का संकेत है वत्स!” एक गंभीर प्रौढ़ आवाज सुनाई दी। “यह कौन बोला?" खारवेल और बप्पदेव चमक गए। उनकी नजर आवाज की दिशा की तरफ गई। वहाँ उन्होंने जगमगाती तेज फैलाती हुई उस आकृति को देखा।”
(क्रमशः)
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