कलिंग की राजधानी तोषालि के मध्यभाग में आए हुए राजमहालय के हार्द समान एक गुप्त मंत्रणाखंड में मंत्रणा करने के लिए कलिंग साम्राज्य के दो स्तंभ गंभीर मुद्रा में विचारमग्न होकर बैठे हैं। उनमें से एक है कलिंग के राजा वृद्धराय और दूसरे महासेनाधिपति वप्रदेव। शाम के सूरज की तिरछी किरणें गवाक्ष में से काचमणि जड़ित फर्श से टकराकर परावर्तित होकर समग्र मंत्रणाखंड को प्रकाश से भर रही थी और उन परावर्तित किरणों के लाल रंग से इन दोनों महानुभावों के चेहरे रंग गये थे। उसमें वृद्धराय के वदन पर कायमी चिरशांति और निश्चिंतता दिखाई दे रही थी। जबकि वप्रदेव के मुख पर थोड़ा उद्वेग और आवेश नजर आ रहा था।
शांति से निरीक्षण करने वाले को पता चल जाएगा कि, उनके हाथ हवा में ही कई सारे गुणा-भाग कर रहे हैं। उनकी आँखें चपल हो रही थी और घड़ी-घड़ी उनकी छाती में से निःश्वास निकल रहा है। वे अवश्य किसी गंभीर समस्या में उलझे हुए नजर आ रहे हैं। पर उनके सामने महाराज वृद्धराय बहुत शांत नजर आ रहे हैं। यद्यपि यह तो केवलज्ञानी भगवंत ही जानते हैं कि वृद्धराय के मन में भी सात सागर हिलोरें ले रहे हैं।
"तो बात का सिरा अब कलिंग के उत्तर-पश्चिमी विभाग में आए हुए आटविक राज्य में आकर अटक गया महाराज!” वप्रदेव ने अपनी लाक्षणिक भाषा में बात को प्रस्तुत करते हुए कहा।
"आटविक सेना! अजोड़ अविजयी आटविक सैन्य।” वृद्धराय ने गर्व से कहा।
"हाँ महाराज! कलिंग के आधिन, कलिंग के महाराजा की आज्ञा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी आज्ञा को नहीं माने वैसा, स्वतंत्रता का प्रेमी ऐसा आटविक सैन्य।” वप्रदेव ने कहा-"आपको पता होगा महाराज! कि आपके पिताश्री क्षेमराज के समय में अशोक ने कलिंग पर हमला किया था। कलिंग के स्वतंत्रत्व को कुचलकर कलिंग की अस्मिता को पददलित करके उस महत्त्वाकांक्षी महाराज ने कलिंग को झुकने के लिए विवश किया था।"
“उस समय 45 लाख जितनी कलिंग की प्रजा थी। उनमें से 1 लाख सैनिकों ने वीरगति प्राप्त की थी। डेढ़ लाख घायल होकर कैद कर लिए गए थे। ऐसे संयोगों में पिता क्षेमराज को अशोक के सामने घुंटने टेकने के सिवा अन्य कोई भी मार्ग शेष नहीं बचा था। उस समय उनको मिलने एक युवा आया था। आप जानते हो राजन! उसका नाम क्या था?”
"हाँ, मुझे स्मरण है। पिताजी ने मुझे कहा था। उसका नाम कभी-भी नहीं भूल सके वैसा वह नाम - 'तोषालिपुत्र’।” वृद्धराय ने कहा।
"सत्य महाराज! तोषालिपुत्र तब युवान थे और महाराज खेमराय के पराजय की बात सुनते ही वे राजा को मिलने और मनाने के लिए आए थे। तब उन्होंने एक नक्शा दिखाकर राजा को बहुत सारी बातें समझायी थी। वो सब राजा ने आपसे कहा था? वह सब आपके स्मरण में है?"
कुमारगिरी पर्वत की वह पर्वतकंदरा चिलचिलाती गर्मी में भी शीतलता प्रदान करती थी। भरी दोपहरी में उस जगह पर अतिमद्धिम उजियारा था और उस कम-थोड़े से उजियारे में दो किशोर और एक प्रौढ़ पुरुष बैठे थे। गुफा में गंभीर और कुछ गमगीन सा मौन फैला हुआ था। उस चिरशांति को भंग करते हुए प्रौढ़ पुरुष ने एक नक्शा खोला। गुफा की उस उबड़खाबड़ परंतु शीतल और मुलायम पथरीली भूमि पर नक्शों को बिछाया। एक तीखी-पतली पेड़ की डाली को हाथ में लेकर, आचार्य तोषालिपुत्र ने इन नक्शों का वर्णन शुरू किया।
“यह जो जगह है,” तोषालिपुत्र ने नक्शों के उत्तर विभाग पर सोटी रखते हुए कहा।"यहाँ से अशोक ने हमला किया था। वह बहुत सोच-समझकर आटविक प्रदेश में से नहीं आया था, क्योंकि आटविक राज्य अजेय था।”
"जब उस भयंकर युद्ध में कलिंग की प्रजा की जान माल की अगण्य क्षति हुई, तब महाराज क्षेमराज टूट गए और उन्होंने अशोक के समक्ष झुक जाना तय कर लिया।"
"ये समाचार आटविक राज्य में फैल गए और क्या युवा, क्या वृद्ध, क्या बालक, क्या महिला... सभी का खून खोल गया। कलिंग जैसा कलिंग और पराधीनता को स्वीकार करे? असंभव...”
"आटविक प्रदेश में ना ही राजतंत्र है और ना ही गणतंत्र। पर वहाँ लोकतंत्र चलता है यह प्रजा भोली, वनचर, जंगली और असंस्कारी है, पर फिर भी निर्दोष प्रजा, कुछ सियाने लोगों की बातें सुनती है और समझदार लोग मिलकर जो निर्णय करते थे वो ही निर्णय समस्त प्रजा के लिए आखरी निर्णय माना जाता है।"
"मैं जब किशोरावस्था में था, तब भी वह प्रजा मुझे सम्मान देती थी। मेरी बात का मान रखती थी। उस रात आटविक प्रदेश में युद्ध से भी भयंकर उल्कापात मच गया था। अन्य सभी सयाने लोग भी अपने सयानेपन और शानपन को जैसे कि खो बैठे हो। पराधीनता के विचारमात्र से वे बावरे बन गए थे। वह आक्रोश यहाँ तक बढ़ गया था कि, एक व्यक्ति ने भरी सभा में कह दिया-, "जो राजा पराधीन होना स्वीकार लेता हो, वह हमारा राजा हो ही नहीं सकता है। वह तो जीते-जी मुर्दे जैसा ही होता है। हमें उसको मौत दे देनी चाहिए” और राजकुमार खारवेल! पूरी सभा ने बुलंद आवाज से उस विचार को स्वीकार किया था। परतंत्रता के विचारमात्र से सभी काँप उठे थे और अपनी सुध-बुध गँवा बैठे थे।"
"मैं जबरदस्ती तब उस समय खड़ा हुआ था। मैंने अपनी पूरी शक्ति - प्रतिभा – गंभीरता – उर्जा और भावनाओं को निचोड़कर सभी को ऐसा नहीं करने के लिए समझाया था और मुझे राजा खेमराय के साथ इस विषय में चर्चा करने का एक अवसर देने के लिए सभी को सहमत किया था। भाग्य ने मेरा साथ दिया था। समझदारी गँवा बैठे हुए समझदार लोग शांत चित्त हो गए थे और खुद जो करना चाहते थे उन कार्यों के गंभीर परिणामों के बारे में सोचने लगे थे।"
"अशोक को परास्त करने के बजाय हम सब राजा खेमराय को मारने की सोच रहे थे। कलिंग के महाराजा तो आटविक राज्य की समस्त प्रजा के अघोषित स्वामी और मालिक थे। हम हमारे मालिक की हत्या करने का विचार कर रहे थे। एक तरह का विश्वासघात था और परिणाम से कोई लाभ भी नहीं होने वाला था।
"उन्होंने मुझे संमति दी और यही नक्शा लेकर मैं राजकुमार! आपके दादा क्षेमराज को मिलने चला आया था।”
"उस भीषण रात का भयंकर दृश्य आज भी मेरे स्मृति पटल पर में वैसा का वैसा ही अंकित हुआ है। वह मिटने का नाम नहीं लेता है। चारों तरफ क्षत-विक्षत हुए शवों को सियार और गीध नोंच रहे थे। उनकी विचित्र डरावनी आवाज भयानक परिसर को ओर भयावह बना रहे थे। तोषालि नगरी का उत्तर-पश्चिम मैदानी भूभाग शवघर में परिवर्तित हो गया था। दूर-दूर तक अगणित मृतकों की कतारें थी। कहीं पर किसी मृतक के बाजू में उसके घर का स्वजन बैठा-बैठा आँसू बहा रहा था। पर एक दृश्य तो अभी-भी मेरी आँखों से नहीं हटता है..."
“एक बिलकुल बालवय का बेटा एक मृतक के बाजू में बस हिले-डुले बिना बैठा था। मशाल के तेज में में उसका चेहरा दिखाई दे रहा था। जगत से बेपरवाह होकर वह बालक योगी की तरह ध्यान लगाकर इस मृतक को देखे ही जा रहा था। मुझे और बड़े कामों को करने की जल्दी थी, फिर भी मैं दया से प्रेरित होकर उसकी ओर गया। मैंने उस बालक के सिर पर हाथ रखा और पूछा- "तू किसे देख रहा है?"
"और उसने जो जवाब दिया, मैं हड़बड़ा गया। मुझे बोला कि ये दोनों जो कलिंग की धरती पर सोए हुए हैं, वे मेरे जन्मदाता माता-पिता हैं।" राजकुमार! मुझे धरती गोल-गोल घूमती नजर आयी। हृदय में हिम्मत भरके मैंने उसे कहा- 'तू चिंता मत कर, सबकुछ अच्छा होगा।"
"राजकुमार! मैंने इतना कहा और उस बालक ने मेरे सामने देखा। उसकी आँखों में से चिंगारियाँ फूट रही थी। मुझसे कहा “मेरी माँ और बापूजी ने वीरमृत्यु को प्राप्त किया है। सैन्य में प्रवेश पाने के लिए, ये देखिए मेरी माँ ने सैनिक का वेश पहना है। अनेक शत्रुओं को मारकर उसने प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगाया है। भगवान के दरबार में हाजरी देने के पहले सबसे आखरी नसीहत मुझे दी थी कि, बेटा कामरू! प्राण गँवाना पड़े तो गँवा देना, पर अपनी स्वतंत्रता को मत गँवाना। बिना स्वतंत्रता का जीवन प्राणहीन कलेवर जैसा है और स्वतंत्रता के खातिर प्राण देने वाला कलेवर अमर हो जाता है। स्वतंत्रता को अमर रखना। मौत तो निश्चित ही है भाई।”
"फिर उस बालक ने मेरा हाथ पकड़कर कहा-‘महाशय! मुझे अपनी स्वतंत्रता को अमर रखने के लिए अपने प्राण देने हैं। मुझे भी मेरे माता-पिता के साथ भगवान के घर जाना है। आप मेरी सहायता करेंगे?"
"राजकुमार! कलिंग के कलैया कुंवर जैसे इस कोमल बालक के दिल की यह भव्य भावना मुझे छू गई। मैं उसे गले से लगाकर रो पड़ा। कलिंग के समग्र वीरों की मृत्यु के शोक कें आँसू मेरी आँखों से बहते रहे अविरत, अविराम।"
फिर उस बालक से कहा- "आज से मैं तेरा पिता। तेरी सभी इच्छा मैं पूरी करूँगा। चल, हम राजा क्षेमराज के पास चलते हैं।”
(क्रमशः)
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