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( धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तन के समय में, भारत में जैन और बौद्ध धर्म की उन्नति हुई, सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य के माध्यम से बौद्ध धर्म का विस्तार किया। हालांकि, अजेय कलिंग का राज्य अपने देवता भगवान कालिंगजिन की पूजा करता था, और अशोक के विजय के प्रयासों का सामना करने के लिए तैयार नहीं था। एक ख़ूँख़ार युद्ध के कारण अशोक का दिल दर्द से भर गया। जब उसने पीड़ा को देखी, तब उसका दिल नरम हो गया।जिससे उसने अपनी विस्तार की महत्वाकांक्षाओं को पुनः विचार किया और कलिंगा में एक नया युग आरंभ किया। )
अशोक ने अपने जीवन के अन्तिम चार वर्ष पश्चाताप और शान्ति की खोज में निकाले। पहले सुगत धर्म के जो ग्रन्थ
उसने पढ़े हुए थे, उन्हें फिर से पढ़ा। उनके अर्थ और भावार्थ बौद्ध भिक्षुओं से जाने। यदि धर्म का रंग अच्छा चाहिए तो आत्मा रूपी वस्त्र भी साफ और स्वच्छ होना चाहिए। अशोक प्रियदर्शी की आत्मा का वस्त्र अब सुपात्र बन चुका था, और अब उस पर धर्म का रंग अच्छे से चढ़ रहा था। जब उसने अधिक विस्तार से पढ़ा, तो उसे समझ आया कि, कुछ आध्यात्मिक बाबतों में सभी धर्म बिना किसी प्रतिद्वन्दिता के एकमत रखते हैं। उन महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को अशोक ने अपनी प्रजा में फैलाया, उसके स्तूप खुदवाए, शिलालेख लिखवाए और धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। यह भविष्य में “अशोक चक्र” के नाम से विख्यात होने वाला था। उसके द्वारा प्रवर्तित धर्म सिद्धान्त भी बौद्ध धर्म के रूप में फैला। इस प्रकार बौद्ध धर्म ने अपने नए स्वरूप में अवतार लिया।
वीर सं. 243 में आखिरकार इस ‘अशोक युग’ का अन्त आया। अशोक का जीवन अनेक संघर्षों तथा बदलाव से भरपूर था। स्वयं समर्थ उत्तराधिकारी होने पर भी मगध साम्राज्य के राज्य सिंहासन पर आते-आते उसे अनेक संघर्षों से गुजरना पड़ा था। और उसके उत्तराधिकारी के मामले में भी कुदरत ने उसका साथ नहीं दिया था।
अशोक का समर्थ उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुणाल था। उसके सुयश इत्यादि अनेक नाम प्राप्त होते हैं। अशोक ने उसे विद्या प्राप्त करने के लिए तक्षशिला नामक प्रसिद्ध नगरी के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में भेजा था। किन्तु वह वहाँ अपनी सौतेली माता के षड्यन्त्रों का भोग बन गया। कुणाल की आँखें चली गईं, वह अंधा हो गया।
जब ये समाचार पिता अशोक को मिले, तो उसके क्रोध का कोई पार नहीं रहा। अपने समर्थ उत्तराधिकारी की ऐसी अवदशा उससे देखी ना गई और षड्यन्त्र करने वाली रानी और अपात्र मिथ्याभिमानी महत्त्वाकांक्षी राजकुमार का उसने शिरच्छेद करा दिया। उसे पता था कि, ऐसे अयोग्य एवं राज्य लोभी व्यक्ति से साम्राज्य को कितना नुकसान हो सकता है, क्योंकि वह स्वयं ऐसे अनुभवों से गुजर चुका था। इस कारण पूरे राज्यवंश में भी उसका भय फैल चुका था और षड्यन्त्रकारी थरथर कांपने लगे थे।
अशोक ने अपने अंधपुत्र कुणाल और उसके सम्प्रति नामक पुत्र को ध्यान रखते हुए उसे अवन्ती जनपद कुमारभुक्ति में प्रदान किया।
अशोक ने अपने बाईं और कुणाल को और दाईं और सम्प्रति को बिठाया। अपने अंधे प्रिय पुत्र का हाथ अपने हाथ में लिया और प्रिय पौत्र सम्प्रति को अपनी गोद में लेकर उसका सर सहलाया। और फिर उद्घोषणा की, “मैं मौर्य सम्राट प्रियदर्शी अशोक, मेरे चातुरन्त, हिमालय सागरान्त, पश्चिमांचल कलिंगान्त साम्राज्य के एक छत्र धुरावाहक के रूप में सम्प्रति को अपना उत्तराधिकारी घोषित करता हूँ।”
जल्लोष के साथ पूरी प्रजा ने इस घोषणा की अनुमोदना की, किन्तु दूसरी ओर अशोक के पुण्यरथ आदि अन्य पुत्र के मुख देखने जैसे हो गए थे। अशोक को भी इस बात का पता था, वह कोई ऐसे ही सम्राट नहीं बना था।
“और मैं सम्प्रति को उसकी कुमारभुक्ति नगरी उज्जयनी में जाकर समग्र भारत का संचालन करने की सलाह देता हूँ।” इतना कहकर अशोक स्वत्व बोल रहा हो उस प्रकार बोलने लगा, “महाराजा चन्द्रगुप्त, सम्राट बिन्दुसार और शासक अशोक ने जिस नगरी के सिंहासन पर बैठ कर राज्य किया था उस नगरी का पुण्य अब समाप्त हो चुका है। पाटलिपुत्र अब भगवान बुद्ध के भरोसे है। किसे पता कि अब इसका भविष्य क्या होगा? हे मेरे महान पूर्वजों! मुझे क्षमा करना। मैं आपके सिंहासन को सम्भाल नहीं पाया। किन्तु आपका साम्राज्य अखण्ड रहेगा।”
तत्पश्चात अशोक ने सम्प्रति की ओर देखा। दादा पोते की आँखें मिलीं, और आँखों ही आँखों में मानो सारी बातें हो गईं। अशोक ने सम्प्रति को खड़ा किया और अपने पूर्वजों की शुद्ध लोहे की बनी हुई तलवार सम्प्रति को दी। सम्प्रति में तलवार को हाथ में लिया और उसे म्यान में से निकाला, फिर आकाश में तलवार उठा कर बोला, “मौर्य साम्राज्य वर्धमान हो, मौर्य साम्राज्य अखण्ड रहे।”
पूरी सभा ने इन शब्दों को पूरे हृदय से बधाया। उस समय पुण्यरथ और उसका सेनापति भी बुलन्द आवाज में बधाई के स्वर बोल रहा था। क्योंकि उसे विश्वास था कि सम्प्रति तो उज्जयनी चला जाएगा। आज नहीं तो कल यह पाटलिपुत्र हमारा है। और एक बार पाटलिपुत्र हमारे हाथ में आ गया, तो फिर पूरा मगध और फिर पूरा भारतवर्ष जीतने में कितनी देर लगेगी। फिर पूरा भारत और करोड़ों की प्रजा एक स्वर में बोलेंगे, “सम्राट पुण्यरथ की जय हो, विजय हो।”
उसकी आंखों में चमक रही झूठी आशा और लालसा के सपने अशोक से छुपे हुए नहीं थे। वह उसके प्रति करूणा और तुच्छभाव से हँसने लगा। एक तरफ सम्प्रति था, जो समग्र भारत के उज्जवल भविष्य में चमकते तेजस्वी सूर्य के समान था, और दूसरी ओर टिमटिमाते तारे की जैसे दुर्बल दूसरे उत्तराधिकारी...
वास्तव में तो सम्प्रति को पाटलिपुत्र सुरक्षित नहीं लगता था। उसका निजी अभिप्राय भी यही था कि, अवन्ती में रहकर ही मौर्य साम्राज्य का संचालन करना चाहिए। उसे दादा अशोक को यह बात समझाने में बहुत परिश्रम करना पड़ा था, और आखिरकार अशोक इस बात के लिए सहमत हो गया था।
और फिर पाटलिपुत्र के सुगांगेय महाप्रसाद के इस भव्यतम सिंहासन से अशोक उठा, मानो उसके साथ पूरा साम्राज्य उठ गया हो। भारतवर्ष का केन्द्रीय शासन, जो भगवान महावीर के समय में राजगृही में था, फिर कुछ समय पश्चात चम्पानगरी में और पिछले लगभग 200 वर्षों से उदायी, नौ नन्द और तीन मौर्य के समय में पाटलिपुत्र से संचालित हो रहा था; अब इसका स्थानान्तरण हुआ। अब भारतवर्ष का अखण्ड मौर्य शासन का केन्द्र आने वाली लगभग एक शताब्दी तक अवन्ती के उज्जयनी में रहने वाला था।
यद्यपि कलिंगवासियों को इस बात से क्या फर्क पड़ने वाला था? मौर्य वंश का जो होना होगा वह हो, इससे उन्हें क्या लाभ? हालांकि पूरी दुनिया में सबको पता था कि सम्प्रति को जैन धर्म के प्रति विशेष अनुराग था। यदि सम्प्रति पाटलिपुत्र में होता, तो कलिंगजिन को सम्मानपूर्वक पुनः कलिंग को सौंप देता, किन्तु क्या कलिंगवासी अपने स्वामित्व की अमूल्य वस्तु, अपने हृदय की धड़कन को दान के रूप में या अहसान के रूप में प्राप्त करने के लिए तैयार होते? वे तो कलिंगजिन को पाटलिपुत्र को हराकर अधिकार के साथ ग्रहण करने में विश्वास करते थे। उन्हें विश्वास था कि कलिंग के राज्य सिंहासन पर कोई तो ऐसा शासक आएगा, कोई तो ऐसा समर्थ पुरुष अवतार लेगा जो पाटलिपुत्र को आक्रान्त करके कलिंगजिन को पुनः वापस लेकर आएगा। उनकी यह श्रद्धा असीम थी, उनका धीरज अपार था। और कलिंग के राजा क्षेमराज, जो अशोक के सामने हार कर भी जीत चुके थे, वे अब जीत कर भी हारने की परिस्थिति में थे। उनके समक्ष तात्कालिक अनेक प्रश्न थे, अनेक समस्याएँ थीं। प्रजा का प्रश्न, नगरी का प्रश्न, नदी, तालाब, दुर्ग, खजाना, व्यापार, राज्य व्यवस्था आदि अनेक प्रश्न थे। अशोक ने ऐसा घाव दिया था जिसे भरने में अभी बहुत देर लगने वाली थी। इन प्रश्नों का समाधान होता, उससे पूर्व ही महाराजा क्षेमराज काल की गोद में समा गए।
उनके उत्तराधिकारी महाराजा वृद्धराज को अपने पिता से विरासत में एक भग्न और पराधीन साम्राज्य मिला था। ऐसा साम्राज्य जिसमें अनेक प्रश्न और अनेक समस्याएँ हाथ पसारे खड़ी थीं। भगवान जाने उनका अन्त कब आने वाला था? इन सभी प्रश्नों के प्रहारों ने महाराज को उनके नाम के अनुसार भरी जवानी में ही वृद्ध कर दिया था। इन प्रश्नों के समाधान किए बिना दूसरी किसी बात विचार भी कैसे किया जा सकता था? घर में ही जब प्रश्न खड़े हो, तो घर के बाहर की बातों का विचार कैसे किया जा सकता है? ऐसी स्थिति में कलिंगजिन के आने की प्रत्येक कलिंगवासी आतुरता से राह देख रहे थे, किन्तु आगमन की घड़ी आगे सरकती रही। कलिंगजिन की माला जपने वाली पूरी एक पीढ़ी काल का भोग बन चुकी थी। अब नई पीढ़ी आ चुकी थी। किन्तु आश्चर्य यह कि, आज भी कलिंगजिन की कहानी और उनका आकर्षण उतना का उतना ही था। कमाल की दीवानगी थी इस प्रजा की कलिंगजिन के प्रति। देश का स्वाभिमान, राष्ट्र की अस्मिता के साथ कलिंगजिन की भक्ति भी इस प्रजा को अपने पूर्वजों की ओर से विरासत में मिली थी। कलिंगजिन का सम्मान तथा आदर इस प्रजा की रग-रग में बहता था। कलिंगजिन यहाँ के राष्ट्रीय देवता थे और राष्ट्रध्वज के समान समस्त कलिंगवासियों के वे सम्मान पात्र थे।
उस काल और उस समय में धर्म तथा कुल ये दो अलग-अलग चीजें होती थी। उपकेशपुर नामक नगर, जो राजपूताना, मेवाड़, मारवाड़ प्रदेश में था, वहाँ बाहुबल से परिपूर्ण क्षत्रियों का निवास था। वे सब क्षत्रिय कुलाचार का पालन करते थे। शक्ति प्रदर्शन, युद्ध, प्रजा कल्याण आदि इनके कुल के परम्परागत आचार थे। युद्ध हिंसक होने पर भी सहज रूप से स्वीकार्य थे। ऐसे प्रदेश में प्रभावक आचार्य रत्नप्रभसूरि जी पधारे। इनके पूर्वज पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे और प्रभु महावीर के धर्मचक्र प्रवर्तन के पश्चात् वे प्रभु महावीर के संघ में सम्मिलित हो गए थे। वी. सं. 70 में इन आचार्य भगवन्त ने इस उपकेशपुर के एक लाख अस्सी हजार क्षत्रियों को जैन धर्म से प्रतिबोधित किया, और यहाँ से उपकेश वंश का प्रारम्भ हुआ। यही आज ओसवाल वंश के नाम से पहचाना जाता है। ये सभी क्षत्रिय अपने कुलाचार का पालन भी करते थे और जैन धर्म के धर्माचार का पालन भी करते थे।
उस काल में पूर्वजों की परम्परा से बौद्ध बना हुआ व्यक्ति भी अपनी इच्छा के अनुसार जैन धर्म का पालन करने में स्वतन्त्र होता था। अनेक ब्राह्मण भी बौद्ध धर्म का पालन करते थे। महापण्डित चाणक्य स्वयं ब्राह्मण कुल के होने के बावजूद भी, और अपने कुल परम्परा के अनुसार शिखा, जनोई, भगवा आदि धारण करने के बाद भी मन से तो जैन धर्म का ही पालन करते थे। कुल और धर्म ये दोनों एक दूसरे से स्वतन्त्र थे, और स्वतन्त्र रूप से इनका पालन होता था।
भगवान महावीर स्वामी के समय में अम्बड़ नामक परिव्राजक संन्यासी ने अपने 700 शिष्यों के साथ भगवान महावीर का धर्म स्वीकार किया था, किन्तु उसने संन्यास नहीं छोड़ा। संन्यासी के नियम पालते हुए भी वह जैन आचार भली-भाँति सम्भालता था।
यह उस काल की बात है जब कलिंगवासी अपने कुल की परम्परा के अनुसार, कुलाचार के अनुसार कलिंगजिन तथा कुमारगिरि पर्वत पर रहने वाले, जगत से विमुख तथा तीव्र तपस्या करने वाले, निराभरण महामुनी तथा कुमारीगिरि के पहाड़ पर रहने वाले अचेलक जैन महामुनियों के प्रति ह्रदय से आदर, प्रेम तथा भक्ति करना सीख चुके थे। यही उनका कुलधर्म था। और आज पिछले लगभग दो सदियों से वे कलिंगजिन की विरह में जी रहे थे, उनके दर्शन हेतु उनकी आँखें तरस रही थी।
इस ओर वी. सं. 243 में सम्राट सम्प्रति महाराजा मौर्य साम्राज्य के अधिष्ठाता बने। उनके सामने भी अनेक चुनौतियाँ थीं। अन्दर और बाहर के अनेक षड्यन्त्रों और अनेक युद्धों से उन्हें बाहर निकलना था।
किन्तु सम्राट पूर्वभव के अद्भुत पुण्य लेकर आए थे। उपरान्त, जिस प्रकार अशोक ने बौद्ध भिक्षु उपगुप्त के आशीर्वाद प्राप्त किए थे, वैसे ही सम्राट सम्प्रति में जैन आचार्य आर्य सुहस्तिसूरिजी के भरपूर आशीर्वाद प्राप्त किए थे। शुद्ध रूप से जैन बने इस सम्राट के ह्रदय में मात्र एक ही आकांक्षा थी, “जिस जैन धर्म ने मुझे इतना अधिक वैभव दिया, इतना बड़ा साम्राज्य दिया, ऐसे सद्गुरु और आत्म चेतना दी, यह सब कुछ क्यों ना इस पूरे विश्व को भी मिले?” और इसी कारण उसने जैन धर्म को समस्त भारत में और भारत के बाहर बर्मा, सीलोन और चीन तक फैलाने का भरपूर प्रयास किया। अपने मन्त्रियों, सेनापतियों और रक्षकों को उसने जैन मुनियों का वेश पहनाकर धर्म प्रचार के लिए भेजा। यहाँ सम्प्रति का उद्देश्य सम्राट अशोक से बहुत अधिक भिन्न था। धर्म के प्रचार के लिए जैन श्रमणों से बदले में कुछ भी प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती थी, और सम्प्रति को ऐसी कोई अपेक्षा थी भी नहीं। उसकी तो मात्र यही भावना थी कि, मुझे जो मिला है वह सबको मिले, जगत के जीव मात्र का कल्याण हो।
जिस प्रकार अशोक ने नए धर्म का प्रवर्तन किया, सम्प्रति ने ऐसा कुछ भी करने का प्रयास बिल्कुल नहीं किया। उसने जैन धर्म को अपने सनातन और शाश्वत स्वरूप में ही देश विदेश में फैलाया। उसने पूरे जैन समाज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और जीवन के अन्त तक इस पुण्यशाली महाराजा ने समग्र मौर्य साम्राज्य पर अपना अंकुश भी बनाकर रखा। सम्राट अशोक के समय में जो साम्राज्य था, अब सम्प्रति के पुण्य प्रभाव से उस साम्राज्य का विस्तार भी हुआ और स्थिरता भी आई। बड़े-बड़े शासक भी मौर्य साम्राज्य के भाग के रूप में रहने में अपना गौरव समझते थे। अनेक शासक या तो सम्प्रति की शरण में आ चुके थे, या फिर उससे भयभीत थे।
किन्तु अन्दर के ही कुछ लोग साम्राज्य की नींव हिलाने का प्रयास कर रहे थे। अशोक की मृत्यु के ३ वर्ष तक तो पाटलिपुत्र का सिंहासन खाली रहा, क्योंकि उसका संचालन अवन्ती उज्जयनी से चल रहा था, इसलिए पाटलिपुत्र का सिंहासन भरने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
किन्तु तीसरे वर्ष से लगातार तीन वर्षों तक दांव-पेच खेलने के बाद आखिरकार अशोक का पुत्र पुण्यरथ पाटलिपुत्र की सिंहासन पर वी. सं 243 में आया। यह भी अपने पिता की तरह सुगत धर्म का पूजक था, और उसे सत्ता में लाने में बौद्ध भिक्षुओं का भी काफी योगदान था। सम्राट सम्प्रति बाहर के लोगों से तो लड़ लेता, किन्तु घर के ही लोगों के सामने क्या करता? और पुण्यरथ, जो सम्प्रति का चाचा था, उसने पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठकर दिन और रात यही विचार किया कि, कब मौका मिले और मैं पूरे मौर्य साम्राज्य को अपनी मुट्ठी में ले लूँ। सम्राट सम्प्रति ने अब पाटलिपुत्र को छोड़ दिया था। अशोक की भविष्यवाणी मानो सफल हो रही थी। अब मगध की जगह अवन्ती सत्ता का केन्द्र बन रहा था। उधर पूरा मगध पुण्यरथ के कब्जे में आ रहा था। मगध में ऊपरी तौर पर सम्प्रति का शासन था, किन्तु अन्दर से तो पुण्यरथ ही राज्य चला रहा था।
वी. सं. 250 में पुण्यरथ के पुण्य का जोर दुर्बल हुआ। उसके एक भी मंसूबे काम नहीं आए और आखिरकार वह यह दुनिया छोड़कर चल बसा। उसके स्थान पर उसके सिंहासन पर उसका पुत्र वृद्धरथ बैठा। उसका दूसरा नाम बृहद्रथ था। उस समय असमानता के बीच एक समानता यह थी की मगध में बृहद्रथ का राज्य था और कलिंग में वृद्धराज का राज्य था।
वी. सं. 275 में कलिंगजिन, जो कलिंग की अस्मिता थे, उन्हें वापस लाने की आशा रखने वाला राजा क्षेमराज की थक-हार कर हताशा में मृत्यु हो गई। उसके मनोरथ अधूरे रहे, और पुण्यरथ के मनोरथ भी अधूरे रहे। किन्तु दोनों के मनोरथों में अन्तर था। एक के भीतर सत्ता की लालसा और महत्त्वाकांक्षा थी, तो दूसरे के हृदय में राष्ट्र के प्रति प्रेम और भक्ति छलक रही थी।
बृहद्रथ को सत्ता का विस्तार नहीं करना था, बल्कि सत्ता का भोग करना थी। वह राजसी भोग-विलास में डूब जाना चाहता था। उस समय तक्षशिला के ग्रीक यूनानी राजा अपना प्रभाव दिखाने लगे। चन्द्रगुप्त के समय से वे मगध को अपने आधीन करने के लिए अवसर देख रहे थे, किन्तु उन्हें यह अवसर डेढ़ सौ वर्षों के बाद अब मिला था। अब मगध पर एक दुर्बल राजा का राज्य था और सम्राट सम्प्रति मगध या पाटलिपुत्र के लिए चिन्ता करने के सिवाय और कुछ करने की स्थिति में नहीं था। उसका पाटलिपुत्र में हस्तक्षेप मगध को पसन्द नहीं था और ऐसा करना उसके स्वयं के लिए भी घातक हो सकता था। किन्तु फिर भी जब तक सम्राट सम्प्रति थे, तब तक समग्र भारत सुरक्षित तथा अखण्ड था। यवन अभी भी डर में थे, क्योंकि मौर्य वंश का सूर्य, यानी सम्राट सम्प्रति का तेज जोरों से तप रहा था।
वैसे तो उस समय जब तक्षशिला के उस ओर यवन थे। तब मौर्य साम्राज्य के पांच विभाग थे, जिसमें उत्तरापथ में कम्बोज, गांधार, कश्मीर, अफगानिस्तान तथा पंजाब प्रान्त शामिल थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसका दूसरा विभाग पश्चिमचक्र था जिसमें सौराष्ट्र, गुजरात, मालवा और राजपूताना शामिल थे, इसके शासन का संचालन स्वयं सम्राट सम्प्रति ही करते थे। तीसरा विभाग दक्षिणापथ था, जिसमें विंध्याचल से लेकर दक्षिण का पूरा प्रदेश शामिल था, इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी। चौथा विभाग कलिंग था, जिसका संचालन मौर्य वंश की आज्ञा में रहकर वृद्धराज कर रहे थे। पांचवा विभाग मध्यदेश था, जिसमें बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल शामिल थे। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी जिसका संचालन बृहद्रथ नामक दुर्बल शासक के हाथ में था। उसकी पकड़ धीरे-धीरे कमजोर हो रही थी।
उस काल में आन्ध्र में सातवाहन का उदय हो रहा था। इसमें सिमुक तथा उसका भाई कृष्ण सत्ता भुगत चुके थे। और उस समय सातकर्णि - प्रथम सिंहासन पर था। कलिंग से दक्षिण सिंहल द्वीप तक छोटे-मोटे राज्यों के राजा तथा गणतन्त्र राज्य चला रहे थे। ये सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्राट सम्प्रति के अधीन थे। उस समय भगवान महावीर के निर्वाण को २७६ वर्ष बीत चुके थे। राजा वृद्धराज को राज्य करते हुए उस समय एक वर्ष ही हुआ था और उसके यहाँ एक सन्तान का जन्म हुआ। यही सन्तान हमारी कथा के मुख्य पात्र हैं - भविष्य के महाराजा खारवेल। भिक्षुराज, महामेघवाहन, महाराजा खारवेलाधिपति।
इतनी भूमिका हमने बना दी, अब आइए उनके जीवन की कथा में प्रवेश करते हैं...।
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