top of page

महानायक खारवेल Ep. 20



महानायक खारवेल Ep - 20

( युवान तोषालिपुत्र महाराज खेमराय के पराजय की बात सुनते ही वे राजा को मिलने और मनाने के लिए आए थे। उन्होंने एक नक्शा दिखाकर राजा को बहुत सारी बातें समझायी थी। युद्ध में जिसके माता-पिता वीर मृत्यु को प्राप्त कर चुके थे ऐसे बालक कामरू को भी साथ में लेकर महाराज के पास आये थे। )

 

"राजा के पास पहुँचा तब पूरे मंडल में गहरी उदासी, हताशा और मायूसी फैली हुई थी। मैं राजा के सन्मुख गया। मेरे एक हाथ में बालक कामरू था और दूसरे हाथ में कलिंग का नक़्शा।"

 

"वनप्रांतीय विशिष्ट और विचित्र वेशभूषा थी मेरी। हाथ में गोल करके रखा हुआ बड़ा पट था और दूसरे हाथ से कामरू की उँगली को पकड़ा था। महाराजा धारदार नजरों से मुझे आते हुए देख रहे थे,।"

 

"इतने में गुप्तचरों के अधिपति रहस्य‌मंत्री ने राजा के कान में जाकर कुछ कहा और राजा खेमराय की आँखे सतेज हुई। महाराज कुमार! आपके दादा की प्रतिभा तो कुछ अनोखी ही थी। उनकी विशाल आँखें, लंबी रुआदार मूछेछें और ललाट के मध्य में बिराजता हुआ चंदन का तिलक, ये तीनों चीजें सामने वाले को डरा देती थी। पर ऐसे वो राजा खेमराय आज हताश और निराश नज़र आ रहे थे। इतनी सारी विवशता उनके चेहरे पर आज से पूर्व कभी नहीं देखी थी। मुझे कामरू के माँ-बाप की बात याद आ गई। स्वतंत्रता को खोना यानि प्राणों को गँवा देना, स्वाभिमानी मनुष्य मरना पसंद करेगा, पर पराधीन तो हरगीज नहीं होगा।

 

"मुझे आते हुए देखकर, मेरा परिचय जानकर खेमराय सिंहासन पर से खड़े हो गए। आटविक सेना के अधिपति का कलिंग के दरबार में स्वागत है। फिर उन्होंने मेरा स्वागत करने के लिए बाहें फैलायी। पर मैं उनके नजदीक जाकर उनके चरणों में ही गिर गया। उनके चरणों की धूल को सिर पर चढ़ाते हुए बोला, 'कलिंग के सम्राट को उनकी प्रजा-संतति चरणों में झुककर वंदना करती है। हमारा स्थान आपके चरणों में रहा है और उसे ऐसे ही रहने दो महाराज!"

 

"मेरी यह बात सुनकर महाराजा क्षेमराज की आँखों में करुणता छलक उठी। उन्होंने कहा "धन्य है आपको मेरी वनवासी प्रजा! कलिंग की सच्ची आदिम शुद्ध अस्मिता आपके समाज में आज भी जीवंत है। कलिंग के स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा के लिए आपकी तत्परता प्रत्येक कलिंगवासी के मनोमस्तिष्क में आज भी गूँज रही है। कलिंग की कन्यायें आज भी आपकी बेलैया (ओवरणा) लेती है और कुमार आटविक सैन्य को सलाम करते है।"

 

"फिर भी यह समस्त प्रजा, इतनी बहादुर, युद्ध निष्णात, तेजस्वी, प्रतिभासंपन्न समस्त प्रजा मुझे-इस कलिंग के हारे हुए महाराज को, परतंत्री राजवी को यह स्वतंत्र प्रजा अपना नाथ मानने को तैयार होती है, यह बात मेरे मानने में नहीं आती है।" ऐसा कहकर राजा ने एक ईशारा किया और आसन दिखाया। मैं उसके ऊपर बैठा।"

 

"बताईये, स्वतंत्रता प्रेमी इस समाज का मैं एक परतंत्र राजा क्या सम्मान कर सकता हूँ?"

 

"स्वतंत्रता प्रेमी समाज का स्वामी कभी परतंत्र हो ही नहीं सकता है।" मैंने राजा खेमराय के सामने सर्व प्रथम यह वाक्य कहा था। उसके प्रत्युत्तर में राजा के चेहरे पर फिर से करुणता छा गई थी।"

 

"खेमराय ने कहा-'कुमार! तू मुझे उकसाने आया लगता है। पर इतना जान लेना कि कलिंग की प्रजा का खून बहाकर मुझे स्वतंत्रता नहीं चाहिए। अब बहुत हो चुका है। सामनेवाला पक्ष कभी-भी अटकने वाला नहीं है।

 

और मेरी प्यारी प्रजा का, मेरी संतानो का मेरी आँखों के सामने वध होते हुए मैं अब नहीं देख सकता हूँ। भले ही मुझ पर कलंक लग जाए। मैंने परतंत्रता को स्वीकार करने का निर्णय कर लिया है। अब इससे मुझे कोई चलित नहीं कर सकता।”

 

"पर राजन! प्रजा के पक्ष में कोई भी निर्णय करने से पूर्व आपको प्रजा के मत को तो जान लेना चाहिए ना। क्या चाहती है आपकी प्रजा? स्वतंत्रता या साँस?" फिर महाराज कुमार! मैंने कामरु को आगे किया और कहा कि बेटा! तुने अभी जो मुझसे कहा, वह महाराज को बता।"

 

"और राजकुमार! कामरू की तुतलाती भाषा में उसने जो बातें कही, उसे सुनकर पूरी राजसभा भावुक हो गई थी। महाराज ने इस बालक को उठा लिया और आर्द्रस्वर से बोले," मैं मेरे कलिंग की भावी पीढ़ी को बिलकुल एकाकी और मौत के लिए जिंदा रहे, वैसे देखना नहीं चाहता हूँ। उनके पास मृत्यु पाने के सिवा भी अन्य कई सारे महान लक्ष्य होने चाहिए जो उनको जिंदा रखे, जो उनमें जीने का प्रचंड उत्साह पैदा करें। क्यों सभी को मरना है?

 

भाई! मौत को सामने से गले लगाने की मूर्खता करने जैसी नहीं है। जीवित रहो। जीवन का आनंद उठाओ। जीवन के लक्ष्य को जानो। यह मनुष्य का देह मिला है तो उसे ऐसी झूठी रस्साकसी में फँसाने के लिए नहीं मिला है। तोषालिपुत्र भाई! स्वतंत्रता असल तो आत्मा की होती है। उसे किसी भी तरह से बरकरार रखना चाहिए। बाकी यह सारी स्वतंत्रताएँ तो कुछ प्रकार की मानसिक कल्पनाएँ हैं। मैं वीरमृत्यु पाने वालों की हीलना नहीं करता हूँ। गौरव है मुझे उनके बलिदान पर। परंतु हर एक वस्तु की एक मर्यादा होती है।

 

तोषालिपुत्र! स्वतंत्रता और बलिदान, इन दोनों विकल्पों में से अभी तक पिछले चार-चार वर्षों में हमने स्वतंत्रता के लिए कई बलिदान दिए। अब उसकी हदपार हो गई है। अब मुझे मृत्यु-बलिदान नहीं चाहिए। अब मुझे जीवन चाहिए। जीवन के लिए अब स्वतंत्रता को देना पड़ेगा। स्वतंत्रता महान है, पर जीवन से अधिक नहीं। अब मैं मेरी प्रजा का और विनाश नहीं देख सकता। अब मुझे किसी भी प्रकार से जीवन, जीवन और जीवन चाहिए। बस, और कुछ भी नहीं।"

 

"राजन! वनजीवियों के लिए जीवन और स्वतंत्रता दो अलग चीज नहीं है, एक ही है। जब हमारा स्वामी स्वतंत्रता को गँवा देगा, तब प्रत्येक आटविक उसके सामने आकर खंजर भौंककर अपना जीवन दे देगा। हमें  या तो रणभूमि में स्वतंत्रता के लिए मरने दो या आपके समक्ष आकर मृत्यु को गले लगाते हुए देखते रहो और वह भी आप परतंत्र हो जाओ उसके पहले। कल सूरज उगेगा और आप अशोक की पराधीनता स्वीकारने के लिए अग्रसर होंगे और उसी समय रास्ते के दोनों किनारे पर असंख्य आटविक स्त्री, पुरुष और बालक हाथों में कटारी लेकर खड़े होंगे, आपके प्रत्येक कदम पर वे अपना बलिदान देंगे। स्वतंत्र रहकर मौत को गले लगा लेंगे, पर परतंत्र जीवन को नहीं स्वीकारेंगे।"

 

"मेरी बातों से राजकुमार! समग्र सभामंडल में स्तब्ध शांति छा गई। सभी कोई मंत्रमुग्ध होकर मेरे समक्ष देखते रहे। कोई भी होश-हवास में नहीं रहे थे।”

 

"और अंतिम प्रहार करने के लिए मैंने नक्शा खोला। यही नक्शा जो आपको, आपके समक्ष दिखाई दे रहा है ना राजकुमार! यही नक्शा।”

 

मैंने राजा को समझाया कि, समस्त आटविक समूह ने जो निर्णय किया है, उसे महाराज मान्य रखे, वैसी आशा है। नक़्शे के अनुसार इस उत्तर पश्चिमी दिशा में घनघोर जंगल है, जिसकी सीमा अति विशाल है और उसमें पाँच से सात लाख मनुष्य गुम हो जाए वैसा है। हमारा सूचन यह है कि आप एक बार युद्ध करते-करते अशोक की मागधी सेना को इस वन में प्रवेश करवा दो। यहाँ के हर एक चप्पे- चप्पे को प्रत्येक आटविक वनजीवी बहुत अच्छे-से जानते हैं। एकबार यहाँ प्रवेश हो जाए फिर आगे का काम आटविक सैन्य संभाल लेगा। यहाँ पर प्रवेश करने वाला एक भी मागध जिंदा नहीं निकलेगा और मुठ्ठीभर कल्लिंग की स्वतंत्र आटविक सेना समग्र देश को विजय दिलाएगी।

 

"मेरी यह बात सुनकर राजा मौन हो गए। दो क्षण तो मुझे तीव्र नजरों से देखते रहे। फिर उन्होंने एक सरसराती नजर पूरी सभा में घुमायी। मैंने जानकारी ली कि, मेरे इतने विस्तार पूर्वक कथन के बाद भी, सभागृह में किसीको भी कोई खास असर नहीं हुआ था। वे सभी बहुत थक गए थे। वह सभी अब युद्ध विराम चाहते थे।"

 

"कलिंग तो परतंत्र हो चुका है। आर्य तोषालिपुत्र!” ऐसा महाराज ने कहा "इस सभा में अब एक ही बात शेष बची है-युद्ध विराम... मागधीसेना लाखों की संख्या में है। आटवि‌क सेना और मागधीसेना के बीच का क्रूर संग्राम और सर्वनाश का तांडव खेमराय से अब देखा नहीं जाएगा... तो दूसरी तरफ स्वतंत्रता प्रेमी आटविक प्रजाजनों को परतंत्रता में कैद कर लेना भी इस खेमराय से सहन नहीं होगा। किसी से भी उसके प्राण कैसे ले सकते हैं? स्वतंत्रता ही जिनके प्राण है, ऐसी प्रजा को जबरदस्ती परतंत्र बना देना यानि उनके प्राणों को हर लेना। यह भी तो एक प्रकार की हिंसा ही है ना!"

 

“इसलिए दीर्घ विचारणा के पश्चात् मैंने बीच का मार्ग निकाला है। एक ऐसा मार्ग जिसके कारण कलिंग की प्रजा को जीवन मिल जाए और आटविक प्रजा की स्वतंत्रता अटल रहे!"

 

"मैं आज से आटविक प्रदेश को स्वतंत्र घोषित करता हूँ। अशोक अपनी क्रूरता से कलिंग को जीता गया हैं, पर आटविक राज्य तो अभी-भी झुका नहीं है। जब मैं अशोक के पास जाऊँगा, तब मैं इस बात की स्पष्टता कर लूँगा। इसी प्रकार की संधि लिखी जाएगी।”

 

"आटविक प्रजा परापूर्व से कलिंग की वफादार रही है और कलिंग का विश्वास भी संपादन किया है, पर क्षेमराज महाराजा! प्रेम और वफादारी जबरदस्ती नहीं रखी जा सकती है। जब सामने वाले व्यक्ति की कोई इच्छा ही नहीं हो, तब क्या हो सकता है?" ऐसा कहकर मैंने इस नक़्शे को बंद करना शुरू किया और उनको कहा- 'परंतु महाराज! हमें छत्रविहीन करने से पूर्व आपको एक बार हमसे पूछना तो चाहिए था। हम स्वतंत्र प्रेमी हैं, स्वच्छंदता प्रेमी नहीं।” ऐसे बोलते समय मेरा स्वर गद्गद् हो गया था।

 

"महाराज! आपका यह निर्णय-हमारे स्वामी का आदेश मानकर हम स्वीकार लेंगे। पर दिल से समस्त आटविक प्रजा आज आक्रंद करेगी। इतना कहकर में खड़ा हो गया। कामरू उँगली पकड़कर चला, फिर अटक गया। महल, राजा, कलिंग की प्रजा, सभी कुछ अचानक से पराया-पराया लगने लगा। मैं किशोर था कुमार! दिल में अरमान थे, सपने थे, संवेदनायें थी। मेरी आँखों में आँसू भर आए और पलकों से बाहर निकल न जाए उसके लिए मुझे बहुत ही प्रयत्न करना पड़ा। हृदय पर पत्थर रखकर मैंने गहरी साँस ली और कहा, "महाराज! कलिंग को परतंत्र रहना, यह हमारा सौभाग्य है। मगध को परतंत्र रहना, यह हमारे लिए मृत्यु समान है। समस्त आटविक प्रजा की ओर से मैं आपको कहता हूँ कि भले महाराजा ने हमें कलिंग से स्वतंत्र कर दिया है, पर हम हमेशा कलिंग के शरणागत और समर्पित सेवक मात्र हैं। यही हमारी पहचान है। हम से हमारी पहचान को कोई भी नहीं छीन सकता है। हम हमेशा के लिए कलिंग के दासानुदास रहेंगे।


कलिंग को जब भी स्वतंत्रता या सुरक्षा की जरूरत पड़ेगी तब कलिंग का एक छोटा-सा बच्चा भी पुकार करने पर दौड़ा चला आएगा और समस्त आटविक सैन्य उस स्वतंत्रता के यज्ञ में अग्रबलि के रूप में स्वाहा हो जाएगा। वनवासी कभी-भी कलिंग के सिवा अन्य किसी के सामने अपने हाथ नहीं जोड़ेंगे और शीश नहीं झुकायेंगे और कलिंग ने हमें अलग किया है तो, वनवासी प्रजा आज से कभी-भी सामने से कलिंग के पास नहीं आएगी। प्रतीक्षा करेगी कि, कभी-ना-कभी कलिंग का कोई भी राजा-राजवंशी स्वतंत्रता के लिए आटविक सैन्य को आमंत्रित करेगा। महाराजा ने सामने से हमें रवाना किया है, तो अब सामने से हमें निमंत्रण मिले, उसकी अपेक्षा एक स्वाभिमानी सेवक के रूप में हम रखेंगे तो कोई हर्ज नहीं है।"

 

"महान आटविक सैन्य-प्रजा को मुझसे अलग करते समय आर्य तोषालिपुत्र! जैसे कि शरीर का एक अंग अलग कर रहा हूँ ऐसी पीड़ा मुझे हो रही है भाई।" राजा खेमराय ने कहा। महान साम्राज्यों की बुनियाद में महान सेवकों का समर्पण छिपा हुआ होता है। कलिंग के साम्राज्य की बुनियाद यह आटविक प्रजा है। उसके समर्पण की धरती पर समस्त कलिंग, क्या राजा क्या प्रजा अपने पैरों को जमाकर खड़ा है।

 

“पर भाई तोषालिपुत्र! काल मेरे पक्ष में नहीं है। अभी तो मुझे सब कुछ हारना ही है भाई! समय सब कुछ छीन लेने को बैठा है और मुझे इस समय का मान रखना है। पर भाई तोषालिपुत्र! राजा खेमराय के आशीष लेते जा। समस्त आटविक प्रजा को कह देना। आपके स्वतंत्रता जीवी आटविक प्रजा के स्वामी होने की योग्यता राजा खेमराय गँवा चुका है। पर भविष्य में अवश्य कोई ऐसा वंशवारिस आएगा, कि जो महान प्रजा के राजा बनने की महानता धारण करने वाला होगा। तब आपका स्वागत है। जरुर आना और उस महान राजा के लिए आपकी वफादारी और निष्ठा दिखा देना।"

 

यह बात कहते-कहते इस प्रौढावस्था में भी आचार्य तोषालिपुत्र की आँखे भर आयी। उसके आगे वे बोल नहीं पाए और जल्दी से उन्होंने नक्शे को गोल-गोल करके बाँध दिया। फिर खड़े हो गए और राजकुमार खारवेल के समक्ष हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर खड़े रहे।

 

खारवेल अचंभित हो गया। दो कदम पीछे हट गया। वह चित्कारता हुआ बोला- "महाशय! आप इतने वयस्क हो। आप मुझे नमन मत करो। आप मुझे लज्जित मत करो।”

 

"महाराज कुमार खारवेल!” आचार्य तोषालिपुत्र ने कहा। उनकी वाणी में एक अलग-सा ही जोश था।धनुष्य की टंकार थी। "आप आपकी वास्तविकता से अवगत हो जाओ। आचार्य तोषालिपुत्र के मस्तक को आपके समक्ष झुकने का अधिकार है और आपको आचार्य के वंदन को स्वीकारने का अधिकार है। समस्त आटविक प्रजा के मार्गदर्शक आचार्य तोषालिपुत्र के भावि कलिंग चक्रवर्ती सम्राट खारवेल को कोटि कोटि नमन...”


ऐसा कहकर आचार्य घुंटने पर गुफा की उबड़-खाबड़ मुलायम धरती पर बैठ गए। ललाट पर दोनों हाथ जोड़कर आँखें बंद करके गर्वोन्नत-मस्तक को झुका रहे थे तब उनके चेहरे पर दैवीय स्मित लहरा रहा था। ना जाने कितने ही सालों के बाद कलिंग के महाराजा को नमन करने की उनकी ख्वाहिश परिपूर्ण हो रही थी। उसका उनको अपार आनंद और पूर्ण संतोष था। कलिंग के अंश को नमन करने का उनका अधिकार उनको वापिस मिल रहा था और थोड़ा कुछ समझता हुआ और थोड़ा नहीं समझता हुआ राजकुमार खारवेल असमंजस का अनुभव करता हुआ खड़ा रह गया। ‘इसमें क्या करना चाहिए?’ ऐसे भाव के साथ कुछ सहाय पाने के लिए उसने बप्पदेव की तरफ देखा। पर यह क्या? बप्पदेव भी उसके सामने झुक रहा था। आँखें बंद करके, हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर... खारवेल की परेशानी पारावार बढ़ गई...।


(क्रमशः)

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page