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महानायक खारवेल Ep. 21



“पिछले 50-50 वर्षों से जो कंकाल भूमि में दफन हो गए थे। वे वापिस धरती को फाड़कर बाहर आ गए है महाराज!”

 

कलिंग के राजमहालय के उस गुप्त-रहस्यमय मंत्रणाखंड में महाराज वृद्धराय को महासेनापति वप्रदेव कह रहे थे।

 

"महाराज यह सब कुछ हुआ है एक स्त्री हठ के कारण।” वप्रदेव ने कहा और वृद्धराय ने जिज्ञासा से उनकी तरफ देखा।

 

"आटविकों के कलिंग के साथ के संबंध का विच्छेद हो गया था। वे उनकी दुनिया में मस्त रहते थे और कलिंग के सामने नज़र भी उठाकर नहीं देखते थे। राजा क्षेमराज के आत्मसमर्पण के बाद और उनके द्वारा आटविक प्रजा को कलिंग से स्वतंत्र करने के बाद आटविकों ने कलिंग में बिना आमंत्रण के नहीं आने का प्रण लिया था।"

 

"और फिर भी आचार्य तोषालिपुत्र की मानी हुई बेटी किंकिणी ने कौमुदी महोत्सव में आने के लिए ज़िद पकड़ी और मूल से कलिंग का अनाथ बालक-जिसे बचपन से ही तोषालिपुत्र ने ही अपने पुत्रवत् पाला है। ऐसे ‘कामरू’ नाम के किशोर को जबरदस्ती ले आयी थी किंकिणी कौमुदी उत्सव में।"

 

"वप्रदेव! 'कामरू’, नाम बताया ना आपने? आदि प्रजाति में पिता के नाम पर संतान का नाम देने का रिवाज है ना! तो इस कामरू के पिता को मैंने देखा है। हम्म्म, वोही बालक होगा वो।” महाराज वृद्धराय ने कहा।

 

"कौन बालक महाराय! महाराज को क्या स्मरण हुआ?

 

“जब आर्य तोषालिपुत्र, पिता महाराज खेमराय की राजसभा में आए थे, तब मैं वहाँ उपस्थित था वप्रदेव! इतना कहकर महाराज वृद्धराय अटक गए। उनकी आँखों के सामने 50 वर्ष पहले का वह दृश्य आकार लेने लगा।"

तब मैं बहुत छोटा था। मुझे बराबर से समझ में नहीं आया था। पर आज वह तमाम बातें स्पष्ट हो रही हैं।

कौन गलत था तब? पिता महाराज भी सच्चे थे और मेरे अंदाज से मेरी और पिताजी के बीच की उम्र के तोषालिपुत्र भी सच्चे थे। किसकी तारीफ करें? किसका त्याग महान था? किसे आदर्श माने? दोनों ने कलिंग के अनुगामियों के लिए महान आदर्श छोड़ा था।"

 

"उस समय आर्य तोषालिपुत्र कामरू नाम के बालक को साथ में लाए थे। उनके मुख से उसकी करुण कथा को सुनकर शूरवीर महाराजा क्षेमराज भी गद्गगद हो गए थे और उन्होंने निर्णय कर लिया था कि कलिंग की भावी पीढ़ी के प्रतिनिधि सम इस कामरू जैसे को जीवन मिले, जीने का रस जगे, उसके लिए वे युद्धविराम करेंगे।"

 

"परंतु वह बात युद्धविराम से लेकर और उसके बाद 25-25 वर्षों के बीत जाने पर भी, साध्य तो नहीं हुई ना महाराय! कलिंग की प्रसन्नता उसकी स्वतंत्रता में है महाराज!”

 

"वप्रदेव! आप भी विद्रोह और विग्रह की भाषा बोलने लगे? एक लाख जीते-जागते इन्सानों का संहार हुआ था उस समय वप्रदेव! जो मर गए वो तो छूट गए, पर जो जिंदा हैं ऐसे डेढ लाख लोग अनाथ, असहाय, अपंगदशा में जीते-जीते प्रत्येक क्षण भगवान से एक ही वस्तु माँगते रहे-'मौत!’ यह सब फिर से दोहराना है वप्रदेव!”

 

"क्षमा करना महाराज! पर युद्ध में हार खाने के बाद भी आज 25-25 वर्षों के बीत जाने पर भी, कलिंग की प्रजा में कोई ऐसा उत्साह नहीं नजर आता है।" वप्रदेव ने कहा।

 

"उसका कारण आप जैसे मनुष्य है सेनापति! जो अभी-भी स्वतंत्रता-परतंत्रता के काल्पनिक सुख-दुःखों में खोये रहते हैं और शांति के वास्तविक सुख का स्वीकार करने से कतराते हैं। आटविक प्रजा कलिंग से दूर रही, पर आटविक विचारधारा अभी सर्वथा दूर नहीं हुई है। कैसे मैं समझाऊँ, कि आटविक विचारधारा में सुख नहीं है। राजा खेमराय की विचारधारा के अनुसार चलने से ही सुख मिलेगा और दो विचारधाराओं का विरोध कहीं विद्रोह में ना बदल जाए। इसीलिए तो महाराज ने आटविकों को अलग कर दिया। मेरी धारणा के अनुसार तो पिता महाराज की विचारधारा में ही सुख है और मैं तो उसे स्वीकार कर ही चला हूँ। आप सभी को भी आदेश करता हूँ कि, विद्रोह की विचारधारा को बिलकुल हवा मत देना। यहाँ पर अभी जो शांति प्रवर्तमान है, उसके प्रति कलिंग की प्रजा का ध्यान खींचिए। उनमें किसी रचनात्मक कार्य करने का उत्साह जगाइये।"

 

इतना कहकर राजा वृद्धराय ने जैसे कि, चर्चा पर पूर्णविराम रखना चाहते हों, वैसे कहा- "आटविक समुदाय के लिए मेरे मन में अपार सम्मान है पर मेरा मन उनकी विचारधारा को स्वीकारने के लिए अभी तैयार नहीं है और शायद कभी होगा भी नहीं।” महाराजा वृद्धराय ने गवाक्ष के बाहर नजर दौड़ायी। सूर्य अस्त हो गया था और संध्या फिर भी धरती पर उजियारा फैलाने की तनतोड़ मेहनत कर रही थी। वृद्धराय मन में समझते थे कि राजा क्षेमराय और उनके विचारों का अस्ताचल में गमन हो चुका है और वे भी ज़बरदस्ती बहुत ही मेहनत से उस विचारधारा को जीवंत रखने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

 

"वास्तव में हारे हुए इन्सान को कोई याद नहीं रखता है। फिर भले ही वो स्वयं राजा ही क्यों ना हो? जगत् को 'जीत' में और 'जीतने वाले' में रस है। इतनी सीधी-सी बात आप क्यों नहीं समझे महाराज!” सेनापति बप्पदेव ने कहा। पर राजा नहीं सुने ऐसे मन ही मन... इस महाराजा की अवमानना करने का उनमें साहस नहीं था। उनके संस्कार उन्हें रोक देते थे।"

 

"कलिंग तो हमेशा स्वतंत्र रहने के लिए ही बना है। स्वतंत्रता ही तो यहाँ की प्रजा की आत्मा है। आप उसे छीनकर प्रसन्नता दे ही नहीं सकते हो महाराज! इसीलिए तो मैंने बप्पदेव को सबकुछ बता दिया है। सारे रहस्यों को खोल दिया है मेरे प्रियपुत्र के समक्ष मैंने और अभी तो वह भी अपने प्रियमित्र राजकुमार खारवेल को मिला चुका होगा और सभी बातों को उसे बता भी दिया होगा। अब तो बस, एकबार आचार्य तोषालिपुत्र और खारवेल का आमना-सामना हो जाए और कलिंग फिर से उत्साह से आसमान को छू जाएगा। परंतु क्या आचार्य और खारवेल का आमना-सामना होगा? यह बात बहुत मुश्किल लगती है। वे स्वाभिमानी आचार्य कलिंग आएँगे नहीं, और राजकुमार का आटविक जाना भी मुश्किल है।”

 

महासेनापति ने सोचा और पश्चिमा काल में देखा तो गुफा में चमकते तारे का उदय हो चुका था। वप्रदेव ने अनुमान लगाया कि “अब कलिंग का उदय निकट में ही है।”


(क्रमशः)

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