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"तो आर्य बलिस्सहजी कुमारगिरी पर्वत पर कैसे पहुँच गए?” सात साधुओं के उस परिवार में अभी तक बिलकुल मौन बैठे हुए ऐसे एक मुनिवर ने पूछा। प्रसंग के अनुलक्षित प्रश्न था, जिसने सभी श्रोताओं को अतीत से सांप्रत में लाकर खड़ा कर दिया।
"कलिंगस्थित कुमारगिरी पर्वत और कुमारीगिरी पर्वत प्रभु पासनाह के समय से तीर्थ के रूप में पूज्य है। पासनाह जिण के अनेक श्रमण-श्रमणी वहाँ आराधना के लिए आते ही रहते थे। अरे! स्वयं प्रभु पासनाह भी उन उत्तुंग गगनगामी पर्वतों की कंदराओं में साधना कर चुके हैं। वहाँ पर प्रभु का समवसरण रचाया गया है।” आर्य सुस्थितसूरिजी बता रहे थे। अपने कल्पनाचक्षु समक्ष वे अभी जिन पार्श्वनाथ के समवसरण को तादृश्य कर रहे थे।
“कालांतर से दोनों पर्वत अनुक्रमशः उज्जयंतावतार और शत्रुंजयवतार तीर्थ के स्वरूप में प्रसिद्ध हुए। उसमें कुमारगिरी पर्वत पर सुवर्णमय श्री आदिनाथ परमात्मा के जिनबिंब की स्थापना प्रभु महावीर के परम भक्त श्रेणिक महाराजा ने गणधर सुधर्मास्वामी के वरद हस्त से करवायी थी। वे भगवान समस्त कलिंग की प्रजा के आराध्य देव बन गए थे। सभी उनको कलिंगजिन के नाम से पहचानते थे।"
“एक समय में कलिंग की राजधानी समान ‘पूरी' नगरी थी। उसमें भुवन के ईश्वर और जगत् के नाथ जीरावल्ला पार्श्वनाथ भगवान बिराजमान हैं। आज भी वहाँ उनका भव्यातिभव्य जिनमंदिर सुहाता है।"
"कलिंगजिन और कुमारगिरी पर्वत परापूर्व से एकांत और मौन की साधना करने वाले जिनकल्पियों और जिनकल्पी जैसे साधु भगवंतों के आकर्षण का केन्द्रस्थान रहा है और यहाँ पर ही अनशन की आराधना करने अनेकानेक साधुभगवंत पधारे हैं। उस अर्थ में इस स्थान को ‘निसीहिया’ भी कहते हैं। जहाँ से आत्मा में स्थिर होकर मोक्ष में जा सकते हैं, वह ‘निसीहिया’। जैसे कि उज्जयंतगिरी तीर्थ को प्रभु श्री नेमिनाथ की अपेक्षा से 'निसीहिया’ कहते हैं। अष्टापद तीर्थ यह प्रभु श्री ऋषभदेव की ‘निसीहिया’ है। सम्मतशैल पर्वत बीस-बीस तीर्थकरों की ‘निसीहिया’ भूमि है।"
"ऐसे देखा जाए तो आर्य महागिरीजी गजाग्रपद तीर्थ से अनशन करके देवलोक पधारे थे। तो आर्य के गुरुभगवंत आर्य भद्रबाहुजी कलिंग के इसी कुमारगिरी पर्वत पर अनशन की आराधना करके देवलोक में गए थे। इस प्रकार कलिंग का कुमारगिरी पर्वत और कलिंगजिन कई सालों से एकांत, मौन, उग्र, उत्सर्ग और अनशन के आराधकों का प्रियधाम रहा है। सामान्य लोग उनको बहुमान से 'हठयोगी’, 'महायोगी’, 'महामुनि' जैसे नामो से जानते हैं।
"दूसरी तरफ कलिंग का कुमारगिरी पर्वत, जहाँ प्रमाण में मध्यम कह सके वैसा जीवन जीने वाले, सभी को धर्मलाभ देने वाले, सभी को मिलने वाले, हितोपदेश के द्वारा धर्म का बोध देने वाले और साथ-साथ अपनी आराधना-साधना भी करने वाले ऐसे स्थविरकल्पी श्रमण रहते हैं। वहाँ के गुफागृहों में उनका निवास होता है।"
"जब गजाग्रपद तीर्थ पर आर्य महागिरीजी ने अनशन करने का निर्णय किया था, तभी से आर्य उत्तर आदि उनके शिष्यों ने कुमारगिरी पर्वत पर जाने का निर्णय कर लिया था। उनको शायद पता नहीं होगा, पर महागिरी आर्य के प्रथम पट्टधर शिष्य आर्य उत्तर उनका दूसरा नाम आर्यबल भी है। आर्य बलिस्सहजी आर्य उत्तर के बाद के शिष्य हैं। आर्य उत्तर ने जिनकल्पी की तुलना में ही शेष जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया, तब मैंने ही उनको पूछा था।"
“आर्यबल! गुरुदेव महागिरीजी तो गच्छ के साथ-साथ विचरते ही जिनकल्पी की तुलना करते हैं। हाँ, वे अलग बस्ती में रहते हैं। पर गच्छ से अलग होकर विहार नहीं करते हैं। तो फिर आप क्यों कुमारगिरी पर जाने की सोच रहे हो? हम जैसों को आपका आलंबन रहेगा ना?”
"तब उन्होंने कहा था- आर्य सुस्थित! आपकी बात का सादर स्वीकार है पर हमें निरंतर यह लक्ष्य में रखना जरूरी है कि हम जिनकल्पी के समान जीने का यत्न करते हैं पर हम जिनकल्पी नहीं हैं जिनकल्पी का तो विच्छेद हो गया है। पर आत्मसुख में लीन रहने की अति आशा में हमें जिनकल्पी से तुलना करने की अत्यधिक प्रेरणा मिली है। एक कारण तो यह और दूसरा कारण गुरुदेव की आंतरिक इच्छा। संतान हमेशा सपने देखती है उसके पिता की तरह जीवन जीने का और जब ऐसा कर सकते हैं, तब वह खुद को सौभाग्यशाली समझती है। हमें ऐसा उच्च-उग्र-उत्कट और उत्कृष्ट जीवन जीने में परम सौभाग्य की अनुभूति होती है क्योंकि हम ऐसा जीवन जी रहे हैं, जैसा गुरुदेव ने जीया था।"
"परंतु हम सान्निध्य की इच्छा रखते हैं। जिनकल्पी तो निरालंबन होते हैं। उनको किसी की निश्रा या किसी सान्निध्य की आवश्यकता या इच्छा नहीं होती है। हम जिनकल्पी नहीं है, जिनकल्पी के जैसे हैं इसलिए हमें हमारी साधना को अखंडित रखने के लिए निश्रा भी चाहिए और आलंबन भी चाहिए।"
"गच्छ के साथ हम थे। हमारा ध्यान गच्छ पर नहीं, पर गुरुदेव पर था। उनको देखकर उनके जैसा जीवन जीते थे। पर वे अब नहीं होंगे, उन्होंने जीवनमुक्त होने का निर्णय कर लिया है, मुनिराय!” ऐसा कहते समय आर्य उत्तर की आवाज आर्द्र हो गई थी। उनका दुःख और उनके वचनों का भावार्थ भी समझ में आ गया था। तब सच में ही वे जिनकल्पी नहीं थे, जिनकल्पी जैसे ज़रूर थे।”
"इसीलिए ही हमने निर्णय किया है कि कुमारगिरी पर्वत पर जाकर जिनकल्पी की तरह रहें। वहाँ भगवान पार्श्वनाथ के समय से लेकर भगवान महावीर की परंपरा के अनेकानेक श्रमण आए हैं जो एकांत, अत्यंत उच्च और अप्रमत्त जीवन बिताते हैं। आज भी वहाँ पर वैसे मुनिवर विद्यमान हैं, जो जगत् से बेखबर हैं और अपने आप में लीन हुए है।"
"शायद ऐसे कोई मुनि वहाँ नहीं भी रहे हों, तो भी उन गुफागृहों में उनकी आराधना के परमाणु फैले हुए है। मुनिवर सुस्थित! वहाँ जाते ही कुंडलिनी ब्रह्मरंध्र को छू जाती है। वहाँ जाते ही अद्भुत आनंद के बोझ तले आ जाते हैं। वहाँ जाने के साथ ही एक खास विशिष्ट प्रकार के मोहकर्म के क्षयोपशम का अनुभव होता है। कुछ नहीं करने पर भी उन गुफाओं में फैली हुई लेश्या के प्रवाह से स्पर्श होकर हमारी आत्मा में निरंतर आनंद की धारा चलती रहती है। बस, वह आभामंडल, वे बिखरे हुए शुभ लेश्याओं के पुद्गल, वहाँ पर फैले हुए शुद्ध औदारिक और मनोवर्गणा के पुद्गल मन को स्फूर्ति से भर देते हैं। इसीलिए हम उस स्थल पर जाने के लिए कटिबद्ध हुए हैं।"
"आर्य! प्रारंभकाल में साधना को संभालना पड़ता है। बाद में परिपक्व हुई साधना विपरीत संयोगों में भी साधक को गिरने या चलित होने नहीं देती है। पर अभी तो हमारी साधना का प्रारंभकाल है। हमें साधना के इस बालपिंड को अनुकूल वातावरण देकर अभी उसे बड़ा करना है।"
"तब मैंने आर्यबल को हाथ जोड़ दिए। मैंने कहा, 'आपकी सोच महान है। आप महान हो। क्योंकि मनुष्य अपने विचारों से महान बनता है।"
"उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिए और कहा, आर्य सुस्थित! रास्ते बदल जाते हैं। रास्ते अलग हो जाते है। मतभेद तो है ही, हमारी दोनों विचारधाराओ के बीच पर फिर भी दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते है।”
"शायद, यह हमारे बीच का अन्तिम वार्तालाप होगा। जिनकल्पी की तुलना के दौरान मैं मौन ही रहना पसंद करूँगा और वैसे भी आप कलिंग आओगे तब... बाकी तो आप यहाँ बहुत ही जिम्मेदारियों में व्यस्त बन जाओगे। मैं समझ सकता हूँ। जिस तरह से मैंने मेरे गुरुदेव के जैसे जीना पसंद किया है, और कुमारगिरी के जंगलों को पसंद किया है, वैसे ही आप भी आपके गुरुदेव के अनुसार जीना पसंद करोगे और इसके लिए शायद पाटलिपुत्र या उज्जयिनी को आपके जीवनकार्य का केन्द्र बनाओगे।"
"पर आपसे प्रार्थना है। हम कुमारगिरी को छोड़े या ना छोड़े, पर कभी-कभी आप आपके क्षेत्र को छोड़कर उस तरफ आना। जहाँ महामुनि कलिंग के पर्वतो में कलिंगजिन के सान्निध्य में वीरान जंगल में जगत् से विमुख होकर अप्रमत्त साधना में मग्न रहते हैं।"
"और उनको मैंने वचन दिया है कि संभव होगा तो गुरुदेव की अनुज्ञा लेकर उस तरफ आने का जरूर सोचूँगा। और अभी उस वचन की पूर्ति होने जा रही है। महागिरीजी आर्य के कालधर्म को 40 वर्ष बीत जाने के बाद आर्य उत्तर को मिलने जाने वाले हैं हम। अब परिपक्व और महा मेधावी आर्य उत्तर के दर्शन होंगे।"
"पर मैंने तो आर्य बलिस्सहजी का नाम ही सुना है। आर्य उत्तर का तो पता ही नहीं है। ऐसा क्यों? बलिस्सहजी क्यों ज्यादा विख्यात हो गए हैं?” बालमुनि जो उम्र के प्रमाण से अधिक ज्ञानी, शांत और परिपक्व थे, उन्होंने कहा और आर्यसुस्थितजी ने आर्य सुप्रतिबद्धजी की और ईशारा किया। आर्य सुप्रतिबद्ध ने बात का दौर आगे बढ़ाया।
"आर्य बलिस्सहजी आर्य महागिरीजी की संतान को आगे बढ़ाने वाले समर्थ शासक हैं। ऐसी भविष्यवाणी स्वयं महागिरीजी आर्य ने की थी। इस संदर्भ में बलिस्सहजी आर्य मात्र साधक ही नहीं है, किंतु अपने आश्रय में रहे हुए साधकों की साधना के संवाहक भी है। वे एकांत से केवल खुद का ही नहीं, पर अन्य साधकों का भी योगक्षेम और हिताहित सोचते हैं।"
"आर्य उत्तर के पास जीवन का एकमात्र अनन्य लक्ष्य है- कर्मनिर्जरा और आत्मविशुद्धि। उनको मात्र आत्मस्वरूप में मग्न होकर जीना है। उसके अतिरिक्त की कोई भी जंजाल उन्होंने पाल ही नहीं है। फिर चाहे वह भले ही कितना भी अच्छा हो; क्योंकि आत्मव्युत्थान उनके लिए मृत्यु समान है। आत्मलीनता ही उनका जीवन है।"
"जबकि आर्य बलिस्सह के पास जीने के बहुत आयामी लक्ष्य हैं। उनके पास अनेक उद्देश्य थे। उनको आत्मलीन तो रहना ही है। परंतु खुद को गुरु-मार्गदर्शक मानने वाले साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओं का कल्याण भी करना है। उनको निरंतर मार्ग भी दिखाते रहना है।"
"और उनके पास सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है-आर्य भद्रबाहुस्वामीजी। आर्य स्थूलभद्र और आर्य महागिरीजी के द्वारा मिली हुई श्रुत की धारा और परंपरा को जीवंत रखना। उसका स्वाध्याय करते रहना और करवाते रहना, अखंड दसपूर्वी को जीवंत रखना।"
"आर्य बलिस्सह के पास दसपूर्वी का गूढ़-गंभीर और रहस्यमयज्ञान आज भी सुरक्षित रहा है। वे जो जानते हैं, जो अर्थाम्नायें और तत्त्वैक्षिकाओं में उनकी महारत है, उनकी महारत आज किसी के भी पास हो, ऐसा मेरे ध्यान में नहीं है। गुरुदेव समस्त संघ में समस्त जनसमूह में युगप्रधान हैं, तो बलिस्सहजी वर्तमान श्रुतसमुद्र के पारगामी हैं। वे श्रुतनिष्णात हैं और श्रुत की दृष्टि से युगप्रधानत्व को अर्जित कर चुके है।”
"वे बहुधा जिनकल्पी की तुलना करते हुए रहते है। परंतु उस दौरान वे श्रुत का पारायण और श्रुत का पठन करना नहीं चूकते हैं। इन दोनों को निरंतर धारण करते रहते हैं। उनकी आराधना करते हैं। उन्होंने पिछले 40 वर्षों में अपने समकक्ष पाँच प्रधान साधुओं को तैयार किया है। स्वयं को आर्य महागिरीजी के द्वारा प्राप्त जो समस्त श्रुत था उनको संक्रांत करके आर्य बलिस्सहजी ने शकवर्ती कार्य को संपन्न किया है।"
"आर्य उत्तर भी स्वयं अपना समय श्रुत के पुनरावर्तन और निदिध्यासन में व्यतीत करते हैं। पर वह तो मात्र आत्मसाधना और आत्म संलीनता के सहायक बाह्य आलंबन स्वरुप से। उसके सिवा उनको कुछ भी काम नहीं है। उनके लिए महत्त्वपूर्ण एक मात्र स्व की आत्मा है और बाकी पूरा जगत् मिथ्या है। परंतु उनके सामने आर्य बलिस्सहजी जब पुनरावर्तन-पठन-चिंतन आदि में समय बिताते है। तब भी आत्मलीनता का लक्ष्य तो होता ही है। साथ ही साथ श्रुत की अविच्छिन्नता का भी उद्देश्य होता है। स्वोपकार की सिद्धि तो करनी ही है और साथ-साथ परोपकार का अर्जन भी करना है और जिनप्रवचन की भावपूजा भी करनी है।"
"अभी वे जिनकल्पी की तुलना में आरूढ़ हैं। परंतु, उनकी साधना कभी-भी परोपकार के मार्ग पर आगे बढ़ सकती है। हम जिस प्रयोजन से कलिंग जा रहे हैं, उसकी पूर्ति में हमें आर्य उत्तर से भी आर्य बलिस्सह की अधिक ज़रूरत पड़ने वाली है। आर्य उत्तर तो जगत् के लिए खास उपयोगी नहीं होने वाले हैं। इस जगत को काम पड़ेगा आर्य बलिस्सह का। इसीलिए बलिस्सहजी आर्य विशेष ख्यातनाम हुए हैं। जगत् तो अपना काम जिससे होता हो उसी के नामों को याद रखता है।"
"परंतु आर्य! आपने जिस मार्ग को पसंद किया है कलिंग पहुँचने का, वह तो बहुत ही कठिन, दुर्गम, आटविक मार्ग है। वहाँ जाते हुए बीच में घनी अटवी आती है। जो वास्तव में दुर्ल्लंघ्य है। आपने ऐसा मार्ग क्यों पसंद किया?" इतनी पूरी चर्चा में वह मुनिवर मात्र दूसरी ही बार बोले थे।परंतु दोनों बार अति महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर उन्होंने बोला था।
इस प्रश्न का जवाब देने के बदले दोनों मुनिवर स्थिर, गंभीर होकर एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों के बीच आँखों से कुछ ईशारा हुआ। हाँ-ना की लेन-देन हो गई। आखिर में आर्य सुस्थित ने कहा, "यह सब आपको वहाँ जाने के बाद ही पता चलेगा।"
"पर फिर भी आपकी जिज्ञासा का मान रखने के लिए मुझे इतना ही कहना है कि हम स्थविर हैं। समाज के धार्मिक जीवों का योगक्षेम करना और उनके हित को देखना यह हमारा कर्तव्य है और हम आटविक क्षेत्र में से इसलिए गुजरकर जाने वाले हैं, क्योंकि वहाँ एक धार्मिक जीव है, उनके हिताहित की जिम्मेदारी हमारी है। वह हमें अपने आत्महित के मार्गदर्शक-गुरु मानता है। उनसे मिलने जाना है हमें।" आर्य सुप्रतिबद्ध ने कहा। तब उनकी नजरों के समक्ष आटविक साम्राज्य के महाप्रतिहार तोषालिपुत्र आचार्य की भव्य प्रतिमा खड़ी हो गई थी। “महाप्रभावक प्रतिमा है। उनसे सारे जिनशासन को बहुत ही लाभ होने वाला है। अब जब कलिंग जाना ही है, तब रास्ते में उस मार्ग को ही पसंद करते हैं। जिससे आटविक प्रजा के धर्म के संस्कार खूब गहरे बने और तोषालिपुत्र की विरागभावना मज़बूत बने।
(क्रमशः)
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