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उसके एक महीने के बाद आटविक साम्राज्य में एक भव्य सुशोभित और प्रमाण में सादगी भरी ऐसी एक कुटिर में एक तरफ सूर्य-चंद्र के समान आर्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबद्ध थे। जिनके पीछे बाकी पाँच मुनिवर बैठे थे। जैसे कि सात श्रेष्ठ ग्रह... तो दूसरी तरफ आकाश जैसी असीमता और वर्षऋतु के बादल जैसी श्रद्धा के अमृत जल से भरे-भरे आचार्य तोषालिपुत्र विनयावत भाव से बैठे थे। उस महान आकृति को ऐसे विनयावत भाव से बैठी हुई देखने के लिए ही कुटिर के बाहर चारों और भोली स्नेहार्द आटविक प्रजा का मेला ही लग गया था। अच्छे-अच्छे को झुका दे और कभी-भी किसी के भी सामने नहीं झुके वैसे इस तोषालिपुत्र आचार्य इस अकिंचन श्रमण के समक्ष विनयावनत होकर बैठे थे। ऐसा क्यों? ऐसा कौन-सा तत्त्व था इन श्रमणों में कि जो ऐसे शूरवीर को भी झुकने के लिए प्रेरित करता है?
"बहुत सालों पूर्व की बात है - आचार्य तोषालिपुत्र! आप जब अवंती की रथयात्रा में आपके बुजुर्ग के साथ आए थे, तब पहली बार आपका गुरुदेव के साथ परिचय हुआ था और फिर तो आपने गुरुदेव के साथ रहने की ज़िद्द पकड़ी थी। संयोग अनुकूल नहीं थे और आपके बड़े आपको ले गए थे। यह सब आपके स्मरण में है?” आर्य सुस्थित ने कहा। वे एकदम हल्के मिज़ाज में थे। जैसे कि बरसों पुराने मित्र को मिल रहे हो, ऐसा उनका भाव था। बात शायद ऐसी ही थी।
"हाँ गुरुदेव! मुझे दो चीजें पसंद आ गयी थी तब। वह मेरे स्मृति पटल पर आज भी वैसी की वैसी ही जीवंत है। जिसे कभी-भी भूल नहीं सकेंगे, भूलना चाहेगे तो भी नहीं।"
"वे कौन-सी दो बातें थी? आर्य!” आर्य सुप्रतिबद्ध ने पूछा
"तोषालिपुत्र ने मुस्कुराकर प्रत्युत्तर दिया - एक तो..." "गुरुदेव आर्य सुहस्तिजी का वात्सल्य और दूसरा आर्यसुस्थितजी का सख्य।"
"सख्य? और वह भी आर्यसुस्थितजी का?” बालमुनि कुतूहलवश प्रश्न कर बैठे। उसके जवाब में सस्मितवदन से तोषालिपुत्र ने कहा - "आत्मा से आत्मा का मिलन। उसे ऋणानुबंध कहते हैं। उन दो सप्ताह के समय में आर्य सुस्थितजी और मेरे बीच अजब-सा ऋणानुबंध हो गया था। वे दिन तो सुनहरे दिन थे। उपाश्रय के एक कोने में दिन की कड़ी धूप में या रात का चाँद की रोशनी में हम बैठे रहते थे और बातें करते रहते थे। कितने ही क्षणों तक, पर ना जाने क्यों दिल ही नहीं भरता था। वह बातें क्या थी, यह तो याद नहीं आता आज, पर वह अनुभव आज भी वैसा ही है। सुस्थितजी क्या कहते हैं वह नहीं पता। पर मेरे लिए तो आज भी मेरे गुरु और आराध्य तो है ही और साथ-साथ मेरे सखा एवं मित्र भी है।"
"उस सख्य को सफल करो। आपके हाथों से जिनप्रवचन की बहुत सारी भव्य प्रभावना होने वाली है। पधारो। महाभिनिष्क्रमण करके स्व और पर का भव्यातिभव्य कल्याण करो। कल्याण के पथ पर पधारो।” आर्य सुप्रतिबद्ध ने कहा।
आर्य तोषालिपुत्र ने कहा “संयोगों की अनुकूलता नहीं है ऐसा यदि कहूँगा तो, वो एक बहाना ही माना जाएगा। जिम्मेदारियाँ बहुत है ऐसा कहूँगा तो, एक झूठा तर्क कहा जाएगा। इच्छा नहीं है ऐसा कहूँगा तो, वह मिथ्याभाषण कहलाएगा। इसलिए बराबर से क्या कहूँ वह समझ में नहीं आता है। लक्ष्य अभी कुछ अलग तय किया है मन में। फिलहाल उसी के ऊपर ध्यान दे रहा हूँ और उसी में ही व्यस्त हो गया हूँ।”
"यदि आपको महान बनना है, तो लक्ष्य भी महान रखना पड़ेगा, यह समझ लेना।” आर्य सुस्थितजी ने कहा।
"महान हो या नहीं। यह तो मेरी अल्पमति से मैं नहीं जानता हूँ। परन्तु पिछले दो दशक से में दिन और रात इसी लक्ष्य के साथ जीया हूँ। वह लक्ष्य मेरे आरपार उतर गया है। वह लक्ष्य यानि कलिंगजिन को कुमारगिरी पर्वत पर पुनः विराजमान करने का लक्ष्य। मैं उसी के लिए ही इस संसार में जी रहा हूँ। बाकी संसार में रहने का मुझे कोई शौक नहीं रहा है। अन्य कोई प्रयोजन भी नही है। जल्द से जल्द बस कलिंगजिन कुमारगिरी पर्वत पर पधारे। उस श्वेत-धवल प्रासाद में विराजित हो जाए, उनकी प्रतिष्ठा उमंग-उल्लास से हो जाये। उस मंदिर में जब तक परमात्मा कलिंगजिन नहीं पधारेंगे, तब तक मैंने वहाँ पर पैर भी नहीं रखने का संकल्प किया है।”
"बहुत सालों की तपस्या के बाद अब मेरी यह भावना सफल होने का अंदेशा नजर आ रहा है। कलिंग की राजगद्दी पर कोई ऐसा सपूत आनेवाला है, जो कलिंग का छीना गया गौरव उसे पुनः प्राप्त कराएगा। ऐसा एक विश्वास बैठ गया है कुमार खारवेल पर। कि वो कलिंग को- हारे हुए-थके हुए, निराश, उदास और त्रस्त कलिंग को फिर से खड़ा कर देगा।"
"पर आर्य! मैं खुद मेरी ऐसी प्रतिज्ञा की कैद में बँध गया हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि, अब सामने चलकर वहीं पर कैसे जाऊँ? और उसके बिना मुझे कलिंग के तारणहार को मिलने की कोई निशानी नजर नहीं आती है। मुझे क्या करना चाहिए यह समझ नहीं आ रहा है।”
उस कुटिर के अंदर कुछ क्षण तक गंभीर मौन छाया रहा। बाहर के हो या अंदर के, हर किसी की नज़र अपने समर्थ अधिपति आचार्य तोषालिपुत्र पर टिकी हुई थी तो दूसरी तरफ आचार्य तोषालिपुत्र आर्य सुस्थितजी को अपलक देख रहे थे। उनकी तरफ से कुछ मार्गदर्शन मिल जाए ऐसी झंखना कर रहे थे और आर्य सुस्थितजी अपने आप के साथ गुफ्तगू कर रहे थे। सब कुछ जानने पर भी बोलने में संयम रखना - यह सबसे बड़ी कसौटी साबित होती है। आर्य सुस्थितजी ने आर्य सुप्रतिबद्धजी के सन्मुख देखा और दोनों की आँखों ने आपस में बातचीत कर ली। दोनों ने एक-दूसरे को जरा-सा मस्तक झुकाकर आँखें मूँदकर नमस्कार किया और फिर आर्य सुस्थितजी ने कहा।
"ये सारी बातें सर्वथा सांसारिक कही जाती हैं। हमें उस विषय में कुछ भी कहने की अनुमति नहीं है। पर फिर भी आप अत्यंत व्यथित लग रहे हो। इतनी अधिक चिंता और इतना असमाधान आपके जैसे उदारमन वाले, सर्वत्यागोन्मुख महाशय को शोभा नहीं देता है। क्यों हमें ऐसे मिथ्या विचारों में फँसना चाहिए? क्यों व्यर्थ नियंत्रण और नियमों में खोना चाहिए? नियम और प्रतिज्ञाएँ समाधि और सत्व के संरक्षण के लिए होते हैं। यह यदि जड़ता का कारण बन जाए तो वह सब व्यर्थ है। दृढता में धर्म है और जड़ता में अधर्म है। प्रतिज्ञा जब निरर्थक लग रही हो, तब उसका बोझ उठाने में व्यर्थ ही शक्ति का व्यय करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा काम कोई भी समझदार व्यक्ति नहीं करता। इसलिए आग्रह, अहंकार और अकड़ता को छोड़कर नम्र बनने में ही विघ्नों में विजय होती है और सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसलिए मन को आग्रह मुक्त करके सोचो तो अंधेरा हटेगा और उजियारा प्रकट होगा। आपकी अंतरात्मा ही आपको आपके लिए योग्य मार्ग दिखाएगी। धर्मलाभ हो आपको।”
इतना कहकर आर्य सुस्थितजी और सुप्रतिबद्धजी खड़े हो गए। उनके पीछे समग्र साधुगण खड़ा हो गया। उनके पीछे समग्र प्रजाजन खड़े हो गए।
"इतनी जल्दी कहाँ पधार रहे हो मुनिराज! मेरे आँगन में आए हो। कृपा करके सामने से पधारे हो तो कुछ समय तो रुक जाओ। क्षणिक उपदेश से ही मेरे भीतर उजियारा कर दिया है आपने। थोड़ा और रुककर मेरा आत्मोद्धार करो पूज्य!” आचार्य तोषालिपुत्र भावुकतापूर्वक बोल रहे थे। समस्त प्रजा इस स्वरूप को प्रथम बार साक्षात्कार कर रही थी। आचार्य का यह स्वरूप! इतने नम्र, इतना भक्तिभरा हृदय, इतना भाव-गद्गद! उनको तो जो देखा था वो हमेशा - गंभीर, स्थिर, अचल और पत्थर की तरह सपाट थे।
"हमारे पास हमारा बहुत महत्वपूर्ण लक्ष्य है आचार्य?" सुस्थितजी बोले। "उसके लिए बारिश के पहले कुमारागिरी पहुँचना बहुत जरुरी है।"
"वैसे तो हमारे लिए यहाँ आने पर मार्ग थोड़ा लंबा हो जाता था। पर आपका भाव और स्नेह हमें यहाँ खींच लाया। भले ही आप हमारा ध्यान नहीं रखो, पर हमें तो जिनके साथ ऋणानुबंध होता है, उन सभी का ध्यान रखना ही चाहिए ना?"
"ध्यान नहीं रख सकता पूज्य! पर ऐसी एक क्षण भी नहीं गई होगी कि जब मैंने आपका ध्यान नहीं किया हो। प्रत्येक पल आप मेरे ध्यान में और स्मरण में ही रहते हो और यह भी अविरत मेरे लक्ष्य में रहता है कि, मुझे इन सभी से मुक्त होना है। आपके साथ आपकी तरह जीना है।”
"अस्तु! आप बहुत सारी जिम्मेदारियों में उलझे हुए हो। पर इतना स्मरण रहे कि अभी जितना आगे-आगे बढ़ते और खींचते चले जा रहे हो, उतना ही वापिस भी आना है। कर सकोगे आप? तोषालिपुत्र!"
"पूज्य!” आचार्य ने हाथ जोड़े। "मेरे चारों तरफ जिम्मेदारियों का जाला धीरे-धीरे घना होता जा रहा है, पर मुझे, आचार्य तोषालिपुत्र को इतना विश्वास है कि, पूज्यों की कृपा से उस जाले को एक झटके में भेदकर आरपार निकल जाऊँगा!"
“बहुत सुंदर! आपसे इसी प्रत्युत्तर की अपेक्षा थी। अंत में दो ही शुभाशंसन आपको आशिष के रूप में देना चाहते हैं। आपका यह विश्वास अटूट रहे, और आपकी जिंदगी में जल्द से जल्द उस दिन का अवतरण हो, जो आपके उत्थान का कारण बने।"
“बहुत - बहुत अनुगृहीत हो गया आर्य! बस, ऐसे ही मुझ पर आपका अकारण वात्सल्य बरसता रहे और मुझे उसकी तृषा एक समान यावज्जीवन रहे,।”
"अब आपके दर्शन कब होंगे?"
"हमारा वर्षा मुकाम इस बार कुमारीगिरी पर्वत पर होने की संभावना है।"
"अत्युत्तम! तो तो आप बाजू में ही है महामुनि! इस बार तो आपको मिलने आता ही रहूँगा। इतने वर्षों से दूर रहा हूँ आपसे, अब नहीं रहूँगा। इतने सालों की कमी को पूरा कर दिखाऊँगा।” इतना कहा आचार्य तोषालिपुत्र ने। जवाब में आर्य सुस्थितजी ने कुछ नहीं कहा। भक्तिप्रेमी दिल की आरझू को वे जानते थे। पर वास्तविकता कुछ और ही होने वाली थी, उसका भी उन्हें पता था।
और वे सात साधुभगवंत कुमारगिरी पर्वत के मार्ग पर चलने के लिये अग्रसर हुए। उनको विदा करके वापस आए हुए आचार्य तोषालि ने पुनः जो वार्तालाप हुआ था, उसका मनन किया और मनन चिंतन करते-करते उसमें से एक सुंदर अर्क हाथ लग गया। उनको गुरु का ईशारा समझ में आ गया। उन्होंने कामरू और किंकिणी को तात्कालिक बुलाया, और कहा –
"आप दोनों को मेरी जगह संभालना है, जब तक मैं वापस नहीं आता हूँ तब तक।" वे तुरंत खड़े हो गए। झोला कंधे पर लटकाया और चलने को तैयार हो गए। मन में भारी जिज्ञासा होने पर भी कामरू या किंकिणी दोनों में से कोई भी उनको कुछ ना पूछ सके। पर सद्भाग्य से उन्होंने ही सामने से कहा- "मेरी प्रतिज्ञा का अग्निसंस्कार करने जा रहा हूँ। कुमारगिरी पर्वत से महाराजकुमार खारवेल को हमारी आटविक प्रजा के बीच लाने जाता हूँ। पता नहीं कितना समय लगेगा। पर अवसर है तो उसे साध लेना है। फिर बाद में पश्चाताप तो नहीं होगा ना! इतना तो संतोष रहेगा ना कि जब अवसर आया तब मरी हुई प्रतिज्ञा के शरीर को धारण किए हुए आखरी अवसर को भी जाने दिया... " आधा वे अपने दोनों बालकों को उद्देशकर बोले और आधा अपने आपको उद्देशकर बोले, और फिर वे चल पड़े। खट् खटाक खट् खटाक उनकी पादुका का ध्वनि सुनाई देना बंद हो गई तब किंकिणी कामरू से लिपट गई और कामरु ने भी किंकीणी को पकड़ लिया। दोनों एक-दूसरे के स्पर्श में आधार को ढूँढ रहे थे। दोनों के मन अकथ्य बोझ के तलें डूबे हुए रहे...
और उसके बाद कुमारगिरी पर्वत पर कलिंगजिन के ध्वस्त जिनालय की बाजू की उस पर्वतीय गुफा में आचार्य तोषालिपुत्र - सेनापति पुत्र बप्पदेव और महाराज कुमार खारवेल के बीच क्या बातें हुई यह तो हमे पता ही है।
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