
जहाँ, जब, जितने अंश से प्रेमी दिल होते है, वहाँ, तब, उतने अंश में जीवन होता है। प्रेम जीवंतता को प्रदान करता है, बाकी सब मुर्दा होता है। ज्ञानी कहते हैं कि, खुद से प्रेम करो। भक्त कहते हैं कि, भगवान से प्रेम करो। शिष्य कहते हैं कि गुरु से प्रेम करो। पर बिना प्रेम के जीने को कोई कहता ही नहीं है और बिना प्रेम के जीवन भी तो नहीं है।
इस जंगल के प्रदेश में कामरू के साथ जब से किंकिणी का दिल जुड़ गया है, तब से इस प्रदेश ने रोज नये-नये जीवन के स्वरूपों को तादृश किया है। कभी सख्या, कभी सायुज्य, कभी क्रीड़ा, कभी हास्य का झरना, कभी मजाक, मसखरी... और हाँ, कभी-कभी झगड़ा भी था ही! बिना झगड़े के तो प्रेम की लता कभी-भी सुंदर-अतिसुंदर विकसित ही नहीं हो सकती है। जहाँ प्रेमाधिकार होता है, वहाँ झगड़े होना तो बहुत ही सहज है। संबंध है और कभी-भी झगड़े ही नहीं हो यह बात सूर्य जैसी है और प्रकाश नहीं है कि जैसी विरोधाभासी है।
अभी ही- अभी ही इस माधवी, मालिका, वासंतिका और कदली के इन छोटे-से वृक्षों और लताओं के बीच में इन दोनों प्रेमीयुगल के बीच में खराखरी का झगड़ा हो गया था। ऐसा शब्दयुद्ध हुआ था कि, जिसे देखकर बेचारी नाजूक कदली और माधविका काँप उठे थे। पर यह तो गुस्से का आवेग शीत होने के बाद फिर जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, ऐसे ये दोनों हाथ में हाथ मिलाकर निकुंज की चिकनी, भीनी, नरम मिट्टी पर पैर फैलाकर बैठ गए थे और फिर वापिस एक-दूसरे के सान्निध्य का आनंद लेने लग गए थे। और फिर हँस-हँसकर बातें करने लगे थे। यह देखकर कदली और केतकी भी प्रसन्न हो उठे थे। और वासंतिका, नवमालिका और केतकी भी हँसने लगे थे और उनके हास्य में अपना सुर पूरा रहे थे। इसके कारण से उन वृक्षों पर खिले हुए फूलों की उन दोनों पर बरसात बरसी थी। जैसे कि प्रकृत्ति ने इस प्रेमीयुगल के प्रेम को आशीर्वाद से सराहा था। अपने हाथों को फूलों से भर-भरकर दोनों ने एक-दूसरे के मस्तक पर गिराया था।
इन दोनों के विश्व में मात्र वे दो ही जन थे और इसीलिए ही उन्होंने एक-दूसरे को कभी नहीं कहा है कि- "तू मेरा ही है।” या “तू मेरी ही है।” बिना कुछ कहे ही वे समझते थे कि उनकों एक-दूसरे के बिना चलने वाला ही नहीं है। चाहे झगड़ा करना हो, चाहे प्रेम करना हो, कामरू को किंकिणी चाहिए और किंकिणी को कामरू...
आटविक समुदाय के रीतरिवाजों के अनुसार हर एक युवा और युवती अपने जीवनसाथी को खोजने के विषय में स्वतंत्र थे और दोनों की संमति से जब प्रेमसंबंध हो जाए तब कोई किसी को अटकाता नहीं था। वर्ना तो किंकिणी के पीछे ना जाने कितने ही युवा भँवरे की तरह उसके आगे-पीछे घूमते रहते थे। पर जब घोषित कर दिया गया कि, किंकिणी और कामरू एक-दूसरे को पसंद कर चुके हैं, तब इस बात का स्वीकार समस्त प्रजा ने कर लिया था। फिर किसी ने भी उनकी बातों में या संबंध में दखल करके उनके संबंध में विघ्न डालने का काम नहीं किया था। इतनी समझदारी थी आटविक समुदाय में।
और आचार्य तोषालिपुत्र! वे इन दोनों के बीच के खिलते हुए प्रेम के वृक्ष को दूर से बैठे-बैठे देखते रहते थे। वे इनका विरोध नहीं करते थे। उनकी उपेक्षा करते रहते थे। वे दोनों झगड़े तो झगड़ने देते थे और रोए तो रोने देते थे। आचार्य समझते थे कि दोनों का प्यार और आवेग एक-दूसरे पर निकाला जा रहा हैं। और ये दोनों एक-दूसरे को समझते हैं और समझा भी देते हैं।
यधपि आचार्य ऐसा जानते थे कि यह तो मात्र प्रेम-प्रेम का खेल, खेल रहे हैं। ये दोनों प्रेम के तत्त्व को समझने जितने अभी परिपक्व नहीं हुए थे। प्रेम तो बहुत गहरा और मार्मिक होता है। पर कोई नहीं, अभी क्रीड़ा ही कर लेने दो। ऐसा करते-करते समझ जाएँगे कि, सच्चा प्रेम किसे कहते हैं?
प्रेम की क्रीड़ा का अविभाज्य साधन था - झगड़ा। इसीलिए ही ये दोनों झगड़ते रहते थे। ऐसे झगड़ते थे कि, जिंदगीभर एक-दूसरे का मुँह नहीं देखने की कसम खाते थे और फिर कुछ ही देर में आवेश शांत हो जाता था, तो खाली-खाली लगता था दोनों को और समझ में आ जाता था कि, उसके बिना मजा नहीं आता है और प्रत्येक झगड़े के बाद दोनों एक-दूसरे के और निकट आ जाते थे। ये झगड़े उनके प्रेम की गाँठ को और मजबूत कर देते थे।
अभी ही जब पिछला झगड़ा हुआ था, तब आकाश में पूनम का चाँद उगा था और इस वन निकुंज में यह प्रेमीयुगल कुछ बातें करने आया था। और उसने किंकिणी को कहा था कि,
"पिछले एक महीने से सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया है। सब कुछ उलट-पुलट हो गया। यह तेरे कारण..."
"मेरे कारण से क्या हुआ हैं?” किंकिणी ने भी ललकारा। उसे सुनकर कामरू का अहं और भड़का।
"तेरे ही कारण से मैं कौमुदी में कलिंग गया। यदि तूने इस बात की ज़िद नहीं पकड़ी होती तो अभी जीवन में शांति होती थी।"
"शांति?" किंकिणी लड़ने के मूड में थी। “शांति तो भाई साहब को चाहिए ही नहीं होती हैं। मैंने कहा था ना कि मेरा हाथ मत छोड़ना। क्यों छोड़ा मेरा हाथ, और लंगूर की तरह कूदकर खंभे पर चढ़ गया और फिर बड़ी क्रांति करनी हो ऐसे-वैसे बकवास करने लगा। तो अशांति तो तूने खड़ी कर दी है।"
"वाह-वाह! तू तो जैसे भोली और सियानी! इन सभी का मूल कारण तू ही है। पिछले पंद्रह दिन से आचार्य गए हैं और अभी तक वापिस नहीं आए। क्या करते होंगे वे? हम कलिंग ही नहीं गए होते तो, उनको रोक सकते थे। पर जहाँ हमने ही तेरे कारण प्रतिज्ञा तोड़ दी, तो उनको क्या कहेंगे?"
"तो तुझे किसने कहा था मेरे साथ आने को? मैं दूसरा साथ ढूँढ लेती। ऐसे नाटक करना था, तो आने की कोई जरूरत ही नहीं थी। मेले में मजा तो करने को मिला नहीं और भागदौड़ मच गई सो अलग।”
"तो ढूँढ लेना दूसरा साथ! मेरे पीछे क्यों पड़ी है?”
"ओ भाई! मैं तेरे पीछे नहीं पड़ी हूँ। तू मेरे पीछे पड़ा है, समझा ना। मुझे तेरी काई गरज नहीं है।”
"तो मुझे भी तेरी गरज नहीं है। जा! तेरे साथ अब बात करे वो दूजा! जहाँ जाना हो, वहाँ जा!"
"मैं तो जहाँ हूँ वहाँ ही हूँ। तुझे जहाँ जाना हो वहाँ जा।” उनका झगड़ा हो गया और दोनों ने एक-दूसरे को वहाँ से जाने को कह दिया और दोनों ने मुँह फेर लिया। पर दोनों में से कोई भी वहाँ से हटा नहीं। और फिर आकाश से चंद्र चांदनी बरसा रहा था, और दोनों को मना रहा था, ठंड़ा कर रहा था। जब थोड़ी ठंड हो गई तब दोनों वापिस बातें करने लगे और एक-दूसरे के सर में सर डालकर हँसने लगे। बराबर उसी तरह से, जैसे चंपा और चमेली एक-दूसरे से लिपट जाते हैं और हास्य के फूल बिखेरते हैं।”
ये ऋणानुबंध भी गजब की चीज है। कौन कामरू और कौन किंकिणी! किसे खबर दोनों कहाँ से आए? पर अभी तो ऐसा लग रहा था कि जैसे दोनों एक-दूसरे को कई समय से पहचानते हों, शायद बहुत सारे भावों से!
इस प्रेमीयुगल की क्रीड़ा को देखकर आटविक समूह को भी उल्लास उभरता था और जीवन में आनंद अवतरित होता था। यद्यपि अभी तक प्रेम में मात्र निर्दोषता थी। पर अभी-अभी प्रेम के साथ कुछ ऐसा तत्त्व भी शामिल हो गया था, जो जला रहा था। कामरू किंकिणी के सौंदर्यमय अंगो को कुछ अलग ही प्रकार से देखते रहता था और किंकिणी कभी-कभी शरमाकर भाग जाती थी। तो कभी-कभी कामरू का सर दोनों हाथों से पकड़कर उस भाग में छुपा देती थी, जिसे कामरू निरंतर अतृप्ति से देखते रहता था। फिर कामरू के कान में धीरे से काँपते हुए आवाज में कहती थी -"किंकिणी तेरी ही है कामरू! संपूर्णतः तेरी..." पर मन बेकाबू हो जाए उसके पहले ही कामरू अलग हो जाता था।
आज भी झगड़ा खतम हुआ और चाँदनी के प्रकाश में किंकिणी के बदन का अणु-अणु सौंदर्य से महक उठा था। तब अकथ्य आवेग के तले कामरू ने किंकीणी के उभरे हुए वक्षःस्थल पर हाथ रख दिया और किंकिणी पूर्ण संतोष के साथ उसकी छाती में आंखे मूंदकर पड़ी रही। अचानक ही आवेश शांत हो गया और कामरु ने एक झटके के साथ हाथ उठा लिया। भले ही किंकिणी की संमति हो, पर उसका मन उसे ईजाजत नहीं देता था और वह सच में विक्षिप्त था। क्यों बार-बार ऐसा आवेग उछल जाता है? यह अच्छा नहीं है।
दूसरी तरफ किंकिणी, वह स्त्री दोनों तरह से तैयार थी। वह समर्पण की प्रतिमा इतना ही जानती थी कि मेरा प्रियतम जैसा मन चाहे वैसा करे। उसकी प्रसन्नता ही मेरा कर्तव्य।
इस प्रकार आचार्य की भावना सफल हो रही थी। पुरुष प्रेम करते-करते मर्यादा सीख रहा था और स्त्री समर्पण के पाठ पढ़ रही थी। धीरे-धीरे दोनों बड़े होते जा रहे थे। और उनका प्रेम भी बड़ा हो रहा था।
(क्रमशः)
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