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महानायक खारवेल Ep. 27

Updated: Mar 31



अपने गुप्त खंड में जब वृद्धराज पिताश्री क्षेमराज के आदमकद चित्र के सन्मुख खड़े-खड़े किसी गंभीर विचारधारा में डूबे हुए थे। तब ढ़लती दोपहर में सूरज की तिरछी किरणों ने उस खंड के दरवाजे के भीतर प्रवेश कर दिया था। तब उस प्रकाश के पुंज में एक मानवाकृति ने भीतर प्रवेश किया। वह वृद्धराज का प्रियपुत्र खारवेल था।

 

"भीतर प्रवेश की अनुमति है पिताश्री!” खारवेल ने अनुमति माँगी। उसके जवाब में महाराज वृद्धराय ने मस्तक झुकाया और उनके सन्मुख होकर बोले- "आओ महाराज कुमार खारवेल! आपका स्वागत है।"

 

खारवेल स्तब्ध हो गया। "पिताजी।" वृद्धराज की धारणा के अनुसार ही प्रतिभाव आया। "आप मुझे ऐसा मत कहिए। आप मुझे मात्र खारवेल कहिए, आपका खारवेल, आपका पुत्र।” खारवेल ने अंदर आते हुए कहा।

 

"पुत्र किसे कहते हैं वह सुन लो।” खारवेल पिता के पैर छूने जा रहा था तभी ही वृद्धराज ने रोक दिया।

 

"पिता के पिंड से जिसका पिंड बना हो, वह मात्र शारीरिक संतान है। पर पिता के विचारपिंड से जिसकी विचारधारा का जन्म हुआ हो, वह मानसपुत्र है। खारवेल! तू मेरा पुत्र है, पर... एक समान विचारधारा नहीं है हमारी। राजा के विचार अलग चल रहे हैं और राजकुमार के विचार अलग चल रहे हैं। तू महाराजकुमार है, और तुझे तेरी तरह से सोचने का हक है। यदि मेरा पुत्र होता तो... तुझे स्वतंत्रता से विचार करने का, पिता से अलग सोचने का कोई अधिकार मिलता? सोच इस विषय पर। कलिंग की नीति क्या कहती है? आटविकों का तो जंगल शासन है। उनकी तरह से मत सोचना। प्रगत और संस्कृत ऐसी कलिंग की समाजनीति के अनुसार तू विचार करना।”

 

पिता पुत्र की परीक्षा ले रहे थे। या ऐसा कहो कि आखिरी दाँव खेल रहे थे। यदि खारवेल ही जाने के लिए तैयार नहीं हो तो आचार्य की सभी योजना ऐसे ही धराशायी हो जानेवाली थी और आचार्य यह बात जान चुके थे। इसलिए उन्होंने खारवेल को पहले से ही आगामी तूफ़ान के सामने सावधान कर दिया था। आश्चर्य का आश्चर्य तो यह था कि जब खारवेल आने के लिए निकला था तब उसे महासेनापति वप्रदेव भी व्यक्तिगत रूप से मिले थे। और उसे कहा था कि “कलिंग पुनरुत्थान माँगता है। राजा को मनाने की जिम्मेदारी आपकी है और मैं भी आपके और आचार्य के साथ हूँ।"  इस घटना को खारवेल ने शगुन का मंगल समझा था। उसने अपनी बात पर अड़िग रहने का दृढ़ निश्चय कर लिया था।

 

पर आश्चर्य, यहाँ पिताजी के समक्ष जब वह खड़ा था, तब उसे अपना संकल्प टूटता हुआ नजर आ रहा था। पंद्रह वर्ष की उम्र थी उसकी। जिंद‌गी में अपने पिता से बड़ा कोई व्यक्ति नहीं है, ऐसा ही उसके मन में आज तक स्थिर हो गया था। पिता के संस्कारों का, उनके मन और विचारों का उल्लंघन नहीं कर सकूँगा ऐसा उसको पूरा यकीन था और उस श्रद्धा से बँधी हुई गाँठ उसे रोक रही थी। तर्क तो बहुत थे, तैयारी पूरी थी, पर कुछ ऐसा था कि, जो उसे रोक रहा था पिता से विरुद्ध जाने के लिए... पूरी दुनिया के सामने लड़ सकता था, पर पिता के सामने... नहीं, नहीं...। यह संभव नहीं था खारवेल के लिए...।

 

“पिताजी! आपकी इच्छा नहीं होगी तो नहीं जाऊँगा आटविकों के पास” खारवेल ने नमन किया और कहा- “पर मन में एक ईच्छा रह जाएगी महाराज! आटविकों की सभ्यता को मुझे नज़दीक से अनुभव करना था। अब यह प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकूँगा।”

 

“बस, इतना ही प्रयोजन है? अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, वहाँ जाने का?” पिता एक पुत्र के सामने तीक्ष्ण नज़रों से देखते रहे। पुत्र को ताकते रहे।

 

“फिलहाल तो मेरे पास इसके सिवा कोई भी प्रयोजन नहीं है। पर पिताजी! आप क्या मानते हो? आपके मुताबिक और कौनसा प्रयोजन होना चाहिए?”

 

“चालाकी बंद कर।” वृद्धराय एकाएक राजा से पिता बन गए। “तेरी दलीलों और तर्कों के जाल में मुझे फँसा नहीं सकेगा! तुझे जाना हो तो जा। पर याद रखना, पूरी ज़िंदगी में आज मुझे एक संतोष है कि, मैं मेरे पिता की आज्ञा के, उनके विचारों के प्रति वफादार रहा हूँ। तुझे लगता है कि तुझे ऐसा संतोष मिल पाएगा? गहराई से सोचना।”

 

“पिताजी!” खारवेल पिता महाराज के सामने उकड़ू बैठ गया। हाथ जोड़कर, सर उठाकर बोला – “पिता तो प्रथम गुरु कहलाते हैं, ऐसा कलिंग की नीति कहती है। आप मेरे गुरु हो, मेरा मार्गदर्शन करो।" इतना कहकर खारवेल रुका फिर और बोला - "पिताजी! मुझे बहुत व्याकुलता हो रही है। मेरे बड़ों का मन रखने जाता हूँ तो मेरी आत्मा को कुचलना पड़ता है और मेरे मन की बात बड़ों की अवमानना करके कैसे करूँ? इस प्रश्न का मुझे जवाब नहीं मिलता है। मुझे रात-रात भर नींद नहीं आती है।” खारवेल की आवाज अब आर्द्र हो गई थी। "मैं मेरे पिता की ईच्छा का अनादर करूँ? मैं मेरे धर्मगुरू आर्य बलिस्सहजी की अवज्ञा करूँ? मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है।"

 

"पर दोनों में से कोई भी मानने को तैयार नहीं है। ना ही मेरे बड़े मान रहे हैं और ना ही मेरा मन मानता है। मेरा मार्गदर्शन कीजिए पिताजी! मैं क्या करूँ?" खारवेल की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।

 

बराबर इसी समय पर बप्पदेव भी महाराजा के कक्ष में प्रवेश करने के लिए दरवाजे पर खड़ा था। वह अनुज्ञा माँगने ही जा रहा था कि उसने कक्ष के भीतर का जो दृश्य देखा, उसे देखकर वह स्तब्ध हो गया। वह चौखठ पकड़कर खड़ा हो गया। खारवेल की आँखों से बहते हुए आँसूओं ने उसके मन को पिघला दिया। उसका कंठ अवरुद्ध हो गया।

 

भले ही वृद्धराय पुरुष थे और पाषाणहृदयी (पत्थर दिल) थे। पर फिर भी आखिर तो वे पिता ही थे। उन्होंने दोनों हाथों से खारवेल के कंधे पकड़कर खड़ा किया। दरवाजे की ओर ध्यान जाने पर बप्पदेव को देखा। उन्होंने उसका भी स्वागत किया। फिर कहा- "आओ, आप दोनों आसन ग्रहण करो। मुझे आप लोगों के साथ खुले दिल से बात करनी है।"

 

महाराजा ने सिंहासन ग्रहण किया और उनके सामने दोनों किशोर बैठ गए। तब गंभीरतापूर्वक पिता महाराजा ने बात कहना शुरू किया।

 

"खारवेल और बप्पदेव! मैं दोनों को मेरी ही संतान रूप मानता हूँ। आपको मेरा बेटा ही मानता हूँ। आप मुझमें विश्वास रखना। पिता कभी-भी अपनी संतान को दुःखी नहीं करना चाहता है। वह तो संतान के दुःख को अपने सर लेकर भी, संतान को सुखी करने की इच्छा रखता है।"

 

"आप जिस रास्ते पर जाना चाहते हो, वह रास्ता बहुत ही संघर्ष और दुःखों से भरा हुआ है। मैं आपको उस मार्ग पर कैसे जाने दूँ?"

 

बप्पदेव ने कहा- “तातश्री! हमें संपूर्णतया मालूम है कि वह रास्ता बहुत ही भयंकर है और उसके लिए हमारी मानसिक तैयारी भी पूरी है।"

 

"पर क्या जरूरत है इस तरह मर मिटने की? क्या पाओगे आप? आपके भावों का क्या? आपके परभव का क्या? जैन तत्त्वज्ञान को समझा है, तो यह विचारो कि मेरी आत्मा पराधीन है और मुझे उसे जीतना है। यह सब जीतकर क्या करना है? कलिंगजिन को मंदिर में नहीं, हृदय में प्रतिष्ठित कीजिए। उन्होंने जो कहा है, उसे अपनाओ। यह राज्य और संपत्ति तो धुआ के गुब्बारे जैसे है। चाहे कितने भी बड़े होंगे, आखिर में तो बिखर ही जाएँगे। बिखरना, यही शाश्वत है। यह सब हमारे किस काम का? इसलिए आत्मा के लिए पुरुषार्थ करो। यह मान- अपमान और स्वाभिमान की बातें मात्र कल्पनाओं के गुब्बारे है। छोड़ दो यह सब कुछ।"

 

"पिताजी!” खारवेल ने कहा। उसके स्वर में गंभीरता थी और साथ में बहुत ही दम नजर आ रहा था। सत्य उसके पास था। "मैं जब यहाँ आया तब आप पितामह के उस चित्र के समक्ष खड़े थे। मुझे एक बात बताओ कि इस चित्र को कोई जला देगा, तो उसके साथ आप कैसा बर्ताव करोगे ? क्या उसे सजा दोगे या फिर ऐसा सोचोगे कि, यह तो चित्र ही था ना! मात्र काल्पनिक ही थे। वास्तविक महाराज थोड़े ही थे। उनका चित्र जला तो जला, क्यों किसी को दंड देना? क्यों हमें क्रोध करके हमारी आत्मा को दूषित करना? आत्मा को बिगाड़कर क्या करना है? आर्हत् तत्त्वज्ञान हमें ऐसा करने से रोकता है।"

 

“...........”

 

"लेकिन यह अर्थ करना गलत है पिताजी! महाराजा के चित्र के साथ खिलवाड़ करने वाला महत्तम दंड का भागी बनता है। उसके कृत्य की कड़क शिक्षा उसे मिलनी चाहिए। उसे यदि माफी मिल जाए तो समस्त प्रजा के मन में प्रश्न खड़े हो जाते हैं और सामाजिक हालात जोखिम में पड़ जाते हैं। प्रजा खुद अनाथता और असलामती का अनुभव करती है। ऐसा सोचती है कि, दिवंगत राजा के चित्र को जला दिया फिर भी यदि उसे कोई दंड नहीं मिला तो कल हमें भी जीते-जी जला देगा या हमारी संतानो का अपहरण करेगा या हमारी पत्नियों पर अत्याचार करेगा तो उसे यह राजा क्या दंड़ देंगे? महाराज! दंडपात्र को दंड देना चाहिए। यह राजा का कर्त्तव्य हैं और कलिंग की नीति ऐसा ही दर्शाती है।”

 

"जिसे दंड देना चाहो उसके सामर्थ्य के साथ सर्व प्रथम हमारे सामर्थ्य की तुलना करना, यह प्राथमिक आवश्यकता है। ऐसा किसी नीति में तूने नहीं पढ़ा है खारवेल!” पिता वृद्धराय आग-बबूले हो गये। "कोई शेर आकर तेरे प्रियपात्र को मार डालेगा, तो तू उसके सामने लड़ने जाएगा कि, जो परिस्थिति है उसका अशक्य परिहार के रूप में स्वीकार करेगा?"

 

"मैं उस शेर को पिंजरे में कैद करना चाहता हूँ।" खारवेल बोला, "अहिंसा का पुजारी हूँ। हिंसक की भी हिंसा क्यों करनी है? पर उसे दबोच लेना, ऐसा दंड देना चाहिए कि, वह अपराधी दूसरी बार अपराध करना भूल जाए।"

 

"मुझे पता है कि शेर को कैद करना हो तो, साधन जरूर पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए, विशिष्ट होने चाहिए। कमजोर, अधूरे या ऐसे-वैसे साधन भी नहीं चलेंगे। पर यह बात सच ही है कि शेर को भी पिंजरे में कैद कर सकते हैं, यदि संपूर्ण तैयारी हो तो।"

 

"खारवेल! खारवेल! तेरे सर पर भूत सवार हो गया है। पुत्र! तू जरा सोच, तू जो करना चाहता है, उससे कितनों की शांति भंग होगी? और अंत में पाएगा क्या? किसी को हराने का एक मिथ्या संतोष या और कुछ?"

 

"संसार के सुख-चैन को छोड़कर श्रमण अपनी और अपने परिवार की शांति भंग करके दुःखों से भरे हुए, असुविधा से भरे हुए पंथ को पसंद करते हैं, उनको क्या अधिकार है ऐसा करने का?” खारवेल ने प्रति प्रश्न किया।

 

"श्रमण अध्यात्म की प्राप्ति करते हैं। अशांति खड़ी करके भी शाश्वत शांति को प्राप्त करते हैं। कष्टमय मार्ग पर चलकर आत्मा को प्राप्त करते हैं।”

 

“तो पिताजी ! ऐसा समझ लेना कि मैं भी इन कष्टों को सहन करके कलिंग की खोयी हुई आत्मा को वापिस हाँसिल कर लूँगा। कलिंग का उल्लास, उसका स्वाभिमान, उसकी शांति, उसकी अस्मिता, उसकी उन्नति को यदि प्राप्त करना होगा, तो इस कष्ट‌मय मार्ग पर जाना ही पड़ेगा!, उस‌के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं है। समग्र कलिंग सर झुकाकर नहीं, सर उठाकर फिरे, यह मेरा अरमान है। और मुझे विश्वास है कि यह स्वप्न... चाहे कितने भी बलिदान लेगा पर अंत में यह स्वप्न एक बार सफल होकर ही रहेगा क्योंकि आपके आशीष मेरे साथ है।” इतना कहकर खारवेल पिता के चरणों में झुक गया। "पिताजी! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि कालिंग के उद्धार के मेरे स्वप्न को साकार करके ही रहूँ।"

 

(क्रमशः)

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