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महायनक खारवेल Ep. 3

Updated: Oct 24, 2024





Kharvel hindi


( उस समय भगवान महावीर के निर्वाण को २७६ वर्ष बीत चुके थे। राजा वृद्धराज को राज्य करते हुए उस समय एक वर्ष ही हुआ था और उसके यहाँ एक सन्तान का जन्म हुआ। यही सन्तान हमारी कथा के मुख्य पात्र हैं - भविष्य के महाराजा खारवेल। भिक्षुराज, महामेघवाहन, महाराजा खारवेलाधिपति।


इतनी भूमिका हमने बना दी, अब आइए उनके जीवन की कथा में प्रवेश करते हैं...। )

 

कुमारगिरी की हरी-भरी पहाड़ी से अश्व पर सवार एक कुमार आँधी की तरह फुर्ती से नीचे उतर रहा था। उसका घोड़ा उसके स्वभाव से और वह अपने घोड़े के स्वभाव से पूर्ण रूप से अवगत थे। जब भी इस किशोर का मूड ठीक नहीं होता, तब वह इस घोड़े की सवारी करता था और फिर वह घोड़ा अनेक तरकीबें आजमाता था। तूफान बनकर दौड़ना, उड़ना, विशाल किले को एक ही छलाँग मारकर पार कर जाना, छोटे-मोटे जल प्रवाहों को लंबी कूद लगाकर पार कर देना आदि ऐसे दाँव लगाता था‍‍ कि उसकी सवारी करके वह किशोर खुश हो जाता था और यदि कभी घोड़ा हताश होता, उदास होता तो! तो कुछ नहीं। बस, इस घोड़े पर कुमार चढ़ जाए इतनी ही देर होती और घोड़ा उत्साह में आए बिना नहीं रहता था!

 

पर चौदह-पंद्रह साल का यह लड़का, जिसे लड़का कहो तो वह युवक लगता था और युवक कहो तो तरुण लड़के जैसा लगता था। ऐसा लड़का भला उदास क्यों होगा? उसके घर में ऐसा तो कुछ भी नहीं था, कि जिसके कारण उसे उदासी में खोना पड़े। खाने के भंडार भरे थे और संपत्ति के पिटारे, पर फिर भी वह लड़का बार-बार गमगीन हो जाता था। मानव के मन का पार पाना मुश्किल है। कभी खुशी के माहौल में रोने बैठ जाता है, तो कभी शुष्क पतझड़ में भी संगीत के राग छेड़ देता है। यह तो मन की बात है, विचित्र बात…

 

"भंते कहते हैं - मौर्यों को प्रेम करो। क्या यह संभव है?” लड़के के मन में धुंध सी छा गई। और उसके प्रतिघोष के स्वरूप में जैसे कि घोड़े ने भी धूल की ढ़ेरी पर थपाट लगाई और धूल उड़ने लगी। लड़के के मन की तरह सब कुछ धुंधला हो गया था। अब उसे आँखों के सामने जो दिखना चाहिए, वह दिखाई नहीं दे रहा था, पर जो मन में चल रहा था, वही दिखाई देने लगा था।

 

"खारवेल! साधर्मिक पर आफत आई है। तू तो परमजैन है, क्या तू मदद नहीं करेगा?” भंते आर्यबलिस्सह कह रहे थे। कमाल के थे ये संत! कभी-कभी तो कईं दिनों और महीनों तक कुमारगिरी पर्वत की छाँव में निवृत्ति की साधना में पड़े रहते थे, एकदम मौन, तपस्वी, निर्जल उपवासी, ध्यानमग्न। और कभी अचानक कंबल ओढ़कर, दंड लेकर, बगल में धर्मध्वज दबाकर निकल पड़ते थे, धर्म की प्रभावना करने। कलिंग के गाँव-गाँव में उनके पगलिए पड़ते थे। क्या राजा, क्या प्रजा, हर कोई उनका भक्त था, सेवक था। और खारवेल ने तो समझ पकड़ी तब से ही साक्षात् भगवान के दर्शन इन्हीं भंते में किए थे। भंते और भगवान उसे कभी भी अलग नहीं लगे। पर आज उसे भंते ने विकट कसौटी में डा़ल दिया था। सबसे कठिन कसौटी। परंतु उसे मालूम नहीं था कि आज से और अब से भंते ने उसका प्रशिक्षण शुरू कर दिया था। और बिना परीक्षा के कभी भी किसी का शिक्षण पूरा नहीं होता।

 

"मुझे साधर्मिक को मदद करने में कहाँ कोई परेशानी है? पर मौर्य? जिसके नाम से मुझे नफरत होती है, ऐसे मौर्य को मुझे मदद करनी पड़ेगी?” लड़का अस्पष्ट स्वर में बड़बड़ा रहा था। और उसकी बात को जैसे समझ रहा हो, ऐसे वह घोड़ा भी हिनहिनाया। लेकिन फिर से खारवेल विचारों से बाहर आया।

 

"कुमार खारवेल! संचित की हुई शक्ति और अर्जित किया हुआ धन अन्य की मदद के लिए काम आए तभी सुहाता है।” आर्यबलिस्सह ने कहा।

 

"भंते! आज तक मैंने आपकी एक भी बात का प्रतिवाद नहीं किया है। पर आज पता नहीं क्यों, पर मुझे पहली बार तर्क सूझ रहा है।" कुमार ने कहा।

 

"तर्क!" आर्य हँस पड़े, “तर्क गलत नहीं है यदि वह स्वीकार-लक्षी हो तो। अस्वीकार के लिए किया गया तर्क गलत है। स्वीकार से ही सुख है।"

 

दो क्षण शांति रही, फिर खारवेल बोला, "आर्य! मैंने नीति में ऐसा सीखा है कि संचित की हुई शक्ति और अर्जित किया गया धन शत्रुओं को परास्त करने और प्रतिस्पर्धियों में ईर्ष्या जगा दे, तो सफल है।"

 

"हार-जीत और ईर्ष्या-असूया…” आर्य बोले, “वत्स! ये सभी मन के विकार हैं। उससे आत्मा का कल्याण नहीं है।” कहकर उन्होंने खारवेल के सामने देखा। पर इन शब्दों की उस पर कुछ खास असर नहीं हुई। आत्मा, कर्म, धर्म आदि का स्थान अभी उसके जीवन में था ही नहीं। उसके पास बहुत सारे कार्य थे, बहुत बड़े-बड़े लक्ष्य थे। उनके लिए बहुत कुछ करना था उसे।


आर्यबलिस्सह को याद आया। आज से पंद्रह वर्ष पूर्व उसका जन्म हुआ था। तब आकाश में मेष राशि में सूर्य और मंगल की युति थी। उसे देखकर आर्य ने स्वयं भविष्यवाणी की थी कि, "कलिंग में किसी चक्रवर्ती का जन्म हुआ है।" उन्होंने सोचा कि जिसे चक्रवर्ती बनना है, उसे अभी से ऐसी बात कहूँगा तो उसके दिमाग में यह बात बैठेगी ही नहीं। वे मुस्कुराए।

 

"... तो तूने जिस नीति का अभ्यास किया है, वह जैसा बताती है उससे हमारी नीति कुछ अलग ही बताती है, बोल! तू किसका स्वीकार करेगा?”

 

"मैं इतना जानता हूँ कि, मेरा ज्ञान आपसे बहुत-बहुत कम है। पर आपको पता ही है कि मेरे पास एक हृदय है। एक ऐसा हृदय जिसके पास अपनी रुचि-अरुचि है, अपने राग-द्वेष हैं, अपना हिसाब-किताब है। आप जो कह रहे हैं इससे हृदय को चोट लग रही है।”

 

"हृदय पर मन का और मन पर हृदय का काबू चाहिये वत्स! और यह कार्य इतना कठिन नहीं है, जितना तुझे लगता है। दिल को उदार बनाना सीखे वही सच्चा मनुष्य होता है। तू तो अरिहंत का सच्चा उपासक है। तेरे पास तो सविशेष उदारता की अपेक्षा है।”

 

"तू एक बार जा, मन नहीं माने तो भी जा। तुझे जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ सीखने को मिलेगा।”

 

"पर वह पाठ आप मुझे अभी ही सिखा दो ना!"

 

"नहीं! अब तुझे गुरु के पास से नहीं, अनुभव से सीखना होगा। जिंदगी जब सिखाती है, तब पूरा सिखा देती है, ऐसा कोई गुरु भी नहीं सिखा सकते।”

 

तोषाली नगरी से उत्कल नामक घोड़ा अपने सवार कुमार खारवेल को लेकर कलिंग के समुद्र किनारे पर, जिस तरह से तूफानी दरिया जिस वेग से किनारे की ओर बढ़ता है, वैसे ही तूफानी वेग से बढ़ता जा रहा था। वह भी कहाँ? पाटलिपुत्र की ओर…

 

“धिग् मां…” खारवेल बड़बड़ाया। इस पाटलिपुत्र की और गुप्त वेश में और छुप-छुपकर जाने में क्याँ मजा है?” उसे अपना खास मित्र और सेनापति का पुत्र, उसका सहाध्यायी हमउम्र बप्पदेव याद आ गया था, "यदि बप्पदेव भी‌ साथ होता तो, पाटलिपुत्र में आज कोई धमाचौकड़ी जरूर हो जाती। हनुमान लंका जाए तो बिना खुराफात किए कैसे रह सकते हैं?"


"शायद इसीलिए आर्यभंते ने मुझे कहा था कि, मुझे, सिर्फ मुझे ही पाटलिपुत्र जाना होगा, वह भी अकेले और गुप्तवेश में।” माता-पिता तो तुरंत ही मान गए थे, पर बप्पदेव को समझाने में बहुत समय लगा था। आखिर में उसे वचन देना पड़ा था कि, यदि कलिंग पाटलिपुत्र पर हमला करेगा तब वह पूरी सेना लेकर सबसे आगे आकर युद्ध करेगा।

 

"ओह! पाटलिपुत्र और मौर्यों के प्रति कलिंग के प्रत्येक प्रजाजनों के दिल में कितना अपार रोष और द्वेष भड़क रहा है। और आर्य बलिस्सहजी... कुछ हृदय को विशाल करने की बात कहते थे ... मुझे अभी भी समझ में नहीं आ रहा है।”

 

विचारों के साथ बहते हुए खारवेल अकेला ही मगध की सरहद में प्रवेश कर रहा था और मगध की सीमा और विराट तोरण द्वार को पार कर अंदर प्रवेश कर चुका था। ठीक उसी समय मगध की पश्चिम दिशा से सम्राट संप्रत्ति ने अपने विशाल सेना के साथ मगध की राजधानी पाटलिपुत्र के पश्चिम द्वार से नगर में प्रवेश किया। पूरा मगध मानो पागल हो गया था। पाटलिपुत्र के प्रत्येक मनुष्य को अपने सम्राट में अपने असली तारणहार के दर्शन होते थे। सभी का हर्षोल्लास असीम था। अपने घर पर जैसे कि कोई अतिथि आने वाले हो, उसी तरह से घर-घर को सजाया गया था, रंगोली रचाई गई थी, तोरण लटकाए गए थे।

 

इस जनोल्लास को देखकर बृहद्रथ ने कहा, "ऐसा स्वागत तो इस नगरी के लोगों ने कभी मेरा भी नहीं किया।"

 

“स्वागत और सम्मान पाने के लिए सर्वप्रथम उसका पात्र बनना पड़ता है महाराज!” भारी और गंभीर आवाज में यह कौन बोला? राजा बृहद्रथ ने पूरा सिर घुमाकर पीछे देखा। आँखें झुकाकर व्यंग्य से बोलने वाला वह पुष्यमित्र था, बृहद्रथ का मुख्य सेनापति। उसे देखकर बृहद्रथ हॅंस दिया। उस हास्य को लुच्चाई कहो, गंदा कहो, वीभत्स कहो, बेपरवाह कहो, या स्वार्थी कहो। ऐसी हँसी किसी भी महान् मौर्य सम्राट या मौर्य कुमार को शोभा नहीं देती थी।

 

हॅंसते हुए बृहद्रथ बोला, "सम्राट् पुष्यमित्र !" उसके बाद वह फिर से हॅंसा! फिर अचानक सेनापति के पास सरककर उसके कान में जाकर बोला, “तू एक सेनापति है, ब्राह्मण है! एक राजा का एक अदना-सा वेतनधारी नौकर। तू राजा की तरह सोचना रहने दे। अरे तुच्छ! तू राजा को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह कबसे सोचने लगा?”

 

फिर उसने पुष्यमित्र के सर पर टपली मारते हुए कहा, "तू इतना सब कुछ सोचता है, पर सब बेकार और व्यर्थ है। अरे! देख सामने, वहाँ नजर डाल। सम्राट संप्रति राजहस्ती पर आरूढ़ होकर आ रहा है। देख! तू ऐसा सोच सेनापति! कि इस राजहस्ती पर तेरा राजा बृहद्रथ आरूढ़ हो जाए और पूरे मौर्य साम्राज्य का मालिक बन जाये, तो कितना अच्छा? मै मौर्य सम्राट् और तू मौर्य शासन का सेनापति। तेरा भी लाभ और मेरा भी लाभ, क्यों?"

 

"जी” पुष्यमित्र कटाक्ष से बोला। "मैंने इस बार तो पक्का तय कर लिया है, आप निश्चिंत रहना मेरे महाराज!” अब उसने क्या निश्चय किया था, उसका पता चलने के लिए अभी 14 साल की देरी लगने वाली थी।

-*-

 

"मौर्य सम्राट साम्राज्य के अधिपति सम्राट अशोक के समर्थ उत्तराधिकारी सम्राट संप्रति पधार रहे है।" राजसभा में घोषणा हुई और पूरा दरबार खड़ा हो गया सम्राट का दीदार करने। आह! आज कितने बरसों के बाद इस दरबार सभा का भी यौवन फूट रहाँ था। इसमें जैसे जान आ गई थी। मौर्यों के सूने पड़े हुए सिंहासन को भी आज आतुरता खील उठी थी। असली मौर्य के उत्तराधिकारी को अपनी गोद में समा लेने की... उसके प्रताप को झेलने की, उसकी शोभा बढ़ाने की...

 

और सभासदस्यो में बहोत प्रयत्न करके सबसे आगे आने के लिये और इतने समय से सबसे आगे टिके रहने में सफाल रहे हुयें कुमार खारवेलने सम्राट का दीदार किया। उस समय उसे कोई अवर्णनीय अकल्पनीय ऐसा आनंद और आकर्षण का अनुभव हुआ। पता नहीं क्यों, पर उसे लगा कि इस विराट व्यक्तित्व का कोई कभी भी विरोध कर ही नहीं सकता है। इस अजातशत्रु दिव्य मानव को तो मात्र नमन ही कर सकते है। अनायास ही खारवेल से अपने दोनों हाथ जुड़ गये। सभाजनों के साथ उसने भी मस्तक झुका दिया। वह ईन्सान ही विशिष्ट था। उसकी उपस्थिति में सभी लोग किसी संमोहन तले दब जाते थे। पूरा माहोल बदल जाता था उसकी हाजरी में।

 

खारवेल ने सोचा- 'सम्राट तो इसे कहते है’। मौर्य पर का जो एकांत द्वेष जो उसके मन में था, वह तो सम्राट के प्रथम ही दर्शन से पिघलकर तूट गया था। उसे याद आया। उसने आर्य बलिस्सह से पूछा था- "भंते! मुझे क्याँ सिखना है, जिसके लिये आप मुझे वहाँ भेज रहे हो? और भंते ने कहाँ था, - पूरा वंश कभी भी खराब नहीं होता है, वंश के कुछ लोग बूरे हो सकते है। ईन्सान भी हमेशा खराब नहीं होते हैं। कोई ईन्सान कभी कभी बूरा हो सकता है। एक परिस्थिति में और कुछ एक व्यक्ति की अपेक्षा से ही इन्सान बूरा होता है, वही ईन्सान दूसरी परिस्थिति में अन्य कई व्यकितओं के लिये अच्छा भी उसी वक्त हो सकता है। यह सब कुछ तू वहाँ जाकर सिखना कुमार!!” भंते आर्यबलिस्सह ने कहाँ था।

 

महाराजा वृद्धराज ने परम जैन होने के कारण अपने राजकुमार भिक्खुराय की तालीम कलिंग की विख्यात शैक्षणिक संस्थाओं में तो कराया ही था। पर उन्होंने खारवेल को संस्करण के लिये बहोत ही छोटी उम्र से आर्यबलिस्सह को सौंप दिया था। आर्य ने उसके आत्मा के हित की बचपन से ही तकेदारी ली थी। उन्होंने ध्यान रखा था कि यह इन्सान महान विजयी चक्रवर्ती और परम सफल भले ही बन जाये, पर उसके पीछे रहाँ हुआ ईन्सान कभी भी मर न जाये। यह कभी भी शैतान याँ हैवान ना बन जाये। वह महान बने... बाकी चक्रवर्ती बनना तो उसके लिये निश्चित है। चक्रवर्ती तो वह अवश्य बनेगा ही। पर फिर भी वह निर्लेप और निःस्पृह रहे सके। और 'भिकखुराय' जैसे उसके नाम को सार्थक करे।

 

( क्रमशः )

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