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महायनक खारवेल Ep. 4





Mahanayak Kharvel Hindi


( सम्राट संप्रत्ति ने अपने विशाल सेना के साथ मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। आर्य बलिस्सहजी के कहने पर खारवेल भी पाटलिपुत्र आ पहुँचा है। राजसभा के सिंहासन पर बैठे सम्राट संप्रत्ति के दर्शन से भिक्खुराय विचारमग्न है।

अब आगे क्या होता है पढ़िएँ। )

 

वर्तमान में वही भिक्खुराय खारवेल सम्राट संप्रति सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर नमन कर रहाँ था।

 

सिंह जैसी गौरवपूर्ण और शांत चाल से चलते हुए सम्राट सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये और भावविभोर बन गये। अंदाज से उनकी उम्र 75 साल की होगी। पर फिर भी इस सिंहासन की बाजू पर जाते ही उनकी आंखें छलक उठी थी। मौर्य साम्राज्य का यह आद्य सिंहासन। उसे संभालने की जिम्मेदारी उनकी थी और दादा अशोक की भी वही ही अंतिम आरझू थी। फिर भी सम्राट उसे पूरी नहीं कर सके थे। वह सारे द्रश्य... पचास वर्ष पूर्व की घटनायें... सम्राट की आँखों के सामने से गुजर गई। ओह! पचास वर्ष के बाद वे यहाँ आ रहे थे। उन्होंने सिंहासन पर बैठे बिना ही खड़े खड़े सभा की समक्ष देखा "मौर्य साम्राज्य अखंड रहे!” सम्राट ने कहाँ। और पूरी सभा भावविभोर हो उठी।

 

"इस सिंहासन जिसके उपर प्रपितामह चंद्रगुप्त मौर्य बैठते थे। और चाणक्य जैसे रखवाले थे। इस सिंहासन पर पितामह बिंदुसार बिराजते थे। इस सिंहासन पर गुरुतुल्य आर्य अशोक बिराजते थे। इसके उपर बैठने की हिंमत संप्रति के पास नहीं है। इसलिये में यह मौर्यों की पवित्र तलवार इस सिंहासन पर स्थापित करता हूँ और स्वयं इसके बाजू पर रहे हुए सिंहासन पर बैठने का निर्णय लेता हूँ।“

 

पूरी सभा ने जय जयकार किया। बृहद्रथ ने प्रतिभाव दिया - “नाटकबाज!” पुष्यमित्र के दोनों हाथ जुड़ गये। और कलिंगकुमार खारवेल ने सोचा - "प्रभाव भी है, प्रतिभा भी है और उतनी ही विनम्रता भी है। असल ‘सम्राट’ है।"

 

आर्य बलिस्सह ने उसे जिस मकसद से भेजा था, वह भी कलिंगकुमार खुद वह सब सिख रहा था। जो एक सम्राट की कक्षा के राजा में होना आवश्यक होता है। प्रभाव, पुण्य और विनम्रता "अद्भुत मानवी है।“ खारवेल सोच रहाँ था।

 

और सम्राट संप्रति दूसरे नंबर के सिंहासन को मुख्य सिंहासन के आगे रखवाकर उसके उपर बैठ गये, और उन्होंने बोलना शुरू किया। "मौर्य साम्राज्य की धोरी नस समान हर एक मागधिओं को मेरा प्रणाम!” उसने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया। उसके सामने मगध – जनपद की उत्सवदीवानी हुई प्रजा ने उल्लास सभर प्रतिसाद दिया “बोलो सम्राट संप्रति की जय!”

 

“अखंड भारतवर्ष का संचालन मौर्यसाम्राज्य के आज्ञांकित महामांडलिक राजाओ के द्वारा सुव्यवस्थित हो रहाँ है। सम्राट पितामह अशोक ने जो धर्मचक्रप्रवर्तन कराया था, उसीके ही अनुसंधान में मैं उनका अनुगामी सम्राट संप्रति भी मेरे परमगुरु आचार्य आर्य सुहस्तसूरिजी के उपदेश से धर्मचक्र को प्रवर्ताने के लिए मैं अति आतुर हुआ हूँ।" बृहद्रथ तो जैसे कही दूर धकेला गया था। उसका तो कोई भाव भी नहीं पूछ रहाँ था। इस सम्राट के प्रताप और तेज के पीछे यह एकदम से ढंक गया था और क्षोभित हो गया था। वह तिलमिलाकर बैठा था। कब अवसर मिले और वह अपना दाँव खेल सके।

 

दूसरी और कलिंगकुमार खारवेल, पाँचों ईन्द्रियों को सतर्क और सतेज रखकर परिस्थिति का ताग ले रहाँ था। उसे आर्य बलिस्सह के कहे गये शब्द याद आ रहे थे - "कुमार खारवेल! एक महान जैन साधर्मिक की मदद करने के लिये आपको जाना है।“

 

"भंते! वे तो अपने ही साम्राज्य में, अपने ही घर में जा रहे है। घर के लोगों से क्यों डरना?”

 

"राजकारण, सत्ता की लालसा और भोगों के पीछे अंध होना...” बलिस्सह ने कहाँ। “कितनी करुण दशा होती है कुमार! जब घर के लोग हमारी जान लेने को तड़प रहे हो..."

 

यह बात याद आते ही कुमार की नजर बृहद्रथ पर पड़ी। जीर्णशीर्ण हुयें कपड़ो पर जैसे रंग लगाकर चमका दिया हो, वैसा उसका चेहरा था। खारवेल को ऐसा नहीं लगा कि यह इन्सान सामने छाती से कुछ भी लड़ सकता है। पर हाँ, यह ईन्सान भाड़ती आदमीओं को रोककर षड्‌यंत्र जरूर रचा सकता है। कुमार सावधान हो गया। छल, षड्यंत्र, कौन-सी दिशा से, कब होगा उसकी उसे खबर नहीं थी। इसलिए वह पल-पल और अधिक सावध हो गया है। उसका एक हाथ कंबल के पीछे छुपाई हुई कटार पर मजबूती से दबा है, निशान साधने के लिये आतुर होकर...

 

और सम्राट का कथन सुनाई देता है। “मेरी यह आतुरता का महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक कारण है, और आज मैं आपको वहीं कारण - रहस्य बताना चाहता हूँ।“

 

"आजसे पचास वर्ष पूर्व में जब मैं मेरी जिंदगी की यौवनावस्था में था। पिताश्री महाराजा कुणाल को कुमारभुक्ति में अवंती प्रदेश मिला था। हम उज्जयिनी में राज्य का कार्य संभालते थे।“ सम्राट प्रजाजनों के साथ स्वजनों की तरह बातें करते थे। खारवेल ने उसकी नोंध ली - "सच्चा सम्राट वही है, कि जो प्रजा के साथ गहरा रिश्ता बाँध सके। प्रजा को अपना बना सके। मात्र उसके उपकार के कार्य करने द्वारा ही नहीं, पर उसके लिये समय निकालकर प्रजा को संपत्ति देकर खरीद सकते है। पर अपना समय देकर अपना बनाया जा सकता है। प्रजा को जीत सके वोही असल राजा।"

 

"एक दिन में गवाक्ष में खड़े रहेकर नगरी को निहार रहा था। कोई धार्मिक जुलुस निकला हुआ, था। लोगों की भीड़ जमा थी। आनंद था। रथ में जो प्रतिमा स्थापित की गई थी, वह अद्भुत थी। नये सुंदर वस्त्रों से सज्ज भाविक जन मुखकोश बाँधकर रथ को वहन कर रहे थे। मेरी नजर उन यात्रालुओं पर फिर रही थी। और एक जगह पर जाकर चिपक गई।

 

"एक संत इस समग्र रथयात्रा की आगेवानी कर रहे थे। वह श्वेत धवल वस्त्रधारी संत को मैं प्रथम बार ही देख रहाँ था। फिर भी न जाने क्यों उनको पहले भी कहीं मिला हूँ ऐसा अनुभव - हो रहाँ था मूजे।“ राजा बोलते जा रहे थे। और पूरी सभा सुनने में तल्लीन थी। दो जन ऐसे थे कि जो इस प्रवाह में जरा भी बहना नहीं चाहते थे। एक बृहद्रथ और दूसरा कलिंग का राजकुमार खारवेल।

 

"मैंने मस्तिक पर बहोत जौर आजमाया। बहोत प्रयास किया। मैंने इन्हें कहीं देखा था। उसे याद करने के लिये दिमाग पर भारी बोज डाल-डालकर देखा मैंने। और आप नहीं मानोगे दिमाग के साथ का संपर्क बिलकुल ही तूट गया और मैं बेशुध्ध होकर धरातल पर निढाल-सा गिर पड़ा।“

 

सैंकडो - हजारों लोगों की उपस्थिति थी। सूई गिरे तो भी आवाज आये एसी चिरशांति थी। पूरी सभा सम्राट को सुनने में तल्लीन – एकचित थी।

 

"आश्चर्य! दिमाग पर का सारा काबू चला गया। और मैं गहरे अगाध अंधकारसागर में डूबता - गुम होता चला गया। और उस समय मैंने चलचित्र की तरह आत्मचक्षु के सामने घटित कुछ चित्र देखे।“

 

"मैंने देखा कि एक श्रीमंत नगरी में एक चींथड़े हाल भिखारी भटक रहा था। पहेनने को पूरे कपड़े भी नहीं थे। तीन दिन से पेट में कुछ भी नहीं पड़ा था। पेट अंदर उतर गया था। छाती की पसलीयाँ तो गिनी जा सके वैसी साफ दिखाई देती थी। हाथ और पेर तो रस्सी जैसे हो गये थे।“

 

"उसे कोई भी खाना नहीं दे रहाँ था। आखिर में उसने रास्ते में दो साधुओं को देखा। उनका भिक्षापात्र वजनदार भारी दिख रहाँ था। और आँखों में दया दिखाई दे रही थी। वह भिक्षुक उनके पास जाकर अन्न माँगने लगा। और श्रमणों ने कहाँ : “इस अन्न पर हमारे गुरुका हमारे मालिक का अधिकार है। आप हमारे साथ आओ और उनसे बात करो।"

 

"भिखारी हर जगह से तिरस्कृत होता था, तब इस श्रमणों ने उसके साथ मान से बात करी। उसे बहोत ही अच्छा लगा। उसके बाद दिखा कि, वह भिखारी एक प्रभावशाली संत के पास अन्न की याचना कर रहा है। और अन्न के लिए साधु बन जाता है।“

 

"बंधुओं! मैंने देखा कि वह प्रभावशाली संत यही संत ही थे। जिनको मैंने अभी देखा था। पर यह भिक्षुक कौन था? वह समझ में नहीं आ रहा था।“

 

"उसके बाद के द्रश्य में मैंने उस भिक्षुक को साधु के वेश में देखा। जिनकी बड़े-बड़े सेठ लोग भक्ति कर रहे थे। उस भिक्षुक साधु को पेट में तीव्र शूल पैदा हुआ था। बहोत दिनों के बाद उसे अन्न मिला था। और ज्यादा खाँ लेने से पेट में बदहजमी हो गई थी। उस रात वह भिक्षुक मर गया। पर उसके गुरु, उस प्रभावशाली आचार्य ने उसे बहुत दिलासा दिया था, नमुक्कार मंत्र सुनाया था। उन साधुओं के बीच रहकर वह भिक्षुक मर गया और उसके बाद के द्रश्य में तो मुझे मैं दिखाई दिया। महाराजा कुणाल का पुत्र संप्रति..."

 

"तो बाँधवो! मुझे कड़ी मिल गई। मैं वापस हौश में आ गया। मैं दोड़कर गया और उस महागुरु के चरणों में गिर गया। मैंने कहाँ, गुरुदेव! मुझे पहेचाना? गुरु ने कहाँ

अवंती के अधीश्वर को कौन नहीं पहेचानता, भाई!”

 

"मैंने कहाँ, नहीं, उस पहचान से नहीं। मेरे साथ आपकी पहेचान उससे भी पुरानी है। आप याद करो।“ और उन्होंने दो, क्षण ध्यान किया। फिर बोले "भिक्षुक मुनिवर! आप?”

 

"मैं तो पागल था। मेरे गुरु ने मुझे पहेचान लिया। गतभव में जिस गुरु की करुणा मिली थी। आज वही गुरु मुझे मिल गये थे। मैंने उनको कहाँ - गुरुदेव! इस राज्य का मुकुट आप के चरणों में। और गुरू ने कहाँ - अकिंचन व्रतधारी श्रमण इसका क्याँ करेगा? पर आपको यदि कुछ करना हो तो, सकल प्रजा के जीवो का आत्मोद्धार हो जाये ऐसा कुछ कीजिये। आपने जिसके कारण यह सब कुछ प्राप्त किया है, वह सब कुछ आपकी समस्त प्रजा तक पहुँचाओ। आपको हमारा धर्मलाभ है, आपकी समस्त प्रजा को धर्मलाभ है, सभी का कल्याण हो।"

 

"तो मेरे प्यारे बाँधवो! उस दिन से मैंने देख लिया है। मैंने कमर कसी है। यही सच है, यही परमतत्त्व है। मेरे स्वयं का यह अनुभव है। मुझे लगता है कि, आप... भले ही कुल से याँ परंपरा से ब्राह्मण हो, बौध्ध हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो.. आप सभी इस परमतत्त्व की उपासना

करो। संभव है कि अगले भव में आप भी सम्राट बन जाओ!"

 

“मुझे कोई भी साम्राज्य नहीं चाहिये। यह तो सब पुण्य के आधीन है। और पुण्य तो हवा के झोंके की तरह है। कब आये और कब निकल जाये? कोई नहीं बता सकता? इसीलिये तो - जब तक मैं सम्राट हूँ। आप सभी का राजा - मालिक हूँ, तब तक आप सभीको बहोत धर्मलाभ मिले। आपका भावि भी मेरी तरह उज्जवल बने, बस यही एक अरमान है।“

 

“और उसी के कारण से ही मैंने गुरुदेव को यहाँ विराजमान किए है। दस दिन का आर्हत प्रतिमा स्थापना महोत्सव चलनेवाला है। पाटलिपुत्र में विशाल जैन जिनालय बना है। उसमें विराटकाय प्रतिमा की प्रतिष्ठा होगी।“

 

"सभी नगरजनों उसमें उल्लास के साथ भाग ले, हर कोई गुरुदेव आर्यसुहस्ति सूरिजी के वचनामृत का लाभ ले। धर्म कभी भी किसी के उपर जबरदस्ती नहीं करता है। धर्म तो अंगत श्रध्धा का विषय है। पर मेरा आग्रहपूर्वक का अनुनय है कि, सभी प्रजाजन इस धर्म के तत्त्व को जाने, स्वीकारे, जीवन में उतारे, महोत्सव में लाभ ले और मेरी तरह वैभव और अभ्युदय को प्राप्त करे। बोलो अरहंत प्रभु की जय..."

 

पूरी सभा ने जय-जयकार किया और उस खुशी भरे माहोल में जब सभी लोग गफलत में पड़े थे, तब अचानक बीजली का चमकारा हुआ। किसी का ध्यान वहाँ नहीं था। पर कलिंग कुमार खारवेल समझ गया। अद्भुत त्वरा से उसने कटारी निकालकर सम्राट के सीने का निशाना ले लिया।

 

( क्रमशः)

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