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महानायक खारवेल – 6






Mahanayak Kharvel Ep

( खारवेल की चीख से पाटलीपुत्र का सभामंडप गूंज उठा।क्योंकि खारवेल ने मगध के शासन को कुचलकर कलिंग को स्वतंत्र करने की प्रतिज्ञा ली।सम्राट संप्रति खारवेल की सिंह जैसी चाल को देखते रहे और खारवेल कलिंग की ओर निकल पड़े।

फिर आगे क्या हुआ पढ़िएँ। )

 

"उसके मन में पनप रही इस द्वेष भावना को निष्फल करने के लिए मैंने आपको उसका कुछ उपाय करने की विनती की थी। भंते! आपने भी बहुत अच्छी तरकीब निकाली पर उसका परिणाम बिलकुल विपरीत आया ऐसा क्यों?”

 

कुमारगिरि पर्वत पर स्थित लेणगृह में आर्य बलिस्सह के सामने विनीत होकर कलिंग के महाराजा वृद्धराज बैठे थे। जिनके समक्ष समस्त कलिंग हाथ जोड़कर सिर झुकाता था, वे महाराजा आर्य बलिस्सह के समक्ष मस्तक झुकाकर बैठे थे। उनके कँधे झुके हुए थे, आशा और अरमान टूटकर चकनाचूर हो गए थे।

 

"उसने जब हमारी अनुमति माँगी, तब हमने बिना कोई प्रतिवाद सहमति दी। भंते की आज्ञा है, तो जरूर हितकारी ही होगी। हम कैसे मना कर सकते थे?” वृद्धराज बोल रहे थे...

 

“पर इसका परिणाम एसा आएगा उसका तो पता ही नहीं था, अन्यथा हम उनको ईजाजत ही नहीं देते थे।"

 

"धैर्य रखो राजन!" आर्य बलिससह ने कहा। पुरुषार्थ से भी ऊपर की कोई चीज है, तो वह है भवितव्यता। हम करेंगे, वैसा ही होगा एसा नहीं है। भवितव्यता होगी वैसा ही होगा। आपके बेटे खारवेल की भवितव्यता पर उसे छोड़ दो महाराज! यदि मनुष्य की धारणानुसार ही सबकुछ होता तो ईन्सानों को प्रवृत्तिओं का बोझ ही नहीं होता और कभी भी कार्यसंन्यास नही लेता, मनुष्य को कभी भी वैराग्य नहीं होता और विरागी भी प्रवृत्ति में से निवृत्ति में जाने की ओर कभी भी अग्रसर ही नहीं होता। भवितव्यता समझदार, सियाने, बुद्धिमान ईन्सान के पास भी अपना मनचाहा करवाकर ही रहती है। वह अच्छी या बुरी नहीं होती है। यह जैसी भी है, वैसी है और मनुष्य को यदि समाधि में रहना हो तो अटल सिद्धांत रूप भवितव्यता को स्वीकारना ही पड़ेगा। जितना जल्दी इस भवितव्यता का स्वीकार होगा उतना मनुष्य को लाभ है। बाकी पर्वत के साथ सिर टकराने से कुछ फायदा नहीं है। इसलिए महाराज! खारवेल के लिए भवितव्यता को ही स्वीकार लो।"

 

"हे आर्य! आपका बहुत शुक्रिया, आपने मेरी विनती का मान रखकर बचपन से खारखेल के संस्करण के लिए विपुल प्रयत्न किया है। आपका उपकार हम जिंदगीभर नहीं भूल सकते हैं। जब इसका जन्म हुआ तभी राजज्योतिषी ने मुझे कहा था कि, यह तो सम्राट बनने के लिए ही जन्मा है, चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए। तब मुझे लगा था कि मुझे इसे इस महत्वकांक्षा  में जोड़ना नहीं है। मुझे मालूम है कि, मौर्यों ने कलिंगों का कैसा नरसंहार किया था।

हर एक देश की स्वाभिमान के लिए प्रबल जिजीविषा होती है। मरकर भी अपने स्वाभिमान को जिंदा रखने की तमन्ना होती है और उसमें भी यह तो कलिंग है। मर मिटेगा पर झुकेगा नहीं....”

 

"मेरा जन्म भी नहीं हुआ था तब अशोक सम्राट बनने के लिए युद्ध करने आया था। पिता क्षेमराज ही नहीं, पूरा कलिंग लड़ रहा था। छोटे से कलिंग को किसी भी विशाल साम्राज्य का सहयोग नहीं मिला था, किसी ने उसकी सहायता नहीं की थी। बस, सभी मौर्य के सामने कलिंग को कुचलते हुए देखते रहे।”

 

"मेरा जन्म हुआ और मैं बड़ा हुआ तब मेरे बचपन से लेकर जवानी तक मैंने कलिंग में यहाँ – वहाँ सर्वत्र सब कुछ खंडित, टूटा हुआ, भग्न और अधूरा ही देखा है। खंडहरों और खंडित अवशेष ही कलिंग में देखने को बचे थे। विसर्जन का विश्व था। सर्जन का उत्साह ही मर चुका था।"

 

"अपने प्रियजनों के विरह में झुलसते - तड़पते कईयों को कलिंग के रास्तों पर उन्मत्त प्रलाप करते हुए देखा है, कलिंग की कितनी ही माताएँ तो मुझे ही अपना बालक समझती थी। माँ को तो बहुत सारी संतान हो यह बात तो बराबर है, पर मेरी तो बहुत सारी माताएँ थी। वे सभी भोली-भाली कलिंग–स्त्रियाँ मुझे ही अपना बालक मानती थी।

 

"खंडहरों की बाजू में दिन और और रात बैठे रहते कई सारे बुजुर्गो को मैंने देखा है...वे सभी उन खंडहरों के पास में छोटी सी झोंपडी बनाकर उसी में रहते थे। उन‌की कल्पना का विश्व, उनके स्वप्नों का घर, बहुत ही मेहनत से बनाया हुआ वह भवन खंडहर बन चुका था और उनकी मूल्यवान सभी चीजें, घर के लोगों के सहित सबकुछ लुट चुका था। उनकी शुष्क आँखों में थोड़ी सी भी चमक नहीं थी। कोई भी आशा नहीं बची थी। जैसे कि मरने के लिए जी रहे थे, वो भी बिलकुल उदास होकर..."

 

"मैं रहा वृद्धराय! मुझमें ऐसी ताकत नहीं है कि इन सभी के दुःखों को दूर कर सकूँ। उजाड़ बने हुए इन सभी के जीवन में किसी आशा का नवसंचार फिर से कर सकूँ। इसलिए मैं लगातार इन सभी के साथ उनके पास जाकर बैठता था। कभी वे कुछ कहते तो मैं सुनता था। कभी वे रोते तो अपना कंधा देता था और कभी बस ऐसे ही उनके समीप बैठा रहता था...”

 

"भंते बलिस्सह! मेरे कलिंग में क्या बीती है वह मैं ही जानता हूँ। इसीलिए ही मैं चाहता हूँ कि अब विश्व में कोई ऐसा सम्राट पैदा ना हो जो स्वाभिमानी राष्ट्र की कमर तोडकर उसे झुका दे। क्यों दूसरों पर विजय प्राप्त करनी है? क्यों किसीसे उसकी स्वतंत्रता छीनना? मुझे जब पता चला कि मेरा पुत्र सम्राट बनेगा, तभी मैने गाँठ बाँध ली थी कि सम्राट यानि अन्यों की स्वतंत्रता को जबरदस्ती से छीनने वाला बलात्कारी...? नहीं, मेरा बेटा एसा नहीं हो सकता। उसमें उसकी आत्मा का कितना अहित हो जाएगा? इसमें उसका यह भव, परभव और भवोभव की परंपरा कितनी बिगड़ जाएगी? यदि वह ऐसा बन जाएगा तो क्या फायदा उसे एक अरिहंत के परमभक्त के घर जन्म लेने का? क्या फायदा उसे जैनधर्मी बनाने का? क्या फायदा उसे परमार्हत् चेडाराजा के कुल में जन्म धारण करने का?”

 

"पत्ते के महल की तरह मैंने साम्राज्यों को खड़े होते, बिखरते, विध्वंस होते, बह जाते हुए और फिर से बनते हुए देखा है। क्या फर्क है यदि सर पर संप्रति जैसे सम्राट है तो? राज्यों को क्या परेशानी है यदि राज्यों की सरहदो को पड़ोसियों द्वारा दबा दिया गया है? स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करके निरंतर सुलगते रहने की बजाय आभासिक नाममात्र की परतंत्रता को आगे बढ़कर स्वीकार कर लेना चाहिए। मुझे लगता है कि इसमें समाधि बनी रहती है। झूजना यह योग्य रास्ता नहीं है। जो है उसका स्वीकार करके प्रसन्न रहना यही मार्ग है।"

 

"यह सब उसे बार-बार समझाया। आपके द्वारा भी उसे समझाया गया। पर उस पर उसका कोई असर ही नहीं होता है। पता नहीं क्यूँ? वह कुछ भी समझता ही नहीं है, समझने को तैयार ही नहीं है।"

 

"सम्राट संप्रति के लिए शुरु में उसे अहोभाव प्रकट हुआ था। मुझे मेरे गुप्तचर ने बताया कि, उसने सम्राट के आगे अपने हाथ जोड़े थे। वह सम्राट को देखकर मुग्ध हो गया था। मुझे लगा था- अच्छा है, इतना वह मान जाए और सम्राट की आज्ञा में रह जाए तो भी बहुत है। पर इसका नतीजा अच्छा नहीं निकला। उसके मन से पाटलीपुत्र के विद्वेष का भूत नहीं निकला तो नहीं ही निकला।"

 

"पर उसमें दोष मेरा ही है। मैंने ही गलती कर दी। वास्तव में उसे उसकी भवितव्यता पर छोड़ देना चाहिए था। आपके उत्तम मार्गदर्शन से अब मैं इस बात को स्वीकारने के लिए सक्षम बना हूँ। वंदन है आपके चरणों में गुरुभगवंत! क्षमा चाहता हूँ। आपकी साधना के अमूल्य समय को मैंने ले लिया। अब आज्ञा चाहता हूँ।" कहकर कलिंग के महाराजा वृद्धराज खड़े हो गए। बाहर उनका रिसाला उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। अभी तो वे दो कदम ही पीछे मुड़े थे। और वहाँ…

 

"वृद्धराय"! आर्य बलिस्सह की आवाज ने उन्हें रोक दिया। "खारवेल की इस भवितव्यता का चिंतन साधक की भी आँखें खोल देने वाला है।“

 

"मेरे परमगुरु आर्य महागिरिजी ने अपने जीवन का उत्तरार्ध जिनकल्पी की तुलना करने में गुजारा है। जिनकल्प...यानि आप जानते ही हो, कि उत्सर्गमयजीवन। जिसमें एक भी अपवाद को स्थान नहीं होता। ज़रूरत नहीं हो तो बोलना नहीं। जरुरत नहीं हो तो खाना नहीं। जरूरत नहीं हो तो पहनना भी नहीं। हवा के जैसे अनियत और खड्गी के सींग की तरह एकाकी जीवन जीना। प्रवृत्ति कम और निवृत्ति ज्यादा। क्रिया कम, चिंतन और ध्यान ज़्यादा। नहीं कोई गुरु, नहीं कोई शिष्य। ऐसे जिनकल्प का विच्छेद हो गया है। परंतु आत्ममग्न रहने की उत्सुकता-तमन्ना रखनेवाले मुनिवर आज भी ऐसे जिनकल्प की तरह जीवन जीने का प्रयास करते हैं। उसे कहते हैं जिनकल्पी की तुलना।"

 

"कलिंग के तीर्थ समान कुमारीपर्वत स्थविरकल्पी मुनिवरों के लिए है। जिसमें वे रुकते हैं। समूह में रहते हैं। स्वाध्याय करते हैं। चर्चा और वार्ता का आदान-प्रदान करते हैं। किसी के पास पढ़ते हैं, किसी को पढ़ाते हैं। कोई गुरु हैं, कोई शिष्य है।"

 

"स्थविरकल्पी जनता के परोपकार की भावना से साक्षात संपर्क में आते हैं। उनको धर्म का मार्गदर्शन कराते हैं। धर्म के आराधकों की चिंता करते हैं। उनके सुख-दुःख को सुनते हैं।"

 

"परोप‌कार प्रधान स्थविरकल्प है। स्वोपकार प्रधान जिनकल्प है। उसमें अन्य का परिचय नहीं है। मार्गदर्शन नहीं है, प्रेरणा नहीं है, केवल मौन है।"

 

कलिंग के तीर्थरूप कुमारगिरी पर्वत पर जिस प्रकार कलिंगजिन विराजते है। उसी प्रकार से एक जगह पर जिनकल्पी की तुलना करने वाले निराभरण मुनिभगवंत विराजते हैं।

वे उग्र तपश्चर्या में, मौन में और आत्मचिंतन में मग्न होते है। संघ का विशेष कार्य नहीं हो तो वे प्रवृत्ति में जुड़ते नहीं हैं।"

 

"मेरे गुरुदेव के प्रथम शिष्य है - आर्य बहुल, अपरनाम - आर्य उत्तर...वे बरसों से कुमारगिरी पर्वत की उस सबसे उंची लेण में जिनकल्पी की तुलना कर रहे हैं और जब... खारवेल की इस भवितव्यता पर चिंतन करता हूँ तब मुझे ऐसा लगता है कि मुझे भी अब जिनकल्पी की तुलना करने में ध्यान लगाना चाहिए। यह परमोच्च साधना करने का मेरा अरमान है और यही मेरा निर्णय है।"

 

"इसलिए आज से, इसी क्षण से आप जब इस गुफा से बाहर निकलोगे कि मैं तुरंत कुमारगिरी पर्वत की उस चोटी पर जिनकल्पी की तुलना करने वाले परम मुनियों की गुफाओं में, उनकी टोली में शामिल हो जाउँगा। उस विभाग में गृहस्थों का प्रवेश निषेध है। इसलिए आप अब मेरी साधना में अंतराय मत डालना।”

 

"भंते!" वृद्धराज के हाथ जुड़ गए। वे गद्गद् हो गए।

 

“आत्मा की मस्ती में, मस्त रहने वाली आकाश में ऊँचाई पर उडने वाले स्वैरविहारी गरुड़ पंखी की तरह आप जैसी महान साधक आत्मा ने हमारे कल्याण के लिए धरती पर आकर, हम सभी के बीच में रहकर, हम सबको धार्मिक मार्गदर्शन देने का जो उपकार किया है, वह परमोपकार कभी भी नहीं भूलाया जाएगा। सच में आप महान हो! हमें क्षमा करना कि हमने आपको इतने बरसों तक रोक के रखा।”

 

“भवितव्यता ने मुझे रोककर रखा वृद्धराय! रोकने वाले आप नहीं हो या रूकनेवाला

 मैं नहीं हूँ। हम सभी तो भवितव्यता के हाथों की कठपुतलियाँ हैं।"

 

"पर खारवेल की आत्मभूमि में जो धर्मसंस्कार के, त्याग भावना के, उदारता के, समर्पण के और गुरुभक्ति के बीज जो गहराई से रोपे हुए है, यह अवंध्य है, अप्रतिहत और अमोघ हैं। आज नहीं तो कल, यह जरूर परिणाम लायेंगे और खारवेल “भिक्खुराय” बनकर ही रहेगा।

 

"त्याग की मंजिल यदि भोग के रास्ते पर जाने से ही मिलने वाली हो, अहिंसा, शांति यदि हिंसा और अशांति के बिना हाँसिल नहीं होने वाली हो तो,  हमें वर्तमान में स्वयं की साधना कर लेनी चाहिए। कल की बात कल। वर्तमान में जीए वही यति है... वृद्धराय!”

 

भंते बलिस्सह की बातों को सुनकर वृद्धराय की आँखों से आँसू छलक उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़े। चरणस्पर्श किया। अंतिम बार का चरणस्पर्श और आखिरी बार उनके सौम्य मुख के दर्शन करके महाराजा तोषाली की और अग्रसर हो गये। रास्ते में एक मोड़ पर उनको कुमारगिरी पर्वत के ऊपरीतल का साक्षात्कार हुआ। उन्होंने देखा कि वहाँ पर एक मानव आकृति बिजली-सी त्वरा से उस मार्ग को चीरकर जा रही थी, ऊपर और ऊपर। उन्होंने हाथ जोड़ दिया। एक निःश्वास डाली और अपनी यात्रा शुरू कर दी नीचे और नीचे।

 

(क्रमशः)

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