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महायनक खारवेल Ep. 9

Updated: Sep 16




Episode 9

उसमें भी पाटलीपुत्र की उपेक्षा किए बिना छुटकारा नहीं मिलने वाला था। इन सभी के बीच और एक समाचार मिले कि पिताजी कुणाल ने जीवन का उत्तरार्ध धर्माराधना में बिताने का निर्णय किया है और उसके लिए पश्चिम तट पर तक्षशिला में जानेवाले थे। वहाँ श्रीकल्प (सीरकाप) मुकाम में स्तूपमय जिनचैत्य बनवाकर उन्होंने माता शरतश्री के साथ वहाँ स्थायी रूप से निवास किया। राजकारण से अलिप्त रहकर उन्होंने अपनी पिछली आयु धर्म आराधना में गुजारी, हुबहू अपने पितामह सम्राट अशोक की तरह। मौर्यवंशी महान चंद्र‌गुप्त और बिंदुसार ने भी अंतिम समय में अपने मन को धर्म में पिरो दिया था।

 

"आज मुझे लगता है कि मेरी भी पिछली अवस्था आ चुकी है। अब इस बृहद्रथ का बाण और कलिंग की कटारी मेरे हृदय में चूभ गई है। मेरा सोया आतमराम अपनी नींद को त्यागकर सजग होकर बैठ गया है। मैं अपने आप पर ही भड़का हुआ हूँ। कई साल मैंने यूँही प्रमाद में गंवा दिए। अब मुझे प्रमाद बिल्कुल नहीं चाहिए। अब सांसारिक कार्यों से संन्यास लेना पड़ेगा। अब आराधना में जुट जाना पड़ेगा गुरुदेव!”

 

“यह तो आर्य बलिस्सहजी की महती कृपा है की उन्होंने सीधे कलिंग से मेरा ध्यान रखा। वे कौन हैं? यह मैं नहीं जानता हूँ। पर मेरे लिए तो वे माँ-बाप से कम नहीं हैं। उन्होंने मुझे दूसरा जन्म दिया है।”

 

“अब मैं सम्राट संप्रति यदि धर्ममय राह को पसंद नहीं करूँगा तो मुझे मिला हुआ यह नया जन्म बिल्कुल ही निष्फल साबित हो जाएगा। इसलिए मैं अब मेरे पूर्वजों की तरह निवृत्ति घोषित करने वाला हूँ और किसी धार्मिक स्थान में रहकर मेरी शेष जिंदगी व्यतीत करनेवाला हूँ तो मेरी पूरी जिंद‌गी को आपके समक्ष खोलने के बाद अब मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या मेरा यह निर्णय सही है?”

 

महाराजा संप्रति की दीर्घ कथानिका समाप्त हुई। उसके बाद आर्य सुहस्तिसूरीजी कथन प्रारंभ हुआ!….

 

"नीरव एकांत है। पाटलीपुत्र का यह उद्यान आनंदप्रद है। यहाँ पर साधक की साधना - स्वाध्याय निराबाधता से हो सकती है। आर्य सुहस्तिसूरीजी ने शुरू किया…

 

"संप्रति! वत्स! मैं आपके निर्णय का विरोध नहीं करूँगा। मुझे लगता है कि जो संयमजीवन की साधारण सी ऊपर-ऊपर की एक ही दिन की आराधना से आपको सम्राट पद मिला, वह संयमजीवन ही अब आपको साधु बनकर जीना चाहिए। यह प्रस्तुत भी है।”

 

"एक उम्र के बाद साधक को अधिक निवृत्त होना चाहिए और भीतर रमण करना चाहिए, स्थिर होना चाहिए। मोक्ष में जाने के बाद क्या करना है? किसकी चिंता है? कौन-सी जिम्मेदारी है? तो यहाँ पर भी इसी तरह से जीने का पुरुषार्थ क्यों नहीं करना चाहिए? प्रवृत्तिमय पुरुषार्थ, यह धर्मपुरुषार्थ है और निवृत्तिमय पुरुषार्थ, यह मोक्ष पुरुषार्थ है। इसीलिए तो दोनों भिन्न हैं।”

 

"साधनापथ पर अग्रसर होने से मैं आपको रोकने वाला नहीं हूँ। मैं उसका अनुमोदन करूँगा। परंतू आप सम्राट हो, समग्र भारतवर्ष की प्रजा के पिता। आपके मन में आपकी समस्त प्रजा के लिए, फिर चाहे वह मालवी हो, मागधी हो, गुर्जर हो, तमिल हो, द्राविड़ी हो, कलिंगी हो या दक्षिणी हो या फिर उत्तरापथ की हो। आपके मन में आप‌की समग्र प्रजा का हित बसा हुआ है। आपने निरंतर उनका योगक्षेम किया है। आप उनके धर्मपिता बने हो। सनातन निर्ग्रंथ तत्व को समस्त आर्य प्रजा में प्रसारित करने के जो कार्य आपने किया है यह शायद अच्छे-अच्छे चक्रवर्तियों ने नहीं किया है।

 

“कुदरत और कर्म की लीला अकल है। आपके जैसे समर्थ शासक की कोई संतान नहीं है। ऐसे संयोगो में मुझे लगता है कि आपको एक अच्छा उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेना चाहिए और कुछ वर्ष उसकी कड़ी निगरानी रखने के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ रहना चाहिए। अगर बेवक्त निवृत्ति ले ली जाए तो शायद बाद में आपके पीछे ऐसा नहीं हो जाए कि आपके उत्तराधिकारी आपको दोषित मान ले…।”

 

"हो सकता है कि, समय निकल जाए। यह तो संसार है, अनेक कार्य आते ही रहेंगे। शायद उसमें से आपको आराम नहीं मिले और आप निवृत्ति भी नहीं ले सको। पर महाराज! इतना निश्चित है कि यह जो धर्मशासन की प्रभावना निःस्वार्थभाव से आपने की है, वह कभी-भी व्यर्थ नहीं जाएगी। आप परभव में इससे भी महान अभ्युदय को प्राप्त करेंगे, क्योंकि छोटा-सा भी सत्कार्य यदि शुद्धभाव से और अत्यधिक आदरपूर्वक किया जाए, तो वह भी अकल्पनीय फल को देने वाला होता है और आपने तो कितना महान कार्य किया है महाराज! साक्षात् तीर्थंकर प्रभु महावीर को पाकर भी परम श्रावक श्रेणिक महाराजा ने जो कार्य नहीं साधा था, वह आपने साधकर दिखाया है। महाराज! इसकी खूब-खूब अनुमोदना करते रहना”

 

"बाकी सब भूल जाओ। संसार में धक्के तो सभी को सहन करने पड़ते है। चाहे संप्रति हो चाहे सुहस्ति। संसार में नितांत सुखी कौन है? हम मिले हुए समय में योग्य निर्णय करके उचित प्रवृत्ति करते रहे तो जीवन सफल है।”

 

"इसलिए वत्स! तू सर्वप्रथम उज्जयिनी में जा, वहाँ योग्य उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर। कुछ समय उसके साथ रहकर उसे अनुशासित कर। उसके बाद जैसा उचित लगे वैसा कर क्योंकि अव्यक्त सामायिक का फल राज्यादिक है और व्यक्त सामायिक का फल मोक्ष भी है। पूर्वभव में विशेष समझदारी के बिना ही भवितव्यता के योग से तूने अव्यक्त सामायिक का पालन किया था। उसके परिणाम से तूने इस वैभव को प्राप्त किया है। पर इस भव में तो तूने बहुत ही भक्ति- भाव से अरिहंत को पूजा है। श्रमणों की आराधना की है। साधर्मिकों को सम्मानित किया है। यह भगीरथ शुभारंभ किसी कठिन तपस्या से कम नहीं है। यह तुझे सर्वकल्याण के निवासरूप मोक्षपद के नजदीक अवश्य लेकर जाएगा।

 

"इसलिए मन में किसी भी बात का रंज मत रखना। एक जमाने में मगध राज्य का केन्द्र राजगृह था। वर्तमान में राजगृह एक साधारण शहर माना जाता है। समय बदलने पर सबकुछ बदल जाता है संप्रति! इसी प्रकार से भारतवर्ष के इस विशाल साम्राज्य का केन्द्र भी बदल जाएगा। अब तक पाटलीपुत्र था, भविष्य में अवंती और उज्जयिनी बन जाएगा। तेरे वंशज 'मालवपति' के नाम से पहचाने जाएँगे। बाकी के सभी जनपद छोटे कस्बे के रूप में रह जाएँगे। तब पाटलीपुत्र से अधिक भारतवर्ष की राजधानी का सम्मान उज्जयिनी को प्राप्त होगा।"

 

"ऐसा परिवर्तन अनवरत चलता ही रहेगा वत्स! इसलिए पाटलीपुत्र के लिए अपने मन में कोई भी रंज मत रखना। भवितव्यता जब बदलती है तब इन्सान को भी बदलना ही पड़ता है। जो नहीं बदलता है उसे दंड भुगतना पड़ता है वत्स।”

 

"पाटलीपुत्र अब कथाशेष ही रह जानेवाला है वत्स! महान पुण्यशाली जहाँ जन्म लेते हैं, रहते हैं, वह स्थान महान बन जाता है। पाटलीपुत्र अब कोई महान पुण्यशाली नहीं रहा है। और अवंती में उत्तरोत्तर पुण्यशाली जन्म लेने वाले हैं। अब पाटलीपुत्र का स्थान उज्ज‌यिनी ने ले लिया है। स्थान महान नहीं है, इन्सान महान है वत्स!"

 

"तेरी आराधना को याद कर। जब से तूने धर्म को पाया है, तब से तू त्रिकाल जिनपूजा करता रहा है, सदा साधर्मिक भाइयों की उत्तम सेवा करता रहा है, दानधर्म का निरंतर आचरण करता रहा है।"

 

"वर्ष में एकबार अवंती की रथयात्रा हमारी निश्रा में होती है, तब भी तू सपरिवार उपस्थित रहता है। अंतिम दिन जो भव्य रथयात्रा निकलती है, उसमें जिनभगवंत का रथ भक्तिवंत श्रावक घोड़े के स्थान पर रहकर चला रहे होते हैं। उस दृश्य को देखकर ही तेरे सामंत राजा, दक्षिण, उत्तर, पश्चिम और पूर्व के दूर-दूर के देशों से आए हुए सभी राजा मुग्ध हो जाते हैं।


तू सच्चे दिल से उनको अपील करता है और वे जैन धर्म के रागी बन जाते हैं। अपने - अपने राज्यो में रथयात्रा निकालने की प्रथा की शुरुआत करते हैं।”

 

"तेरे हाथों से हुई शासन प्रभावनाओं का अंक बहुत ही विशाल है संप्रति! सवा करोड़ जिनबिंब, सवा लाख जिनालय, 36,000 प्राचीन तीर्थों का जीर्णोद्धार और सातसौ के जितनी दानशालायें..."

 

"तेरे राज्य में कोई भूखा उठ सकता है पर भूखा सोता नहीं है। गरीबों के कष्टों को तोड़ने के लिए तू सदैव कटिबद्ध रहता है सम्राट।"

 

“एक समय ऐसा भी आता है कि जब कहीं पर भी साधुओं को प्रासुक आहार नहीं मिलता है। तब तेरी दानशालायें ही उनका आधार बनती हैं क्योंकि तूने तेरे रसोईये को कहकर रखा होता है कि पथिकों को दान देने के बाद जो भी अन्न बचता है, उससे श्रमणों के पात्रों को छलका देना है और इसके लिए रसोईये को तू पर्याप्त वेतन भी देता है। तेरे रसोईये भी विशिष्ट भक्तिभाव से उन श्रमणों को आहारदान करते है।"

 

"संप्रति! साधु को आहारदान देना यह विशिष्ट पुण्य का बंध कराता है। जैनधर्म को दिया गया सम्मान श्रेष्ठ पुण्य का कारण है, इसलिए तेरे प्रभाव के कारण से पूरा आर्यावर्त श्रेष्ठतम पुण्य का बंध कर रहा है। इस प्रकार तू स्वयं तिर रहा है और अन्य लाखों के तारनेवाला भी बन रहा है। सम्राट! तू स्वयं पुण्य का बंध कर रहा है और अन्य करोड़ों को भी पुण्य का बंध करने में निमित बनता है। तू स्वयं धर्म कर रहा है और अन्य अरबों को धर्म में जोड़नेवाला बनता है सम्राट।” अचानक आर्य सुहस्तिसूरि अपने स्थान से खड़े हो जाते हैं।

 

"आज जैनशासन के महाप्रभावक ऐसे तुझको जिनशासन की प्रभावना के स्वप्नसेवी एक आचार्य वंदन करते है। यह एक गुरु का एक शिष्य को प्रणाम है। जिसके लिए उस शिष्य ने पूर्णतया योग्यता हासिल की है।”

 

“आप ऐसा मत कीजिए, गुरुदेव! मैं तो आपके चरणों की धूल के बराबर हूँ। मैं तो वो ही भिखारी हूँ जिसके ऊपर अपार करुणा करके आपने उगारा है। मैं तो जो कुछ भी हूँ, वह सब आपके प्रताप से ही हूँ। आपकी कृपा से राज्य भी मिला और उसके सदुपयोग की बुद्धि भी मिली। मैं तो आपका दासानुदास हूँ गुरुवर!” ऐसा कहकर संप्रति छोटे बालक के जैसे गुरुदेव के चरणों में सिर झुकाकर बैठ जाता है और गुरुदेव के चरणों को इस तरह से कसकर पकड़ लेता है जैसे कि उन्हें कभी-भी छोड़ना ही नहीं।

 

"स्वस्थ हो जाओ वत्स! आज मुझे तुझको और मेरे उत्तराधिकारी मुनिवरों को महत्त्व की बात बतानी है।”

 

( क्रमशः )

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