कहानी कुरबानी की -2...
- Muniraj Shri Parshwasundar Maharaj Saheb
- Mar 31
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क्रान्तिवीर ‘नरेन्द्र’
शहादत की अमर गाथाओं में, शूरवीरता के श्रेष्ठतम उदाहरणों में, जिन क्रांतिकारियों ने अपने साहस और बलिदान से इतिहास रचा, उनमें एक सम्माननीय नाम है— नरेंद्रकुमार जैन।
जैन धर्म की अहिंसा को क्रांति का पर्याय बनाने के संकल्प के साथ, जब असंख्य जैन स्वतंत्रता संग्राम में अपने साहस और शक्ति का परिचय दे रहे थे, तब एक ऐसा तेजस्वी सितारा था जो अंग्रेजों की आँखों में तिनके की भाँति चुभ रहा था। यह सितारा था ‘नरेंद्र भाई’, जिनका नाम स्वतंत्रता संग्राम की अमर गाथाओं में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
19 जुलाई, 1993 को उत्तर प्रदेश के देवबंद नामक एक छोटे कस्बे में नरेन्द्रभाई का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा देवबंद और मुजफ्फरनगर में प्राप्त की, तथा उच्च शिक्षा के लिए मेरठ गए।
मुजफ्फरनगर में अध्ययन के दौरान, क्रांतिवीर नरेन्द्रभाई ने स्टूडेंट फेडरेशन की स्थापना की और स्वतंत्रता की मशाल को प्रचंडरूप से प्रज्वलित करने के लिए जनसभाओं का आयोजन कर जनचेतना का संचार किया।
सन् 1939 में, जब स्टूडेंट फेडरेशन की जनसभा में नरेन्द्रभाई अंग्रेजों के खिलाफ अपनी तीखी वाणी से प्रहार कर रहे थे, तब अंग्रेज कलेक्टर ने पुलिस को आदेश देकर सभा को जबरन तितर-बितर करने के लिए हमला करवाया। पुलिस ने मंच पर चढ़कर नरेन्द्रभाई पर बेंतों से कई प्रहार किए। इस घटना ने जनता के मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना को और अधिक भड़का दिया।
सन् 1942 में, जब स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था, तब नरेन्द्रभाई ने गर्जना करते हुए सैकड़ों नौजवानों को संगठित किया और अपने कॉलेज में 'स्टूडेंट कांग्रेस' की स्थापना की। इसके परिणामस्वरूप हजारों युवा एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में कूद पड़े।
भारत के इतिहास में मेरठ क्रांति का केंद्र बन गया, जिसके परिणामस्वरूप इस क्रांति के सूत्रधार नरेन्द्र भाई और उनके साथियों को कारावास का सामना करना पड़ा।
जेल से रिहा होने के पश्चात नरेन्द्र जी ने पुनः छात्र आंदोलन को संगठित करने का प्रयास किया, किंतु प्रशासन की तीखे तेवर और दमनकारी नीतियों के कारण उन्हें मेरठ छोड़कर उदयपुर जाना पड़ा। उदयपुर पहुंचने के उपरांत उन्होंने भील आंदोलन का प्रारंभ किया और अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अपने विचारों को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया।
कुछ समय बाद, नरेन्द्र जी पुनः मेरठ लौटे और अपने पुराने साथियों को संगठित करने में जुट गए। किंतु इस बार उन्हें गंभीर आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा।
सन् 1946 में नरेन्द्रभाई देहरादून आए। विवाह के पश्चात् बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को देखते हुए उन्होंने देहरादून में ही रहकर व्यापार को आगे बढ़ाना उचित समझा। अपनी अल्पकालिक उपस्थिति में ही वे जनसेवा और अपने कुशल वक्तृत्व के कारण पूरे देहरादून में अत्यंत लोकप्रिय हो गए।
15 अगस्त 1947 को जब भारत का विभाजन हुआ, उस समय देहरादून में सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए नरेन्द्रजी ने अथक प्रयास किए। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप देहरादून में शांति और सौहार्द्र बना रहा। विभाजन के समय जब पाकिस्तान से बड़ी संख्या में शरणार्थी देहरादून आए, तब उनकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए नरेन्द्रजी ने निःस्वार्थ भाव से सहायता कार्य आरंभ किया। उन्होंने अपने व्यापार को छोड़कर स्वयं को जनसेवा में समर्पित कर दिया। उनकी समर्पित सेवा, अथक परिश्रम और निष्काम निष्ठा को देखते हुए प्रशासन ने उन्हें देहरादून में शरणार्थी सहायता एवं पुनर्वास समिति का मंत्री तथा विशेष मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। आज भी शरणार्थियों के हृदय में नरेन्द्रभाई भाग्यविधाता के रूप में प्रतिष्ठित है।
सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भी उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु बड़ी धनराशि एकत्रित करने में उन्होंने विशेष योगदान दिया और इस कार्य में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अपने संपूर्ण जीवन को राष्ट्र रक्षा के यज्ञ में समर्पित करने वाले क्रांतिवीर नरेंद्र भाई को समस्त देशभक्तों और जैनीयों का शत-शत नमन!
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