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निंदा का अधिकार



चिंटू: “पिंटू! इस सीजन में हमारी टीम ने बहुत कमजोर प्रदर्शन किया। एक भी मैच नहीं जीता, रन भी अच्छे नहीं बनाए, बॉलिंग भी बिल्कुल बेकार थी, और कैच तो शायद पचास छोड़ दिए होंगे।”


पिंटू: “ओ हो ! यह तो टीम का बिल्कुल बकवास प्रदर्शन हो गया।”


चिंटू: “ए पिंटू! खबरदार! तू मेरी टीम के लिए बुरा क्यों बोल रहा है? तुझे किसने यह अधिकार दिया है?”


बात तो सच है। यदि आप अपने लिए खराब बोलो, तो यह आत्मनिंदा है, हितकारी है। पर दूसरे आपके लिए खराब बोलें, या आप दूसरों के लिए हल्का बोलो, तो यह निंदा है, त्याज्य है। प्रशस्य नहीं है।


यद्यपि जब आप आपकी खराब स्थिति बताते हैं, तब दूसरा अरे! ऐसा! बहुत गलत हुआ' ऐसा कुछ कहता है, तो वह निंदा के भाव से ही नहीं कहता, पर आपकी बातों में हामी भरकर आपकी बात को समर्थन देता है। पर इंसान खुद भले ही अफसोस जताये, पर दूसरों के पास से आश्वासन की अपेक्षा रखता है। 'होता है! अब सब अच्छा होगा' यदि आप ऐसा कहेंगे तो उसे जरा आश्वासन मिलेगा।


वैसे भी प्राय: हर कोई ऐसा मानता है कि, मेरे लिए गलत बोलने का या मेरा कुछ बिगाड़ने का हक सिर्फ और सिर्फ मेरा है।


बाकी सभी की यह जिम्मेदारी है कि, मेरे लिए मेरी पसंद का - अच्छा ही बोले, और मेरा कुछ बिगाड़े नहीं। पेन झटकते हुए खुद अपने कपड़े स्याही से बिगाड़ दे, या रास्ते पर चलते हुए अपनी चप्पल से अपने कपड़ों पर कीचड़ के दाग लगाए तो खुद को कोई परेशानी नहीं है। पर यही काम कोई और करे तो? खुद की कार को कहीं पर ठोक दे, और कार में स्क्रेच पड़ जाए तब स्वस्थ रहने वाला यह इंसान, अगर कोई रिक्षावाला अपना रिक्षा हमारी कार को जरा-सा भी टच कर दे, और कार में थोड़ा भी स्क्रेच पड़ जाए, तो कैसा परेशान हो जाता है। पर तकलीफ यह है कि, कोई दुर्जनता से, कोई मजाक में, कोई लापरवाही से, तो कुछ लोग स्वाभाविक ही ऐसी घटना घटने के कारण परेशान रहते हैं।


दूध तो 15 मिनट में उबलता है, बेचारा जीव तो चौबीसों घंटा उबलता रहता है।

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