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Power of Unity

Updated: Apr 12




अनन्तज्ञानी तीर्थंकर श्री भगवान महावीर के द्वारा आज से 2576 वर्ष पूर्व जिनशासन की स्थापना की गई थी।

समय के प्रवाह में बहते-बहते इतने वर्षों के पश्चात् अपने शुभ कर्मों के फल स्वरूप ही अत्यंत समृद्ध एवं उन्नत ऐसे जिनशासन की हमें प्राप्ति हुई है।

हमें यह जिनशासन अस्थिर अथवा चलायमान नहीं मिला है… और ना ही खिन्न, विदग्ध होकर शय्या पर मरणावस्था में करवटें लेता हुआ प्राप्त हुआ है।

किन्तु…

परम परमात्मा द्वारा स्थापित इस शासन में नकारात्मक (Negative) विषयों को खोजने वाले कईं जीवों की दृष्टि इस प्रकार संकुचित (Narrow) हो गई है कि उन्हें शासन में केवल और केवल दोष ही दिखाई देते हैं।

जैसे कि; हम लोगों में एकता नहीं है… हम संवत्सरी प्रतिक्रमण भी अलग-अलग करते हैं… क्रियाविधि में भी कितने भेद हैं… शास्त्रवचनों के अर्थघटन में एकरूपता नहीं है… परम्परा/ सामाचारी में अमर्यादित भिन्नता है… वगैरह… वगैरह…

ठीक है ! चलो, मान भी लेते हैं कि ये सभी बातें सच हैं… तो क्या ?

क्या हम सदा जिनशासन की निन्दा ही करते रहेंगे? वर्तमान स्थिति में शासन में जो भी गलत हो रहा है उसकी टीका-टिप्पणी करने से क्या शासन का अभ्युदय हो जाएगा ?

जिस जनसामान्य को ऐसे अद्भुत शासन की प्राप्ति नहीं हुई है यदि वह भली-भाँति समझता है कि घर की समस्याओं का रुदन अन्यजनों के सामने यदि जाहिर में करेंगे तो उससे समाधान प्राप्त नहीं होगा। अपितु ऐसा करने से स्वयं के घर-गृहस्थी की इज्जत ही सबके सामने जाती है।

वैसे ही शासन को जो अपने घर-परिवार से अधिक प्रेम करते हैं, ऐसे व्यक्ति शासन की नकारात्मक बातों की चर्चा जाहिर में कैसे कर सकते हैं ?

दूसरी बात :

यदि आपको शासन में दूषण दिखाई देते हैं… तो अन्य धर्मों में ऐसे कौनसे भूषण दिखाई देते हैं ? अन्य धर्मों की राई जितनी विशेषता भी आपको मेरु के भाँति विशाल लगती है।

विश्व में कौनसे धर्म में वाद-विवाद-विसंवाद नहीं है ?

(यह बात धर्म के सिवाय अन्य संस्था, समाज और घर-परिवार पर लागू होती है… सर्वत्र यह समस्या सामान्य है।)

जो कुछ आपके नजरों में आता है उसे आप जैनधर्म की Negativities के रूप में देखते हो और अभी तक जो कभी भी आपकी नजरों में नहीं आया है उस धर्म में आपको जिनशासन से भी अधिक विशेष गुणवत्ता के दर्शन होते हैं। इससे तो आपके सम्यक्त्व पर ही मुझे शंका होती है।

? मुस्लिमों में शिया, सुन्नी, वहोरा, देवबंद वगैरह अनेक प्रकार की शाखाएँ हैं।

? वैदिक धर्म में भी स्वामी नारायण, वैष्णव, शैव, प्रणामी, नाथ इत्यादि अनेक सम्प्रदाय हैं।

? इसाई धर्म में भी कैथेलिक, प्रोटेस्टैंट, ऑर्थो-डॉक्स वगैरह अनेक पन्थ है।

आपके दृष्टि में लाने के लिए यह तो केवल कुछ उदाहरण बताएँ… यदि इसी प्रकार की सूक्ष्मता से निरीक्षण करेंगे तो स्पष्ट रूप से ध्यान में आएगा कि सर्वत्र विभिन्न पन्थों, समुदायों, सम्प्रदायों में उनकी अपनी विचारधारा, तर्क, सिद्धान्त, आचार, तत्त्वों में मतभिन्नता होने के कारण शाखा-विशाखाएँ तो बनी ही हैं… अर्थात् ऐसा केवल जैन धर्म में ही ऐसा नहीं है।

  1. और हाँ… सामाजिक व्यवस्था में भी अनेक प्रकार हैं…,

  1. जैसे कि; ओसवाल, पोरवाल, श्री-माल, पल्लीवाल, खंडेलवाल, कच्छी, मारवाडी, दसा, विसा, हालारी, घोघारी वगैरह…

  1. तो ये पन्थ… सम्प्रदाय… परम्परा… समाज एक होने चाहिए, क्या आप ऐसा मानते हैं ?

  1. और यदि एक हो भी जाए तो सब कुछ सुव्य-वस्थित रूप से अपने उद्देश तक पहुँच जाएगा, क्या आप भी ऐसा चाहते हैं ?

  1. किसी कार्यक्रम के आयोजन में सभी को एक मंच पर लाने से एकता हो जाएगी, क्या आपकी विचारधारा ऐसी है ?

  1. यदि इन सभी बातों में आप अनुरोध रखते हैं… तो ध्यान से सुनें…! आप भ्रम में जी रहे हैं…!

क्युँकि आपकी दृष्टि… मान्यताएँ… विचारधारा ही गलत है।

क्या कोई भी कभी भी अपने मतानुग्रह को छोड़कर… अन्य को सर्वसमक्ष भूल के रूप में स्वीकार करेगा…? और तत्पश्चात् सभी एकत्र होकर एकमत से किसी सिद्धान्त की स्थापना करेंगे…, ऐसा होना असम्भव है।

मूर्तिपूजक मुख पर मुहपत्ति बाँधेंगे… स्थानक-वासी देहरासर जाएँगे… दिगम्बर वस्त्रों को धारण करेंगे… ऐसी कल्पनाएँ शेखचिल्ली के सपनों की तरह ही तो है।

फिरका, गच्छ, परम्परा में जो विविध प्रकार हैं उनमें से एक ही प्रकार रहे (एक ही विधि-विधान रहे) ऐसी कल्पना करना अर्थात् अपनी मूर्खता के प्रदर्शन सिवाय अन्य क्या हो सकता है ?

क्युँकि…, प्रभु आदिनाथ के 84 गणधर थे और 84 गण-गच्छ थे अर्थात् प्रभु आदिनाथ के जीवनकाल में ही 84 परम्पराएँ थी। वैसे ही प्रभु महावीर के 11 गणधर थे और 9 गण-गच्छ थे अर्थात् प्रभु महा-वीर की ही 9 परम्पराएँ थी।

तो हे भाग्यशाली !

इस सत्य को समझ कि गायों के वर्ण-रंग में भिन्नता हो तो उसमें शंका नहीं होनी चाहिए क्युँकि भिन्न-भिन्न रंगों की गाय होने पर भी उन सभी का दूध तो सफेद ही आता है।

एकता का सूत्र यह ‘एकता’ के शब्दार्थ को नहीं तात्पर्यार्थ को समझना चाहिए।

सभी को एकत्रित करने से कुछ प्राप्त नहीं होने वाला है।

एकता अर्थात्

? विविधता का स्वीकार… यह एकता है…

? विविधता में सद्भाव… यह एकता है…

विविधता का समन्वय… यह एकता है…

जैसे चित्र की कलाकृति में यथास्थान योग्य रूप से विविध रंगों का होना चित्र की शोभा बढ़ाता है…

जैसे उद्यान भी विविध जाति के पुष्पों से ही महकता हुआ रमणीय लगता है…

जैसे भोजन में षडरस की विविधता से ही स्वाद का आनंद आता है…

जैसे संगीत में सात सुरों के सरगम से ही हम झूम उठते हैं…

बस…,

ठीक वैसे ही जिनशासन की विविध परंपरा– सामाचारी का संवाद और समन्वय करना सीखें। इसी प्रकार जिनशासन की विविध परंपरा की आराधना शासन की शोभा में अभिवृद्धि करेगी। केवल एक मंच पर दिखावे के लिए सबको  इकट्ठा करने से… एकत्रित करने से कुछ महान सिद्धि प्राप्त नहीं होने वाली है।

मैं किसी भी प्रकार के एकता का विरोधी नहीं हूँ किन्तु एकता के दाम्भिकता का विरोधी हूँ।

एकता यह तात्पर्यार्थ मिश्रण नहीं अपितु मैत्री है।

कौन सही है व कौन गलत है इसके लिए वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

साधु-साध्वीयों की वेयावच्च, साधर्मिक भक्ति, तीर्थ-रक्षा, धर्मद्रव्य-रक्षा, आचार-परम्परा की सुरक्षा ऐसे गम्भीर विषयों पर सभी को एक साथ आवाज उठानी चाहिए।

ऐसी एकता निश्चित ही शासन का अभ्युदय करेगी।

〈 “सङ्घे शक्तिः कलौ युगे।” 〉

जिनशासन की वर्तमान में जो विविधता है उसे सद्भाव से स्वीकार कर “हम सब एक हैं।” यह भावना इस कलियुग में धर्म रक्षा कर सकेगी।

अब आगे के लेख में “Unity” की व्याख्या विस्तारपूर्वक समझेंगे।

Last Seen :

रमेश :

मन्दिर बनाएँ तो मुस्लिम नहीं आते,

मस्जिद बनाएँ तो हिन्दु नहीं आते,

देहरासर बनाएँ तो हिन्दु-मुस्लिम नहीं आते,

गुरुद्वारा बनाएँ तो जैन नहीं आते,

तो सभी धर्मों के लोग आए ऐसा क्या बनाएँ ?

महेश :

शौचालय बनाओ…!

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