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रोगों का घर : रेफ्रिजरेटर

Updated: Oct 2, 2024




आजकल रेफ्रिजरेटर फैशन और इज्जत का साधन बन गया है। परन्‍तु वास्तव में तो यह रोगों का ही घर है। गुजराती साप्ताहिक ‘अभियान’ में डॉ. श्याम वैद ने इस विषय में विस्तृत प्रकाश डाला है, जो यहाँ संक्षिप्त में साभार उद्धृत है।

फ्रीज आप समझ रहे हैं वफादार या आहार रक्षक नहीं है। किसी भी पदार्थ या फल के रसायन में परिवर्तन होता रहता है, उसे ठंडा वातावरण रोकता है। ताजे फल या साग भाजी भी श्वास लेते हैं। इन श्वास-उच्छवास के कारण फल अथवा साग-भाजी से शक्कर और प्राणवायु कार्बन डायोक्साइड में परिवर्तित होती है। इसके अलावा पानी और गर्मी भी निकलती है। इस प्रकार कि क्रिया घटित होने से फल आदि जीवन्त वस्तु पक्व होने लगती है इस प्रक्रिया को रेफ्रिजरेशन द्वारा भी रोका या मन्द नहीं किया जा सकता है यदि अत्यधिक रेफ्रिजरेशन किया जाये तो पदार्थ या फल की ‘फ्लेवर” नष्ट हो जाती है। उसकी प्राकृतिक महक खत्म हो जाती हैं। फ्रीज में लम्बे समय तक रखे गए फल बाहर से ताजे दिखाई देते है। परन्तु जिन बेक्टेरीया (जन्तुओं) को फल प्रिय है, वे फ्रिज के ठंडे वातावरण में भी अच्छी तरह रह सकते है। खेती करने वाले काश्तकार जानते ही हैं कि अधिक ठंडी या बर्फ गिरने पर चना या गेहूँ की फसल बराबर नहीं आती है।

केला, मटर, ककड़ी, टमाटर आदि फ्रीज में रखे जाये तो उनके रंग में परिवर्तन आ जाता हैं। कुछ फल स्वभावतः ठंडे होने से उनमें माइक्रोब नामक कीटाणु हो जाते हैं। फ्रीज में रखे गये फलादि हमेशा निर्दोष रहेंगे, ऐसा नहीं मान लेना चाहिए। फ्रीज कोई ऐसा साधन नहीं है, जो आपको उसमें रखी सभी वस्तुओं की सलामती की गारंटी दे सके। कितने ही लोग, टॉमेटो केचअप अथवा उसकी बोतलें अथवा टोमेटो सुप के खुल्ले डिब्बे फ्रीज में रखते हैं। वे समझते हैं कि फ्रीज में सुरक्षित है। परन्तु दो दिन पश्चात‌ उसमें जन्तु हो जाते हैं | इसीलिए अधिकतर घरों में फ्रीज आने के बाद सर्दी, खांसी और अंतड़ियों की बीमारी बढ़ने लगती है । स्वास्थ्य के लिए फ्रीज में रखी वस्तुएँ हानिकारक और खतरनाक हैं । उपरी तौर पर कोई चीज भले ताजी दिखे, पर अन्दर से वे रोगवर्धक जन्तुओं के भंडार के समान बन जाती है ।

ब्रिटेन के वैज्ञानिक स्टिवन सोन्सीनो की बात फ्रीज रखने वालों को स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लेना चाहिए : ‘आप समझते हैं कि फ्रीज में रखी गई वस्तुएँ दिखने में, उसकी गंध में अथवा स्वाद में बिगड़ती नहीं है। परन्तु यह भ्रम है। दो-तीन दिन तक रखी गई वस्तुएँ दिखने में बिगड़ी न हो अथवा दुर्गंध न आती हो अथवा स्वाद न बिगड़ा हो, तो भी उन वस्तुओं में बड़ी मात्रा में हानिकारक जन्तु प्रवेश कर गये होते हैं।’

आधुनिक प्रकार से तैयार की गई भोजन सामग्री, पुलाव या अन्य वस्तु अनेक घण्टों तक फ्रीज में रखने के बाद खाने-खिलाने से आरोग्य को नुकसान पहुँचाती हैं। नवीन रोग उद्भव होते हैं।

बाजार में बिकने वाले खाद्य – पदार्थ 

आजकल सभी बड़े नगरों में गली-गली और चौराहे-चौराहे पर चाट की दुकानें दिखती है, जिसमें लोग खुशी-खुशी सड़ा हुआ, बासी चाट, पांऊभाजी, कचोरी, समोसा खाकर नए-नए रोगों को निमंत्रण देते हैं।

ठेलागाडी या हाथलारी वाले के आइटम टेस्टफूल लगते हैं जिसे बड़े घर के लोग भी गंदी गटरों के पास खड़े-खड़े खाते हैं। इन हल्के पदार्थों की अनिष्टता के परिणाम आए-दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होते हैं। तथापि घर के वृद्ध सहित परिवार के सभी सभ्य छुट्टी के दिन या रविवार को बाजार में सेन्डवीच, चाट, पानी-पुरी, कचोरी, समोसा, भेल, दही-वड़ा, पाऊंभाजी, आमलेट खाते दिखाई देते हैं। आज से ३०-४० वर्ष पूर्व बाजार में खाना शर्म की बात थी। समाज का भय रहता कि “कोई देख तो नहीं रहा है ?” तब बच्चों को भी चने-चिरोंजी, सेव-ममरा, चिवड़ा-चककी खिलाई जाती थी, आज अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा (?) के लिए बच्चों को चर्बी मिश्रित, दांतों को बिगाड़ने वाली चॉकलेट, अंडे मिश्रित बिस्कीट, गोली दी जाती है।

बच्चों के हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क, किडनी, लीवर जैसे अंगों के लिए प्रोटीन युक्त मूँगफली-चने की अति आवश्यकता रहती है। इनसे बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास होता है। बम्बई में फेरीवाले कीट लगे हुए डिब्बे में आलू उबालते है, जिसमें बने पेटिस, पाऊंभाजी को लोग गंदी जगह खड़े होकर खाते हैं। वही आजु-बाजु पड़े उच्छिष्ट से तथा एक ही बाल्टी में धोए गए चम्मच-प्लेट में रोगीष्ट जंतुओं का चेप लगता हैं। दुर्गंध-प्रदूषण युक्त हवा, बासी पदार्थ और तीखे मसाले-चटनी से एसीडीटी, पेट में जलन होती हैं। फिर दवाई भी कारगर सिद्ध नहीं होती है। अतः बाजारु या बाजार की चीजों का सम्पूर्ण त्याग आरोग्य के लिए आवश्यक है। अपनी रक्षा के लिए जीभ पर संयम-अंकुश जरूरी है।

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