यह एक बौद्ध साध्वी की बहुत सुंदर घटना है। उस साध्वी के पास गौतम बुद्ध की एक छोटी लेकिन अत्यंत सुंदर स्वर्ण प्रतिमा थी। वह उस प्रतिमा से बहुत प्रेम करती थी। हालांकि, उसका प्रेम कुछ विचित्र था। उसके प्रेम में एक प्रकार की कंजूसी भरी हुई थी। जब वह प्रतिमा के सामने धूप जलाती, तो धुएं को हवा में यहां-वहां जाने नहीं देती। वह धुएं को केवल अपनी प्रतिमा की ओर ही जाने देती। अगर हवा की वजह से धुआं दूसरी दिशा में जाने लगे, तो वह उसे हाथ से धक्का देकर वापस अपनी प्रतिमा तक ले जाती।
जब वह बुद्ध की प्रतिमा पर फूल चढ़ाती, तो इतनी सावधानी से चढ़ाती जैसे फूलों की सुगंध आसपास कहीं और न पहुंच जाए।
एक दिन एक विचित्र घटना हुई। वह साध्वी घूमते-घूमते चीन पहुंच गई। वहां एक विशाल मंदिर था, जिसमें बुद्ध की सिर्फ एक नहीं बल्कि हजारों प्रतिमाएं थीं। सुबह वह मंदिर में पूजा करने बैठी। उसने अपनी बुद्ध प्रतिमा एक छोटे से पाटे पर रखी और पूजा शुरू करने लगी। लेकिन पूजा शुरू करने से पहले ही उसकी संकीर्ण मानसिकता की वजह से वह डरने लगी।
उसे चिंता हुई कि अगर वह अपने भगवान बुद्ध की पूजा के लिए धूप जलाए और उसका धुआं पास की बुद्ध प्रतिमाओं तक चला जाए, तो क्या होगा! उसने टोकरी से फूल निकाले। जब वह फूल बुद्ध भगवान को अर्पित करने लगी, तो फिर आशंका हुई कि उनकी सुगंध दूसरी बुद्ध प्रतिमाओं तक न चली जाए!
जिस बुद्ध भगवान की प्रतिमा उसके पास थी, वही बुद्ध भगवान की प्रतिमाएं उसके आसपास भी थीं। लेकिन अब उसे ऐसा लगने लगा कि वे भगवान उसके नहीं हैं।
सोचने वाली बात है, आकाश में जो चंद्रमा है, उसका प्रतिबिंब झील में पड़े, समुद्र में पड़े या नदी में, प्रतिबिंब भले ही अलग-अलग हों, पर चंद्रमा तो एक ही है ना? गुलाब चाहे किसी भी बगीचे में हो, गुलाब तो गुलाब ही है ना? उसकी सुगंध, आखिरकार, सुगंध ही है ना?
लेकिन उस भक्तिन के मन में यह दृढ़ विश्वास था कि मैं जो धूप जलाऊं, उसकी सुगंध केवल मेरे बुद्ध तक ही पहुंचनी चाहिए, कहीं और नहीं। प्रतिमा तो भगवान बुद्ध की ही है, लेकिन वह मेरी नहीं है। अंततः उसने एक नया उपाय सोचा। उसने बांस की एक पतली नली ढूंढी और उसे अपनी धूप के ऊपर रखकर उसका सिरा बुद्ध की प्रतिमा की नाक तक लगा दिया। उसका भाव यह था कि उसकी धूप की धूम्र-रेखा केवल उसके भगवान बुद्ध तक ही पहुंचे।
पूजा समाप्त होने के बाद, जब नली हटाकर देखा, तो बुद्ध की प्रतिमा की नाक काली हो गई थी। "अब इस कालिमा को कैसे साफ किया जाए?" इस सोच में वह मुख्य भिक्षु के पास पहुंची। मुख्य भिक्षु ने जब सारा वृतांत सुना तो ठहाका लगाकर हंस पड़े और बोले, "यह कैसा बुद्ध के प्रति प्रेम है कि बाकी सभी बुद्ध की प्रतिमाओं तक धूम्र-रेखा न पहुंचे? यदि उनकी ओर पुष्प की सुगंध चली गई तो इसमें क्या हर्ज है?"
कुछ क्षण रुककर मुख्य भिक्षु ने मार्मिक बात कही, "तुम्हें भगवान बुद्ध से प्रेम है या बुद्ध की किसी विशेष प्रतिमा से? यदि किसी विशेष प्रतिमा से प्रेम है, तो वह प्रेम नहीं, राग है। और इस राग का ही परिणाम है। प्रेम कभी सीमित नहीं होता, लेकिन राग हमेशा सीमित होता है। जो सीमित होता है, वह कालिमा में बदल जाता है। यही कारण है कि जो धूम्र-रेखा सब तरफ फैलती है, वह कभी कालिमा पैदा नहीं करती क्योंकि वह प्रेम है। लेकिन जब तुमने अपने प्रेम की धारा को सीमित कर दिया, तो वह प्रेम नहीं, राग बन गया। और जहां राग है, वहां कालिमा जरूर होगी। तुमने तो अपने राग के कारण भगवान का मुख ही काला कर दिया!"
भगवान विशेष से या उनकी किसी विशेष प्रतिमा से प्रेम करना, वास्तव में प्रेम नहीं है, बल्कि राग है। सच्चा प्रेम आर्हंत्य (बुद्धत्व) के प्रति होना चाहिए, अन्यथा वह केवल राग ही है। हमारे भीतर क्या चल रहा है, इसका सूक्ष्मता से आत्म-अवलोकन करना चाहिए।
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