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एक संन्यासी ने बड़ी उम्र में संन्यास स्वीकार किया। संन्यासी जीवन में वर्षों बीत गए, लेकिन अभी तक उन्हें संन्यास का वह अपेक्षित आनंद प्राप्त नहीं हुआ। वह ज्ञानी थे, समझते थे कि सच्चा आनंद इसी जीवन में है, लेकिन अनुभव नहीं हो रहा था। इस कारण उन्हें यह महसूस हुआ कि उनकी जीवनशैली में कहीं न कहीं कोई कमी जरूर होगी। अब इस समस्या का समाधान कहाँ से लाया जाए?
सद्गुरु के अलावा इस समस्त संसार में समाधानदाता और कौन हो सकता है? यह सोचकर वह सीधे एक सद्गुरु के पास पहुँच गए। विनम्रता से उन्होंने सद्गुरु के सामने अपनी व्यथा रखी।
सद्गुरु ने उन्हें शब्दों में समाधान देने से पहले वात्सल्य भरा संवाद शुरू किया। सहजता से पूछा, "महात्माजी! पहले मुझे इस प्रश्न का उत्तर दीजिए कि जब आप संन्यासी बने थे, तब आपने क्या-क्या छोड़ दिया था?"
संन्यासी ने विस्तार से सूची गिनाई, "रूपवती पत्नी, करोड़ों की संपत्ति, राजकुमार जैसे दो पुत्र, परिवारजन... और भी बहुत कुछ।"
अब गुरुदेव ने गंभीरता से कहा, "आपने त्याग तो बहुत कुछ किया, लेकिन क्या आपने जिसे त्यागा, उसके प्रति मोह और राग का त्याग किया?"
सद्गुरु के इस गहन प्रश्न से संन्यासी चकित रह गए। उन्होंने भीतर गहराई से अवलोकन करना शुरू किया। तब उन्हें यह समझ आया कि भले ही उन्होंने बहुत कुछ छोड़ दिया, लेकिन जिसे छोड़ा, उसके प्रति राग का त्याग तो अभी तक नहीं किया था।
वे सोच ही रहे थे कि इससे पहले सद्गुरु ने बोलना शुरू किया:"अभी गहराई से सोचो कि जिसे तुमने त्यागा है, क्या उसका कई गुना तुमने यहाँ खड़ा नहीं किया है? जैसे:
वहाँ के बड़े घर का त्याग किया, लेकिन यहाँ उससे कई गुना बड़ा आश्रम और मठ बना लिया।
कुछ करोड़ों की संपत्ति छोड़ दी, लेकिन यहाँ तो 200-500 करोड़ के धनाढ्यों को पकड़ लिया। मतलब, धन को भले ही छोड़ दिया हो, लेकिन धनवानों को कहाँ छोड़ा?
एक पत्नी का त्याग किया, लेकिन यहाँ आकर तो कितनी उपासिका को अपना बना लिया।
संसार में केवल दो पुत्रों को छोड़ा, लेकिन यहाँ तो सैकड़ों शिष्यों की लालसा और भी अधिक प्रबल हो गई।
वहाँ सीमित परिवारजनों का परित्याग किया, लेकिन यहाँ तो हजारों भक्तों की भीड़ खड़ी कर दी।
और संसार में प्रसिद्धि का कोई आग्रह नहीं था, लेकिन यहाँ दिन-रात इस पर केंद्रित हो गए कि कैसे अपनी प्रसिद्धि बढ़े, कैसे नाम चमके।"क्षणभर रुककर सद्गुरु ने फिर कहा:"
7. भीतर कितनी वासनाओं के साँप लोट रहे हैं।
8. अपनी मनमर्जी करवाने की प्रवृत्ति क्या कम हुई है?
9. कोई समकक्ष थोड़ा भी आगे बढ़ जाए तो भीतर आग-सी लग जाती है।
10. स्वाद की लालसा कितनी प्रबल हो गई है।
11. प्रसिद्धि और प्रशंसा सुनने के लिए कितनी तरकीबें आज़माने लगे हो।”
“वत्स! अंतिम बात बस सूक्ष्मता से सोच लो कि बाहर जैसा सम्मान-सत्कार चाहा है, क्या वैसा ही भीतर का जीवन है?"
सद्गुरु की बातों को सुनते-सुनते शिष्य का हृदय झकझोर उठा। सच्चा सन्यासी जीवन क्या है, यह आज सद्गुरु से समझ में आया। अब तक त्यागमय जीवन के आनंद का अनुभव क्यों नहीं हुआ? क्योंकि बाहरी त्याग भी सही नहीं था और आंतरिक त्याग तो बिल्कुल भी नहीं था। ऐसे में उस आनंद की अनुभूति कहाँ से होती!
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