(नगर में फैली हुई “मारी” वह दूसरी कोई नहीं मगर खुद की बेटी राजकुमारी रत्नमंजरी है, ऐसी शंका राजा के मन-मस्तिष्क में जब हो चुकी थी। तब इस शंका के समाधान के लिए राजा अब क्या करते हैं? पढ़िए। )
नदी में बहते हुए पानी की तरह दो महीने बीत गये थे। अमर को अपने प्राणप्रिय मित्र मित्रानन्द की कोई खबर नहीं मिली थी।
“रत्नसार श्रेष्ठी!” रत्नसार श्रेष्ठी ने दो महीने तक अमर को अच्छी तरह संभाला हुआ था। अमर को एक भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई थी।
“जी!” श्रेष्ठी ने विनयपूर्वक जवाब दिया।
“मुझे दिया हुआ मित्रानन्द का समय आज पूर्ण हो गया है। वो अभी तक आया भी नहीं है, और उसकी वीतक कथा भी हमें सुनने में नहीं आयी है। मुझे तो पक्का यकीन है कि, उसे मेरे पीछे कोई बड़ी आफत में…” कोयल का मीठा स्वर सुनाई दिया, उसमें अमर के आखिरी शब्द दब गये।
“अमर! देखिये!… कोयल भी आपको अशुभ बोलने के लिए मना कर रही है। सब अच्छा ही हुआ होगा।” शकुन-शास्त्र के जानकार श्रेष्ठी ने कहा।
“जो भी हो, पर मैं अपने मित्र को दिये हुए वचन को पूर्ण करूँगा। कल मेरा चिता प्रवेश तय है। आप नगर में घोषणा करवा दीजिए – एक मित्र के लिए अपनी जान देने वाले अमर की अमरगाथा मैं इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित कराना चाहता हूँ।”
श्रेष्ठी ने अमर की आँखों में दृढ़ निश्चय देखा। उसे पलटना असम्भव लग रहा था।
“हाँ जी!” कहकर वो अगले दिन की तैयारी में जुट गया।
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काले घनघोर बादल जैसा धुआं चिता से निकल रहा था। श्रेष्ठी ने अग्निप्रवेश की सारी तैयारी कर रखी थी। पूरी रात श्रेष्ठी ने यही काम किया था।
लोगों के झुंड नगर के बाहर यह मित्रता के बेनमून उदाहरण को देखने उमड़ रहे थे। आग की तरह अमर के चिताप्रवेश के समाचार नगर में फैल चुके थे।
महापुरोहित विधिकारक के रूप में वहाँ उपस्थित था। राजा अब बूढ़ा हो चुका था, और पिछले एकाध महीने से उसकी तबीयत और ज्यादा बिगड़ गई थी, इसलिए वो आ नहीं सका था।
सुबह में उठकर अमर ने अंतिम बार प्रासाद में स्थित पुतली को गले लगाया।
“इस भव में भले ही हम ना मिल सके, पर अगले जन्म में हम अवश्य मिलेंगे।” ऐसी ध्वनि उसके हृदय से निकल रही थी।
मित्रानन्द मित्र की, अपने पास जो वस्तुएँ थी, उसे उसने आखरी बार स्पर्श कर लिया और अपने लिए शहीद हो चुके अपने मित्र के कल्याण के लिए उसने भगवान से प्रार्थना की। जैसे भगवान ने उसकी प्रार्थना सुनी हो, उसका सूचन करता हुआ फूल ऊपर से गिरा।
उसके बाद रत्नसार श्रेष्ठी ने उसे स्नान आदि जो चिताप्रवेश के लिए आवश्यक थे, वे कृत्य करवाये। और आखिरी बार उसे चिताप्रवेश के दु:साहस से वापस फिरने की विनती की। अमर का निर्णय अटल था।
“ॐ भूर्भुवस्वाहा:…” मंत्रोच्चार का राजपुरोहित ने प्रारंभ कर दिया था। मुहूर्त का समय अब ज्यादा दूर नहीं था। अमर चिता के पास, चंदन से चर्चित अंग के कारण सुबह के प्रकाश में सूर्य की तरह चमक रहा था। उसके मुख पर अटूट बल नज़र आ रहा था।
“अमर…” बंद आँखों से खड़े हुए अमर को राजपुरोहित की आवाज सुनाई दी। ‘समय हो गया है। अग्निदेवता तेरे ग्रहण के लिए तत्पर हैं। प्रस्थान करो…’ राजपुरोहित के स्पष्ट शब्दों को सुनकर शांति की लहर वहाँ खड़े हुए प्रेक्षकगण में फैल गयी।
अमर ने आखरी बार अपने मित्र को याद किया। कोई उसे बुला रहा हो, उसे ऐसा अनुभव हुआ। वह पीछे मुड़ा।
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नदी में स्थित गीली रेती की तरह रत्नमंजरी और मित्रानन्द के चेहरे पर मैल जम गया था। पिछले कईं दिनों की थकान उनके शरीर पर साफ दिखाई दे रही थी।
मित्रानन्द ने रत्नमंजरी को जब अमर की, और खुद दो महीने में वापस ना आये तो चिताप्रवेश करेगा, यह बात बतायी थी, तब रत्नमंजरी ने मित्रानन्द को दिन-रात प्रयाण करते रहने की अनुमति दी थी।
अब सामने ही पाटलीपुत्र की सरहद दिखाई दे रही थी। मित्रानन्द ने आकाश की ओर दृष्टि दौड़ायी। सामने किसी जगह से काला डिबांग धुँआ निकलता हुआ दिखाई दे रहा था।
“आखरी गाऊ ही बचा है राजकुमारी! जरा त्वरा करो!” रत्नमंजरी ने अपनी सांडणी को ठेस लगाई और वह पवन की तरह उड़ने लगी। तेज रफ्तार से रास्ता कटता गया। मित्रानन्द को सामने धुंधले आकाश में ऊँचा प्रासाद दिखाई दिया।
यहीं से ही मित्रानन्द अमर से जुदा हुआ था। दोनों थोड़ा और करीब पहुंचे। बहुत सारे लोग वहाँ एकत्रित हुए हों ऐसा मित्रानन्द को लगा। मित्रानन्द ने आज के दिन तक की गिनती की। 2 महिने 1 दिन…
मित्रानन्द को पता चल गया कि क्या चल रहा है। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसे दूर से राजपुरोहित का चमकता हुआ सिर दिखा। सूर्य के जैसे चमकता हुआ अपना मित्र भी वहाँ ही उसे दृष्टिगोचर हुआ। वह आँख बंद करके चिताप्रवेश के लिए तैयार हो रहा हो, ऐसा उसे नजर आया।
वह तीर की तरह अपनी सांडणी से उड़ा। तीर जैसे ही उसके शब्दों ने नीरव सी शांति का छेद कर दिया।
“अमर…अमर…” अनर्थ होने की आशंका से वह अपने हृदय के भरपूर जोश के साथ आवाज देता रहा।
अमर ने पीछे देखा।
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दशहरे में लगने वाले आसोपालव के तोरण जैसे अश्रुओं के तोरण उपस्थित प्रजा की आँखों में बंध गये।
जिंदगी में पहली बार पाटलीपुत्र की प्रजा को एक अभूतपूर्व मित्र-मिलन निहारने को मिला था। अग्निदेवता ने भी मित्रों के स्नेह की आहूति से तर्पित हो गये हो ऐसा जताने के लिए अमर को आबाद मुक्त कर दिया था।
एक-दो घड़ी न जाने कितने समय तक दोनों मित्र एक-दूसरे के गले लगकर एक ही जगह पर खड़े थे। दोनों की आँखों में जनता के तोरण को भिगोने वाली मूसलाधार बारिश छायी हुई थी। एक अत्यंत आश्चर्यकारी घटना घटी थी पाटलीपुत्र के इतिहास में।
रत्नमंजरी एक कोने में खड़ी-खड़ी यह दो मित्रों के मिलन को देख रही थी। अमर की दृष्टि उस पर पड़ी। स्तम्भ में तराशी हुई पुतली के सौंदर्य से भी ज्यादा मनमोहक सौंदर्य रत्नमंजरी का था। वह मंत्र-मुग्ध वहीं का वहीं खड़ा रह गया। उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
मित्र के हास्य ने उसे उसकी दुनिया से बाहर निकाला। उसे जो चाहिए थी, वह स्त्री स्वर्ग की अप्सरा की तरह सामने ही खड़ी थी।
“अब कौन-सी देरी है?” मित्रानन्द ने अमर को इशारा किया। यह भाभी तुझे संपूर्णतया समर्पित है। इसकी कथा बहुत लंबी है। पर अभी इसका अवसर नहीं है। मौज का अवसर है।” मित्रानन्द के शब्द सुनकर अमर हँस पड़ा।
वह रत्नमंजरी की ओर गया।
“तू तैयार है ? मित्रानन्द ने तुझे सारी बातें बतायी ही होगी ना?” रत्नमंजरी नत मस्तक हो गई।
“प्राणनाथ! ये प्राण आपके ही हैं। आपको जो करना हो, वह कर सकते हैं” उसने अपना हाथ अमर के हाथ में रखा।
दोनों अग्नि के सामने गये। राजपुरोहित वहाँ खड़े ही थे। अग्नि की साक्षी में दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया। लोगों में आनंद की लहर दौड़ गई। मौत का मंच विवाह के मंडप में परिवर्तित हो गया।
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फूलो में गुनगुन करते हुए भँवरों की तरह सभी लोग अंदर-अंदर गुनगुना रहे थे।
सभी के मुँह में एक ही दिन में घटित विविध घटनाओं की बातों की ही चर्चा हो रही थी।
“अमर का तो भाग्य है भाई!… और वह रत्नमंजरी! जैसे कि साक्षात स्वर्ग की रंभा! और वह मित्रानन्द! बृहस्पति को भी पीछे छोड़ दे वैसी उसकी बुद्धि! क्या समन्वय रचा है परमात्मा ने!”
अचानक ही गुनगुनाहट को चीरता हुआ घंट का घंटारव सुनाई दिया। सभी की बातें स्तंभित हो गई। मित्रानन्द, अमर और रत्नमंजरी का भी वार्तालाप रुक गया। बेताब प्रजा राजमार्ग की और देखने लगी।
इस घंट का उपयोग केवल दो ही अवसरों पर होता था। या तो युद्ध के समय, या राजा के मरण के समय पर। “क्या हुआ होगा?” सभी के मन में एक ही विचार दौड़ने लगा।
नगर के दरवाजे से सैनिक घोड़े पर आरूढ़ होकर भागते हुए दिखाई दिये। आगे जो सेनाधिपति था, उसने अपना घोड़ा राजपुरोहित के सामने खड़ा किया। वह घोड़े की लगाम पकड़कर नीचे उतरा।
राजपुरोहित के पास आकर राजपुरोहित के कान में कुछ बोला। राजपुरोहित के चेहरे की रेखाएँ बोले गये शब्दों के साथ बदलती गई। बलाधिपति अपनी बात कहकर घोड़े के पास खड़ा रह गया।
“प्रजाजनो !” राजपुरोहितने अपनी पहाड़ी आवाज में गर्जना की! “आज बहुत दु:खद समाचार यह बलाधिपति लाये हैं।
हमारे राजा इन्द्र महल की शोभा बढ़ाने प्रयाण कर चुके हैं।”
( क्रमशः )
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