(अमरदत्त और रत्नमंजरी के शादी के पश्चात राजपुरोहित के पास सेनाधिपति आए और राजा के अकाल मरण के दु:खद समाचार दिए। आगे क्या होता है पढ़िए।)
कोयल के कंठ से निकलते मधुर संगीत के जैसे शब्दों का संगीत पूरी प्रजा के मुँह से निकल रहा था।
‘क्या स्त्री मिली है अमर को…’
‘क्या धैर्य है मित्रानन्द का…’
‘अमर का भाग्य सच में ही अमर – यानी देव जैसा है।
ऐसे कितने ही वाक्य वातावरण को संगीतमय कर रहे थे।’
कभी भी अपनी खुशी नहीं जताने वाला राजपुरोहित भी प्रजा का उत्साह और इस अकल्प्य घटना को देखकर अपनी खुशी को व्यक्त करने के लिए अमर के पास आया। राजपुरोहित के लिए भी यह घटना स्वप्नवत् ही थी।
“अमर…” पहला शब्द राजपुरोहित ने बोला, और उतने में ही प्रजा में एक सन्नाटा छा गया। अचानक सब के शांत हो जाने पर राजपुरोहित के शब्द भी अपने गले में ही अटक गये।
प्रजा में अचानक छा गई शांति का कारण जानने के लिए अमर, मित्रानन्द, राजपुरोहित सभी के चेहरे एक साथ प्रजा की शांति के उद्भव स्थान की ओर मुड़े।
धूल की डमरियाँ वातावरण में उड़ रही थीं। राजपुरोहित की आँखें उस तरफ मँडरा रही थीं। राजसैनिकों के अधिपति को देखकर राजपुरोहित के हृदय में एक अव्यक्त भय फड़फड़ा रहा था। उसके चेहरे की लकीरें कुछ अनिष्ट का सूचन कर रही हो, राजपुरोहित को ऐसा अनुभव हो रहा था।
राजपुरोहित के पास अधिपति का घोड़ा आया। अधिपति नीचे उतरा। राजपुरोहित के सामने वह झुका और किसी को भी नहीं सुनाई दे वैसी आवाज में राजपुरोहित के कानों में अधिपति कुछ गुनगुनाया। राजपुरोहित के चेहरे की रेखाएं तंग होती गईं।
‘ऊँ नमः शिवाय…’ शब्द राजपुरोहित के मुँह से निकल पड़े।
समुद्र में आ रही भरती की तरह दुःख की भरती समस्त प्रजा पर छा गई।
दुःख, सुख, फिर से दुःख… एक ही दिन में तीन-तीन ऐसे प्रसंग घट चुके थे, कि जिसने प्रजा को किंकर्तव्यमूढ़ कर दिया था।
मौत का मचान महोत्सव में परिवर्तित हो जाने के बाद फिर से मौत में परिवर्तित हो गया था। एक अकल्पनीय झटका प्रजा को लग गया था।
राजपुरोहित के मुख की दयनीय स्थिति को देखकर प्रजा समझ चुकी थी कि कुछ अनिष्ट समाचार सुनने को मिलने वाले हैं। सभी चित्रवत् एकदम स्थिर हो गये थे। मित्रानंद की मन:स्थिति भी अनिष्ट घटना के दबाव के कारण चंचल हो गई थी।
“प्रजाजनो !” गहरी, शोक भरी आवाज से पुरोहित ने कहा। प्रजा के रोम-रोम में दुःख की अनुभूति फैल गई।
“केशवाधिपति ने बहुत ही दुखद समाचार दिये हैं। मेरे मुँह से वे शब्द नहीं निकल रहे हैं, पर…
राजपुरोहित की आँखों से अश्रु निकल आये। पहली बार प्रजाजनों ने राजपुरोहित को इतने तनाव में देखा था।
“हमारे राजा बिना कोई संतान के आज अचानक दिवंगत….” राजपुरोहित के गले में आवाज अटक गई। वे धरती पर निढ़ाल होकर गिर पड़े।
समग्र प्रजा दंग रह गई। अमर के चेहरे पर भी गहरा शोक छा गया। रत्नमंजरी की आँखें बिना कारण सहज ही बहने लगी। पीछे से अनिष्ट के सूचन को देने वाला घंटनाद होने लगा। अंतःपुर से रोने की आवाज सभी को सुनाई दे रही थी। वह रुदन कल्पांतकाल के रुदन से भी ज्यादा भयावह था।
क्षीर-सागर के गहराई की गंभीरता जैसी गंभीरता सभामंडप में छाई हुई थी। लाखों की जनमेदनी राजप्रासाद के बाहर खड़ी हुई थी।
“राजपुरोहित जी ! अब क्या ? आगे कैसे बढ़ेंगे ?” सभी के चेहरे पर घूम रहे प्रश्न को मंत्री सुबोध ने वाचा दी। सबकी नजरें लगातार राजपुरोहित की ओर ही एकटक बंधी हुई थी।
राजपुरोहित ने पाटलिपुत्र के राज्य को कभी भी अपनी सेवा से वंचित नहीं रखा था। और इसीलिए पाटलिपुत्र को एक गौरवशाली स्थान पर पहुँचाने में राजपुरोहित की अहम् भूमिका थी। पर आज पूछा गया प्रश्न उनके लिए भी नया था।
“राजन् ! आप इतनी जल्दी हमें छोड़कर क्यों चले गये।” दिन में लगभग सौ बार राजपुरोहित के मन में यह वेदना उठती थी। राजपुरोहित को भी अपने सामने रखे गये प्रश्न का जवाब नहीं मिल रहा था।
“जब भी तुझे राह ना मिले तो शास्त्रों की चाह करना।” राजपुरोहित को अपने गुरु के वचन याद आ गये। राजपुरोहित ने अपने पास पड़ी हुई एक पोथी अपने हाथ में ली। मंत्र प्रकरण, तंत्र प्रकरण, अनाथ प्रकरण; पन्ने फेरते-फेरते राजपुरोहित रुक गये।
अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित करके राजपुरोहित कुछ पढ़ने लगे। राजसभा में बैठे हुए सदस्यों के चेहरे पर कुछ आशा की किरणें दिखाई दी।
राजपुरोहित के चेहरे पर एक अजब सी रौनक अचानक आ गयी। मंत्रीश्वर अपने स्थान से थोड़े आगे आये। राजपुरोहित ने ऊपर देखा।
“मत्रीश्वर सुबोध !” गजब का आत्मविश्वास पुरोहित के कंठ की आवाज में सुनाई दी। प्रश्न का हल राजपुरोहित को मिल गया था।
“जी…” चेतक की तरह राजपुरोहित के शब्दों को पी रहे मंत्रीश्वर खड़े हो गए।
“पाँच वस्तुएँ तैयार करनी है।”
ध्वनि-विस्तारक यंत्र को भी फीका कर दे ऐसी आवाज घोषणा करने वाले के कंठ से निकल रही थी। उसकी आवाज में गहराई थी।
“सुनो ! सुनो ! सुनो ! हमारे राजा की बिना संतति के मृत्यु हो जाने से राज्यसभा ने नये राजा बनाने के लिए पाँच वस्तुएँ तय की हैं। जिस व्यक्ति के द्वारा ये पाँच वस्तुएँ पूर्ण होगी उसे नया राजा घोषित किया जायेगा।” पीछे से जोर से ढोल बजने लगा। ढोल की आवाज पूरी नगरी में गूँजने लगी।
“और यह विधान दैनिक है। हमारे शास्त्रों में यह विधान दिया गया है। देखो !” घोषणा करने वाले ने राजपुरुषों के द्वारा बताए एक स्थान की ओर इशारा किया। वहाँ एक हाथी, एक घोड़ा खड़ा हुआ था। उन पर राजपुरोहित कोई मंत्रोच्चार कर रहे थे। राजपुरोहित की ओर सभी की दृष्टि गई।
“राजपुरोहित एक के बाद एक पाँच वस्तुओं को मंत्रवासित कर रहे थे। फिर से घोषणा करने वाले की आवाज सुनाई दी। ये पाँच वस्तुएँ जिस पर प्रसन्न होगी, वह सौभाग्यशाली व्यक्ति हमारा राजा बनेगा।… बोलो राजाधिराज की…”
“जय…” प्रजाजनों के मुँह से जयघोष निकला। राजपुरोहित ने अपनी आँखें बंद की और प्रभु को प्रार्थना की।
‘हमें अच्छा राजा देना प्रभु।’
कमल की पँखुड़ियों की तरह एकदम अलिप्त होकर अमर और रत्नमंजरी अपनी घटनाओं का संस्मरण कर रहे थे। मित्रानन्द उन दोनों प्रेमियों को अलग छोड़कर कुछ दूरी पर खड़े होकर राज्य में चल रहे कोलाहल को देखने में मशगूल था।
“अब हम कहाँ रहने वाले हैं ? मुझे दूसरे के पास हरण करवा कर तो आप ले आये, पर मैं राजपुत्री हूँ। मुझे राजपुत्री के रूप में रखने की हैसियत तो आपके पास है ना ?” रत्नमंजरी अमर की ओर देखकर हँसने लगी। अमर का चेहरा भी रत्नमंजरी की बात सुनकर गंभीर सा हो गया।
इस चीज का विचार तो अमर ने कभी भी किया ही नहीं था। अपने मित्र मित्रानन्द के लिए उसने अपनी राजगद्दी भी कुर्बान कर दी थी।
अमर का चेहरा देखकर रत्नमंजरी हँस पड़ी।
“मैं तो ऐसे ही कह रही थी। आप के मिल जाने के बाद मुझे और कुछ भी नहीं चाहिये। आपका भाग्य…” रत्नमंजरी अपना वाक्य पूर्ण करे, उसके पहले दोनों को जबरदस्त कोलाहल सुनाई दिया, दोनों बाहर गये। बाहर बहुत-से लोग खड़े-खड़े किसी वस्तु को देख रहे थे।
अमर ने भी उस तरफ दृष्टिपात किया। अमर ने सामने से हाथी को आते हुए देखा। अमर के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। सामने हो रही घटनाओं को देखकर वह दंग रह गया। पहली बार उसने देखा कि छत्र अपने आप हवा में चल रहा था। उसी तरह हवा में चल रहे कलश और चामर को भी अमर ने देखा।
रत्नमंजरी के लिए भी यह दृश्य एक कौतुक था।
“यह क्या है ?” ऐसा कुछ रत्नमंजरी पूछने जाये उससे पहले तो हाथी अमर के सामने आकर खड़ा हो गया। मित्रानन्द अमर के पास आ गया। राजपुरोहित हाथी के पास ही खड़ा था।
समस्त प्रजाजनों की दृष्टि भी उसकी तरफ थी। अचानक हाथी ने गर्जना की। पास खड़े घोड़े ने भी अपनी आवाज निकाली “अहंहंहं…अहंहंहं”
“क्या चल रहा है ?” अमर को कुछ समझ नहीं आया। उतने में ही छत्र अपने आप आकाश में उड़कर अमर के मस्तक पर स्थिर हो गया। चामर आजू-बाजू में ढलने लगे। कलश आकर अमर के पैरो पर लुढ़क गया।
“बोलो, अमर महाराजाधिराज की…” हर्ष से भरी हुई आवाज मित्रानन्द के मुँह से निकल पड़ी।
“जय”… जयकारे की आवाज से पूरा पाटलिपुत्र गूँज उठा। पाटलीपुत्र को अपने नये राजा मिल गये थे।
अल्कापुरी को भी निस्तेज कर दे ऐसी रोशनी राजमहल से निकल रही थी। ऊँकार से शुरू हो रहा अगणित मंत्रों का मंत्रोच्चार पूरी राजसभा में गूँज रहा था।
पूरी राजसभा खचाखच भरी हुई थी। एक सुई भी समा न सके उतनी भीड़ आज छलक रही थी। आज राज्याभिषेक का महामहोत्सव चल रहा था। पाटलिपुत्र में आश्चर्यकारी घटनाओं की आखिरी श्रृंखला की घड़ी आ पहुँची थी।
अमर राजगद्दी पर बैठा हुआ था, रत्नमंजरी उसके पास बैठी हुई थी। वह विचारों में गुम हुई नजर आ रही थी। राजपुरोहित पाटलिपुत्र की प्रथा के अनुसार एक धार्मिक ग्रंथ लेकर आगे आया। अमर खड़ा हो गया।
“इन सभी लोगों की साक्षी में और इस पवित्र ग्रंथ की साक्षी में मैं राजपुरोहित ब्रह्म आपको पाटलीपुत्र का राजा घोषित करता हूँ।” अमर ने दोनों हाथ जोड़ दिये।
अभिषेक की विधि पूरी होने के बाद अमर राजा के संबोधन का समय करीब आ गया। इतनी सारी सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद प्रजा का संबोधन करने में अमर को डर नहीं लग रहा था। मंत्रीश्वर ने राजा की छड़ी पुकारी और अमर राजा खड़ा हो गया।
उसकी चलने की पद्धति को देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि अमर का अभी ही राज्याभिषेक हुआ है। वह राज्याभिषेक के लिए तैयार किये गये मंच पर आगे आया।
“मेरे प्यारे प्रजाजनों !” अपने उदात्त स्वर में अमर राजा ने प्रस्तावना की। किसी भी व्यक्ति की सिद्धि के पीछे उस व्यक्ति के पुण्य के साथ-साथ कुछ सहायकों की महत्व की भूमिका होती है। प्रजाजनों! मैं भी पाटलिपुत्र के लिए तो विदेशी ही था, पर यहाँ की प्रजा ने मुझे अपने राजा के रूप में स्वीकार करके और खास करके पिछले दो महीने में मुझे संभालकर मुझ पर बहुत उपकार किया है। और इसीलिए…” समग्र प्रजा में नीरव शांति छायी हुई थी। राजा के एक-एक शब्द को सुनने के लिए प्रजा उत्सुक थी।
“…मुझे इस स्तर पर पहुँचाने के लिए मेरे मित्र मित्रानन्द को मैं महामात्य पद पर आरोपित करता हूँ।” लोग जयकार करते उसके पहले राजा ने अपना हाथ ऊपर करके प्रजाजनों को शांत रहने का इशारा किया। “और साथ में रत्नसार श्रेष्ठी…” सभी की नजर श्रेष्ठी की ओर गई। वह नतमस्तक होकर खड़ा था। “…कि जिन्होंने मुझे पुत्रतुल्य संभाला, उन्हें मैं नगरसेठ की पदवी से सुशोभित करता हूँ।”
प्रजा में आनंद की लहर फैल गई। तीसरी बार जय-जयकार की आवाज पाटलिपुत्र में गूँज उठी।
अलकतक रस से भी ज्यादा शीतल पवन झरोखे से आ रहा था। पर बाहर की ठंड मित्रानन्द मंत्री के मन में उद्भवित गर्मी को शांत करने के लिए सफल नहीं हो रही थी।
राजा अमर के मुख पर भी मंत्री के हृदय की गर्मी का लालपन दिखाई दे रहा था। राजा बनने के बाद अमरदत्त पाटलिपुत्र को एक ऐसे गरिमापूर्ण स्थान पर स्थापित करने में सफल हुआ था, कि जो असंभव कार्य था। एकछत्र शासन अबाधित रूप से चल रहा था। दुश्मनों की आँखें इस ओर देखने के पहले ही चकाचौंध हो जाये ऐसा तेज पाटलीपुत्र से निकल रहा था।
पर उन सारी सिद्धियों में भी अमर और मित्रानन्द के हृदय बैचेन ही थे।
“मित्रानंद ! कितनी रात बीत गई है ! पर तू निर्णय नहीं ले रहा है !” जम्हाई खाते-खाते गंभीर चेहरे से अमर राजा ने मित्रानन्द के समक्ष देखा।
“राजन् ! किस तरह से निर्णय ले लूँ ? एक ओर विरह है, दूसरी ओर भय है…” क्या करूँ ? सख्त हृदय से मंत्री मित्रानन्द की आँखों में आँसू भर आये। राजा मित्रानन्द की असहायता को देख रहे थे।
“यह मित्रानन्द मंत्री है ?” राजा के मन में विचार चमका।
“देख मित्रानन्द ! तू उस शव के द्वारा कहे गये वचनों को भूल नहीं सकता है, इसलिए उस गाँव के नजदीक होने के कारण तू सो भी नहीं सकता है। इस तरह से तो तू जीते जी मर जायेगा… फिर…” राजा की आँखों में भी पानी आ गया। एक अज्ञात उदासी वातावरण में फैल गई। आधी घड़ी तक मौन छाया रहा।
“राजा !” मित्रानन्द ने मौन तोड़ते हुए कहा, “मैंने निर्णय ले लिया है। मुझे पाटलिपुत्र छोड़कर जाना है। सिर्फ जाना नहीं है, पर बहुत दूर जाना है। मुझे अनुमति दीजिये।” राजा के विरह से मित्रानन्द की आँखें बरस रही थी। पर सभी परिस्थिति के आधीन थे।
भारी मन से राजा उठ खड़ा हुआ। शोक से भरी हुई आवाज में राजा ने आखिरी शब्द कहे,
“तथाऽस्तु…!”
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