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Temper : A terror – 14

Updated: Apr 7




(मंत्री मित्रानन्द शव के द्वारा कहे गए वचनों को भूल नहीं सकते थे, इसलिए राजा से मौंन अनुमति लेकर पाटलिपुत्र छोड़कर कहीं और चले गए। तत्पश्चात आगे क्या होता है पढ़िए…।)

भेड़–बकरियों की तरह सभी दासों को बाँध दिया गया था। वहाँ रहे हुए दासों की हालत अति दयनीय थी। उन सभी के कपड़े, कपड़े नहीं थे, पर फटे हुए चिथड़े थे।

डाकू जैसे दिखने वाले पाँच व्यक्ति वहाँ आए।

“ऐ ! यहाँ पर मालिक कौन है?” दासखाने से आ रही दुर्गंध के कारण मुँह बिगाड़कर एक डाकू ने पूछा ? एक चालीस जितनी उम्र का, व्यापारी जैसा, सफेद त्वचा वाला व्यक्ति बाहर आया।

“क्या है भाई ? इस तरह अकड़कर क्यों बात कर रहे हो ?” फारसी भाषा के लहजे वाली भाषा में व्यापारी ने डाकू को धमकाया। डाकू क्षण के लिए तो भौंचक्का रह गया। उसके साथ इस तरह से बात करने की ताकत जंगल में किसी की भी नहीं थी।

“बोलो! जल्दी काम बोलो! मुझे और भी बहुत काम है।” अपना मुँह देख रहे डाकू को व्यापारी ने कहा। व्यापारी के पूरे शरीर पर सोने के गहने चमक रहे थे। डाकू के चेहरे पर गुस्सा आ गया, पर वह शांत ही रहा। उसे पता था कि, इस गाँव के व्यापारी ऐसे पीतल जैसे स्वभाव के ही है।

“सेठजी! आपके लिए एक काम की चीज लाया हूँ, आप कहो तो दिखा दूँ।” फारसी व्यापारी के सामने जंगल के शेर ने बिल्ली जैसी आवाज से वचन का उच्चारण किया।

“क्या है ? अपने हाथ में रहे हुए पान को व्यापारी ने मुँह में रखा।“

पीछे खड़े हुए डाकू के साथी एक व्यक्ति को आगे लेकर आये। उस व्यक्ति के चेहरे पर नूर था। पर अभी के उसके हालात देखकर कोई भी उसे पहचान नहीं सकता था। उसकी एक आँख काली हो गई थी, क्योंकि उस पर किसी ने मुक्का मारा था।

व्यापारी ने ऊपर से लेकर नीचे तक उस व्यक्ति को देखा।

“ठीक है। इसकी आपको 200 सोना मोहरें मिलेगी। रखना हो तो छोड़ जाओ, नहीं तो जंगलों में इसके साथ मंगल गाते रहो…” व्यापारी की कर्कश भाषा सुनकर डाकू नख-शिख सुलग गया, पर वह चुप रहा। डाकू ने हाथ आगे किया।

“लो 150 सोना मोहरें! उसके पहले की 50 सोना मोहरें आपको देनी बाकी है। और हाँ…” व्यापारी ने डाकू की आँखों में झाँका। उसमें कम रकम मिलने की आग जल रही थी। “ऐसा कोई माल और मिले तो लेकर आना, फारस देश में दासों की जरूरत बहुत बढ़ गई है।” व्यापारी ने डाकुओं द्वारा लाए गए व्यक्ति के सामने देखकर कहा। व्यापारी के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थी।

 

गधों को भी शरम आ जाये, उतना बोझ इन गुलामों की पीठ पर लदा हुआ था। अच्छे अच्छों को दिन में तारे दिखा दे, और तारों को भी दिन दिखा दे, इतनी काली मजदूरी अपने दासों के पास कराने के लिए वह व्यापारी मशहूर था।

“क्या भैंसा की तरह काम कर रहे हो ?” गुस्से में फारसी व्यापारी ने छड़ी पटकी। सभी दास काँप उठे।

“देखो अगर बराबर काम नहीं किया तो, आज ही जाने वाले इस जहाज के साथ तुम्हें भी फारस में भेज दूँगा, और फिर तो…” फारस की सुनी हुई क्रूरता की बातें सभी के दिमाग में आ गयी। चमड़ी उतर जाये उससे अच्छा तो पसीना बहाना था। सभी दासों को फारस जाने की बात का पता था, फिर भी विकल्प ना होने के कारण सभी ने अपना कार्य चालू रखा।

आप काम करो या न करो, फारस जाने का भय तो सभी दासों के सर पर लिखा ही गया था। क्योंकि वह फारसी व्यापारी का गुलामखाना था कि जो अपने अमानवीय अत्याचारों के लिए बहुत ही कुख्यात था।

“क्या टेढ़े की तरह मेरे सामने देख रहा है ? काम पर लग…” तेजस्वी चेहरे वाले दास की ओर देखकर फारसी सेठ दहाड़ा। लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ, उसके होंठ गुस्से से काँप रहे थे।

फारसी व्यापारी की माथे की नसें तंग हो गईं।

“तू टेढ़े के साथ बहरा भी लग रहा है…” चाबुक जैसी जीभ के साथ-साथ हाथ की चाबुक भी चली। तेजस्वी दास की आँखों में और रोष छा गया। पर यह रोष पल दो पल में शांत हो गया। रोष दिखाने का फिलहाल यह स्थान नहीं था। जहर को जहर से ही मारना था।

दास ने अपने तेजस्वी चेहरे को झुका दिया फारसी व्यापारी के चेहरे पर अपने मूक विजय का आनंद छा गया।

उस आनंद के अहंकार में तेजवंत चेहरे वाले दास के चेहरे पर छलकते अटल निर्णय के तेज को देखना व्यापारी चूक गया। जहाज का होर्न बजा।

 

घटिका में गिरती रेत की तरह कालघटिका में समय की रेत गिरती जा रही थी। पूरी राजसभा में प्रहर घटिका के सिवा एक भी वस्तु की आवाज नहीं आ रही थी। लोग होने पर भी कोई भी नहीं था, ऐसी अनुभूति उस सभा के सभाजनों को हो रही थी।

आज 50वां दिनथा, 50वां दिन ! आज तक राजा को एक भी समाचार नहीं मिला था। उनके मुख पर इस बात का दर्द साफ दिखाई दे रहा था।

जाते-जाते अपने प्रिय मंत्री मित्र का राजा को किया हुआ वादा, राजा को याद आ गया। “मैं आपको हर रोज समाचार भेजता रहूँगा…”

राजा की आँखों से एक अश्रु उनके कपड़ों पर पड़ा। बालपन में घटी हुई एक एक घटनाएं राजा के मस्तिष्क में नदी के बहाव की तरह आ रही थी।

‘क्या हुआ होगा ? कहाँ गया होगा ? कहीं मौत ने उसे अपना निवाला तो नहीं बना दिया होगा ना ? ऐसे विचार वेताल की तरह राजा के मस्तक पर हावी होते गये।

“क्या हुआ होगा ?” राजा जोर से चीखा। सभी सभाजनों की आँखें अपने दयनीय राजा पर गईं। उनकी आँखों में भी राजा के दुःखों को देखकर आँसू आ गये। पर राजा को आश्वस्त करने में वे नाकामयाब रहे।

बार–बार ऐसे चिल्ला–चिल्लाकर रोते हुए राजा की आवाज राजसभा में गूँजती रही। दो पल के बाद चीखें बंद हो गई। पर दूसरी भयावह आवाज सभी को सुनाई दी।

सभी सभाजन खड़े हो गये। राजा लाश की तरह अपने सिंहासन पर बेहोश हो गया।

(क्रमश:)

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