(मंत्री मित्रानन्द शव के द्वारा कहे गए वचनों को भूल नहीं सकते थे, इसलिए राजा से मौंन अनुमति लेकर पाटलिपुत्र छोड़कर कहीं और चले गए। तत्पश्चात आगे क्या होता है पढ़िए…।)
दुर्गंध मारते हुए शवों से भी ज्यादा गंदी दुर्गंध चारों ओर से आ रही थी। वर्षों पुराना कचरा, नए कचरे के साथ मिलकर एक अभिनव दुर्गंध उत्पन्न कर रहा था।
नाक पर १० पड़ वाला कपड़ा पहनने पर भी उस दुर्गंधित कचरे की भयंकर दुर्गंध दूर रखने के लिए भाग रहा व्यक्ति समर्थ नहीं था। पर, इस बात की असर उस व्यक्ति पर नहीं हो रही थी। उसके नाक के ऊपर दिख रहे मुख पर आनंद छाया हो, ऐसा दिखाई दे रहा था।
नगर के द्वार वाले हिस्से को लांघकर वह व्यक्ति आगे बढ़ा। उसके पैर लगातार तेज गति से गटर के द्वार की तरफ जा रहे थे। ‘धड़ाम’ ऊपर से आवाज आई। दो एक क्षण के लिए दौड़ता हुआ व्यक्ति रुक गया।
‘एक समस्या में से दूसरी समस्या में ना गिरूँ तो अच्छा है’ उसके दिमाग में विचार आया। महा मुश्किलों से जैसे तैसे कितने पैंतरे करने के बाद यह व्यक्ति दासखाने से भागा था। अब वह वापिस फंसना नहीं चाहता था।
ऊपर से पैरों की आवाज सुनाई दी। उस व्यक्ति का मन सांझ के भूतकाल में खो गया। जहाज से दिख रहा बड़ा समुद्र उसकी आँखों के समक्ष आ गया।
“हे मित्रानंद! ज्यादा होशियारी मत दिखाना…” फारसी सेठ की आवाज सुनाई दी। “यहाँ से भागने का विचार भी किया, तो तेरी सूअर से भी ज्यादा बुरी हालत कर दूँगा।” फारसी सेठ का बेरंगी मुख सामने आया।
ऊपर से चहल-पहल की आवाज सुनाई दी। चारों और विष्टा और मूत्र फैले हुए थे। मित्रानंद को फिर से गटर के अंदर जाने की स्फुरणा हुई, लेकिन उसके पैर वहीं थम गए। ऐसा मित्रानंद को लगा मानो एक अव्यक्त भय उसकी सारी शक्तियाँ हर रहा हो।
सामने से आ रहे किसी व्यक्ति की ओर मित्रानंद की दृष्टि पड़ी। वह वहीं अवाक् हो गया।
‘मैं तुझे छोड़ूँगा नहीं, मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा।’ अपने फारसी सेठ की चीखें मित्रानंद के मस्तिष्क में गूंजने लगीं।
सामने वाले व्यक्ति पर थोड़ा प्रकाश पड़ा। मित्रा-नंद को उसका पहनावा दिखाई दिया। मित्रानंद को दासखाने की यातनाएँ याद आ गईं।
मित्रानंद के तो छक्के छूट गए।
दिए की लौ के जितनी भी छोटी आशा रानी को दिखाई नहीं दे रही थी।
“राजन्! राज्यसभा तड़प रही है। आप ये शोक कितने दिन तक लेकर बैठे रहेंगे? आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं कि मंत्री मित्रानंद मर गए हैं। क्या आप उनके कौशल्य को नहीं जानते?” रत्नमंजरी रानी ने अपना अंतिम प्रयास किया।
अपने प्रिय मित्र मित्रानंद मंत्री के कोई भी समाचार नहीं आने से निराशा की खाई में डूबे हुए राजा अमरदत्त के मुख पर कुछ-कुछ आश्वासन के भाव छलके।
“नहीं… नहीं…!! ऐसा अशुभ मत बोलो। मैं ऐसी किसी भी बात को नहीं मानता। पर मित्रानंद का क्या हुआ होगा?” रानी को राजा के मुख पर फिर से चिंता के बादल उमड़ते हुए दिखाई दिए। ये तूफान में बदल जाए, उसके पहले ही उसे शांत करने के लिए रानी, राजा के पास आई।
“देखिए राजन्! आप कर्म के गणित के जानकार हैं, सुज्ञ हैं। हमारे मंत्री का क्या हुआ है, यह तो हम में से कोई भी नहीं जानता। पर एक व्यक्ति ऐसा है, जो यह सब जानता है।”
“कौन? कौन है वह?” राजा एकदम तत्पर दिखे।
किसी ने उसी समय राजद्वार खटखटाया। दोनों के मुख उस तरफ मुड़े। सामने उद्यान पालक दिखाई दिया। उसकी उपेक्षा करके राजा ने रानी से अपनी जिज्ञासा का समाधान करने वाले व्यक्ति का नाम बोलने का इशारा किया।
“तो राजन्! वे व्यक्ति अतिशय ज्ञानी गुरु हैं। दूसरा कोई भी व्यक्ति…” वाक्य पूर्ण हो उससे पहले ही उद्यान पालक माली आगे आया।
“महाराज! यही समाचार मैं आपको देने आया हूँ।”
“कौन से समाचार?” राजा ने आश्चर्य के साथ माली की ओर देखा।
“महाराजाधिराज! एक साधु महात्मा हमारे उद्यान में पधारे हैं। और उनके बारे में ऐसा सुना है कि, वे सब कुछ जानते हैं…” माली ने एकदम धीरे से अंतिम पंक्ति कही।
राजा के मुख पर एक अनोखी प्रसन्नता दिखाई दी। उन्होंने अपना हार निकालकर माली के गले में डाल दिया। माली के गले में वह हार ध्रुव के तारे की तरह चमकने लगा।
बांस की सली से भी पतले शरीर वाले सभी दास भूमि पर निश्चेत पड़े हुए थे। उनके शरीर को देखकर लग रहा था, मानो किसी ने उनका पूरा चैतन्य हर लिया हो।
जहाज के तूलक के नीचे के भंडक में सभी दासों को भेड़ बकरियों की तरह बांधकर बंद किया हुआ था। आधे दास तो उस भंडक की दुर्गंध और घुटन के कारण अचेत पड़े हुए थे।
एक तेजवंत मुख वाला दास करुणा से भरी दृष्टि से इन सभी पशु से भी निकृष्ट स्थिति में पड़े हुए दासों की ओर देख रहा था। ‘ये सभी कब मुक्त होंगे? मैं कब छूटूँगा?’ उसके दिमाग में एक के बाद एक विचार चल रहे थे। उस भंडक के कोने में वह अलग से बैठा हुआ था।
इस तेजवान चेहरे वाले दास ने बहुत सारे उपाय ढूंढने का प्रयास किया था। लेकिन फारसी सेठ के प्रकृष्ट प्रबंधों के कारण सब प्रयास निष्फल हो गए थे। फारसी सेठ अपने दासों को लेकर बहुत अधिक सजग था। एक भी दास भाग जाए, ऐसा फारसी सेठ को स्वीकार्य नहीं था।
‘मित्रानंद! अभी नहीं तो कभी नहीं! तू ऐसे भी मरेगा और वैसे भी। बोल मित्रानंद! किस तरह मरना है? साहस दिखाकर या बिना साहस किए?’ मित्रानंद दास ने चारों ओर फिर से ५० बार देखा। जहाज के भंडक में ऐसा कोई भी स्थान दिखाई नहीं दे रहा था, जहाँ से मित्रानंद को रस्ता मिल सके।
ऊपर से जहाज के चलने का संकेत देता हुआ भोंपू बजा।
‘मित्रानंद। चल उठ…’ अंतर से एक साहसिक पुरुष की आवाज प्रकट हुई। ‘मित्रानंद! हे मित्रानंद…!’
दास मित्रानंद अपने स्थान से खड़ा हो गया। समुद्र की महाकाय लहरें जहाज के साथ टकरा रही थीं। मित्रानंद ने अपना नियंत्रण खो दिया, और वह भूमि पर नीचे गिर गया। एक दूसरी लहर आई, और भंडक में पानी आने लगा। चारों और सभी दास चिल्लाने लगे।
मित्रानंद ने जहाँ से पानी आ रहा था उस स्थान की ओर दृष्टि की। वही जगह मित्रानंद के लिए इस नरक से गमन करने का स्थान था। वह बाकी दासों को लांघकर उस तरफ आगे बढ़ा।
रात का अंधेरा होने के कारण सभी के मुँह काले दिखाई दे रहे थे, इसलिए कोई किसी को पहचान सके ऐसी संभावना नहीं के बराबर थी।
उसने भंडक में कोई धारदार तीक्ष्ण चीज मिल जाए, इस हेतु इधर उधर दृष्टि दौड़ाई। भंडक के कोने में उसे एक चमकती हुई चीज दिखाई दी। वहां एक बड़ा छुरा पड़ा हुआ था। मित्रानंद ने छुरा हाथ में लिया और जोर से पानी के उद्गम स्थल पर प्रहार किया।
“अरे! कौन है भाई!” ऊपर के तूतक से किसी की आवाज आई और पैरों की आवाज सुनाई दी। ‘करो या मरो’ मित्रानंद ने दूसरा वार किया, और पानी का प्रवाह और तेजी से अंदर आने लगा। सभी दास चीखने चिल्लाने लगे। एक बड़ी सी लहर जोर से टकराई और भंडक का वह स्थान टूट गया।
ऐसा लगने लगा जैसे जहाज डूब रहा हो। मित्रानंद को उस पानी में अपना छुटकारा दिखाई दे रहा था, इसलिए वह उसी ओर जाने लगा। पीछे से उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा, और उसे पीछे खींचने लगा।
मित्रानंद ने पीछे मुड़कर देखा। उसे फारसी सेठ दिखाई दिया। और एक क्षण के लिए उसे लगा कि वह फिर से दासखाने का बंदी बन गया है। पर साहसिक शूरवीर योद्धा की आवाज अंतर्मन से आई, “अब नहीं…”
मित्रानंद ने फारसी सेठ के मुँह पर एक जोरदार मुक्का जड़ दिया। अपना संतुलन चूक जाने के कारण गालियाँ बड़बड़ाता हुआ शेठ पानी में डूबने लगा। मित्रानंद ने चैन की सांस ली।
मधुर स्वप्न से मित्रानंद को झंझोड़कर किसी ने बाहर निकाला। ‘हे मूर्ख! तू कौन है? शहर की गटर से प्रवेश करने का प्रयास क्यों कर रहा है?’ मित्रानंद ने आँखें खोली। सामने नगर के रक्षक चौकीदार दिखे। उनके चेहरे पर का क्रोध देखकर मित्रानंद को अपनी परिस्थिति का पता चला। उसकी आँखों में आंसू छलक आए। फिर से एक बार कैद में बंद होने का भय उसकी आँखों में छा गया।
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