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Temper : A Terror – 16

Updated: Apr 7




इंद्र विमान जैसा रथ राजमहल के प्रांगण में तैयार खड़ा हुआ था। धूमधाम से तैयारी चल रही थी। सद्गुरु के आगमन के समाचार राजा को मिलने के बाद एक अजीब-सा रोमांच अनुभव हो रहा था। 

यह रोमांस और किसी का नहीं, पर अपनी अदम्य जिज्ञाशा के समाधान का था। 

“राजन! तैयार…” अपनी प्राणप्रिय रानी रत्नमंजरी की आवाज सुनकर राजाने मुड़कर देखा। रत्नमंजरी के चेहरे पर भी आनंद का सैलाब छलक रहा था। 

“हां… बस! अब इतने दिनों से जो बात सता रही थी उसका समाधान मुझे मिल जाएगा। तैयार…” राजा के चेहरे पर आशंका सह स्मित आ गया। 50 दिनों के उन कालखंड में कितनी चीजें छुपी हुई होगी- यह जानने और ना जानने की मिश्रभावना राजा की हो रही थी। शायद कुछ अशुभ निकलेगा तो? 

“चलिए राजन! सारा इंतजाम हो चुका है।… अब बस आप प्रयाण करो उतनी ही देर…” सामने आए हुए प्रधान की ओर राजा ने देखा। दो मिनट तक राजा बिना कोई प्रतिभाव के खड़ा रह गया। राजा के ऐसे वर्तन को देखकर किसी ने कुछ नहीं कहा। 

अमीट भूतकाल की ओर कुछ क्षण के बाद राजा ने कदम बढ़ाया। 

गंगोत्री के प्रवाह की तरह मित्रानंद की आंखों से अपने दुर्भाग्य के अश्रु निरंतर बह रहे थे। उस समय साथ देने वाले भाग्य ने इस समय मित्रानंद को दगा दे दिया था। 

आज सुबह में जब मित्रानंद उठा था, तब वहां के दृश्य को देखकर वह कुछ पल के लिए स्तब्ध हो गया था। चारों तरफ शस्त्रधारी सैनिक खड़े हुए थे। 

“अय नमकहराम! बोल कौन है तू? असहय गाली-वाले शब्द सुबह उठते ही मित्रानंद के कानों में पडे थे। कौन बोल रहा है? क्या बोल रहा है? उसकी कुछ समझ आए उसके पहले ही मित्रानंद के खुले शरीर पर चाबुक का प्रहार हुआ। पीड़ा की एक गहरी सिसक उसके मुंह से निकल पड़ी। 

चाबुक मारनेवाली व्यक्ति उसके सामने आ गई। अच्छे-अच्छे कांप जाए वैसी उसकी पडछंद काया थी। मित्रानंद को उसमें अपनी मौत नजर आ रही थी। 

‘क्यों, क्या देख रहा है? कभी इंसानों को देखा तो है ना? कि इस तरह गटर की नालियोंमें चोरों की तरह घूमना ही तेरा काम हैं? हं…’

मित्रानंद के यंत्र जैसे मस्तिष्क के सामने खड़ी हुई पडछंद व्यक्ति के मन में चल रहे संशय को पढ़ लिया था। पर, प्रत्युत्तर देने की शक्ति को जैसे उसकी वाचा से किसीने छिन लिया हो, ऐसा लग रहा था। 

“देख! तू क्या कर रहा था, उस गटर में, यह बात मुझे नही बताई तो समझ लेना कि आज तेरी हालत श्मशान में सड रहे हाड़पिंजरो से भी खराब हो जाएगी। बोल कौन से राज्य का तू गुप्तचर है? बोल…” पडछंद व्यक्ति ने फिर से चाबूक उठाई। 

उस चाबूक की प्रहार के भय से भयभीत हुए मित्रानंदने अपनी पूरी किताब खोल दी थी, पर सब कुछ असफल हुआ था। शव का बोला हुआ वाक्य सफल होने जा रहा था। 

वोही नगर, वोही वृक्ष, वोही जगह पर अभी मित्रा-नंद खड़ा था। उसे जीने की आशा ना के बराबर दिखाई दे रही थी। मित्रानंदने रोते-रोते आखिरी पांसा फैंका। 

“मुझे छोड़ दो… आप मुझे छोड़ दोगे तो आपको मेरे राज्य से बहुत बड़ी जागीर दूंगा…” मित्रानंद के मुंह पर देखकर फांसी देने वाला पहलवान हँसने लगा। 

“अब तो मुझे जागीर मिले या ना मिले, तुझे तो भगवान की जागीर मिलने वाली ही है।… हँ…हँ… हँ…” शरीर से प्राणवायु निकाल दे ऐसा मुक्का मित्रानंद के पेट पर पड़ा। उसे खून की उल्टी हो गई। 

उसकी गर्दन को रस्सी में पहलवानने परो दिया। छूटने के फोगट के हाथ – पैर मित्रानंद मारता रहा। पर, यमराज ने आज निश्चय कर दिया था।

पहलवान ने अपने हाथ की रस्सी छोड़ी। मित्रानंद का शरीर ऊपर की ओर उठा। साथ ही उसका जीव भी उपर उठता गया।

 

सुरपुष्प जैसी महक उद्यान में से चारों और फैल रही थी। अंदर बैठे प्रभावक व्यक्ति के गुणों की सुगंध उस महक में व्यक्त हो रही थी। समग्र वातावरण को उस महक ने आशामय बना दिया था। 

राजा ने भी निराशामय सुंदर रथ से उतरकर अपने पैर उद्यान की आशापूर्ण धरती पर रखे। एक अकथ्य आत्मानंद की सहज अनुभूति राजा को हुई। उसके मन में चल रहा संताप शांत हो गया। 

उद्यान के प्रवेश द्वार पर स्वर्ण, रूपे और रत्नों से रचित अनेक रथों की पंक्ति खड़ी थी। राजा उन रथों की समृद्धि को देखकर दंग रह गया। अंदर बैठे पुरुष की ओजस्विता उन रथों में से बिना कुछ कहे व्यक्त हो रही थी। 

“राजन! सद्गुरु की ओर प्रस्थान करते हैं…” बगीचे की जगमगाहट से राजा को बाहर लाने के लिए रानी ने जानबूझकर शब्दों का सहारा लिया। 

“ओह…” कुछ क्षोभित होकर राजा बगीचे की ओर चलने लगे। राजा ने सामने घटादार वृक्षो की सुंदर पंक्तियाँ देखीं। उसके नीचे एक महात्मा बैठे हुए थे, जैसे कि वे वृक्ष के साथ अभिन्न हों। उनके आगे नगर के समृद्ध श्रेष्ठी, जो पूरे दिन अपने सात मंजिला आलीशान महल में ही लेटे रहते थे, वे सभी शांत-प्रशांत बैठे हुए थे। 

राजा के परिवार और परिकर-जनों के कदम पड़ते ही उस नीरव शांति में भंग हो गया हो, ऐसा राजा को लगा। पर उस अशांति को शांत करने वाली मधुर ध्वनि राजा को सुनाई दी। सद्गुरु की वाणी की मिठास ने राजा को छू लिया। बिना शब्दों की उस ध्वनि में ऐसी मोहकता थी कि, निराशा में गर्त हुए व्यक्ति को भी आशा की किरण दिखा दे।

बिना आवाज किए राजा सभा में बैठ गया। उनके परिवार को भी ऐसा करने का निर्देश राजा के बिना कहे ही दे दिया गया।

“राजन्! आप यहाँ पधारिए।” अपने मित्र, मित्रानंद को भी भुला दे, सद्गुरु के मुख से ऐसी सहानु-भूतिपूर्ण आवाज राजा के कर्ण में अवतरित हुई। कोई अदृश्य शक्ति जैसे राजा को खींच रही हो, वैसे राजा आगे जाकर बैठ गया।

“यत्र वा तत्र वा यातु, यदा तदा करोत्वसौ।

तथापि मुच्यते प्राणी, न पूर्वकृतकर्मणः।।

“सभाजनों!” वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को छू लेने वाले शब्द सद्गुरु के मुख से निकले। “आप चाहे जो भी कर लो, आप चाहे कहीं भी चले जाओ, किन्तु प्राणी कभी भी अपने पूर्व में किए गए कर्मों से पीछा नहीं छुड़ा सकता है। कर्म का गणित अचल है।” राजा के दिल को सताती हुई बात को ही वाचा देते हुए सद्गुरु ने कहा। 

“यह दुनिया कठपुतली है। उसकी डोर कर्म के हाथ में है। कर्म जैसे नचाए, वैसे ही सभी जीव नाचते हैं। और इसीलिए…” एक अटल निर्णय सद्गुरु के चेहरे पर राजा को दिखाई दिया। “…जो किया है, उसे भुगतना पड़ेगा…” 

अस्खलित धारा से चल रही वाणी कुछ क्षणों के बाद विरमित हुई। इतने में एक सेठ खड़ा हुआ। उसे वर्षों से पुत्र के अभाव का प्रश्न परेशान कर रहा था। शेठ ने प्रश्न पूछा, और सद्गुरु ने त्रिकालज्ञानी की तरह उसका प्रत्यु-त्तर दिया। उसके बाद तो प्रश्नों की श्रेणी चलती रही।

सद्गुरु की सज्जनता खिलती गई और राजा के मन में श्रद्धा के सुमन खिलते गए। अंत में राजा ने अपनी व्यथा को वाचा दी। 

“सद्गुरु! मेरे मित्र मित्रानंद का क्या हुआ?” 

 

कुंभकर्ण को भी पीछे छोड़ दे ऐसी कदावर देह वाला गोपालक अपने हाथ में डंडा लेकर खड़ा था। चारों तरफ वट के वृक्षों से मैदान घिरा हुआ था। उनकी शाखाएँ धरती को चीरकर मानो अपना स्वतंत्र अस्तित्व खड़ा करने के लिए प्रयास कर रही थीं। 

“ऐ मोटे! बस खा-खाकर भैंसे जैसा हो रहा है। तेरे पेट जैसा बल यदि तेरे हाथ में हो, तो ले, इस गिल्ली को मार…” पास खड़े सारे ग्वाले पागलों की तरह हँसने लगे। कुंभकर्ण ग्वाले के चेहरे के भाव बदलने लगे। 

“अरे पागल! तेरे हाथ में जितना दम हो, उतने जोर से तू गिल्ली फेंक, फिर देख, मैं ऐसा फटका लगाऊँगा कि तुझे गिल्ली ही नहीं मिलेगी…” फिर से सारे ग्वाले हँसने लगे। ‘पागल’ के नाम से पुकारे जाने वाला ग्वाला लाल-पीला हो गया। 

उसने बिना कुछ कहे सननन करके गिल्ली मोटे ग्वाले के सामने फैंकी। 

पल भर के लिए असावधान हुआ मोटा ग्वाला अति वेग से आ रही गिल्ली को देखकर सावधान हो गया। उसने अपना पूरा ध्यान गिल्ली के ऊपर केंद्रित किया।

जब गिल्ली उसके शरीर से दो कदम की दूरी पर आई, तो मोटे ग्वाले ने डंडा घुमाया। ‘टककक’ की आवाज आई, और वृक्षों को चीरती हुई वह गिल्ली कहीं खो गई। सारे ग्वाले अवाचक बनकर देखते ही रह गए। मोटा ग्वाला हँसने लगा। 

“मैंने कहा था ना! तुझे गिल्ली नहीं मिलेगी। जा, ढूंढकर ला।” मोटे ग्वाले ने अपने मूछों पर ताव दिया। 

सारे ग्वाले इकट्ठा हो गए। गिल्ली कहाँ चली गई, उसे ढूंढने के लिए सब काम पर लग गए। खोजते-खोजते सब पसीने से लथपथ हो गए। 

“मैंने कहा था ना…” मोटा ग्वाला लगातार सभी को अपनी कर्कश आवाज से त्रस्त कर रहा था। सभी गुस्से से भरा चेहरा लेकर मानसिक और शारीरिक थकान के कारण जमीन पर बैठ गए। एक ग्वाला इतना थक गया था कि, वह तो सीधा धरती की गोद में लेट ही गया। 

क्षण-दो क्षण ही हुई होगी, कि वह सोया हुआ ग्वाला फटाक से खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर जैसे किसी ने उसके प्राण हर लिए हो ऐसे भाव दिखाई दिए। उसके गले में से चाहते हुए भी आवाज नहीं निकल रही थी। 

“अरे भोले! क्या हुआ? तू इस तरह क्यों कांप रहा है…?” वह कुछ भी नहीं बोला। उसने मात्र अपनी दृष्टि से इशारा किया। सभी की दृष्टि उस तरफ गई। वहाँ का दृश्य देखकर सब भाग गए। 

उन लोगों को गिल्ली का स्थान मिल गया था। वहाँ कंकाल का मुँह था… व्यंतर की बात सच निकली थी।

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