राजतापस के चेहरे पर आनन्द छा गया।
‘देखो ! कितना सुन्दर बालक है। एकदम आप पर गया है।’ राजतापसी ने राजतापस को सद्यः प्रसूत बालक को दिखाते हुए कहा।
अनुभवी राजतापसी ने सम्पूर्ण प्रसूति कर्म पूर्ण किया। तदुपरांत रोते हुए बालक को स्तनपान कराने लगी। दूध पीकर बालक सो गया।
‘हां ! तुम सच कह रही हो। यह एकदम मुझ पर गया है। अपनी वर्षों पुरानी इच्छा इस निर्जन वन में आकर पूर्ण हुई। भगवान की बहुत बड़ी कृपा है हम पर।’
राजतापसी ने राजतापस की बात का समर्थन किया।
‘लेकिन प्राणेश्वर! मुझे बहुत जोर की भूख लग रही है। खाने के लिए मुझे कुछ दीजिए न! भूख से मेरे प्राण निकले जा रहे हैं।’ दीन मुख से राज-तापसी ने विनती की।
राजतापस ने सरोवर के किनारे से लाये हुए फल दिखाए। राजतापसी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उसने एक फल उठाया और मुख में रखकर उसका स्वाद लेने लगी। शक्कर जैसा मीठा। तापसी उसके स्वाद में डूब गई।
दूसरा फल हाथ में लिया।
‘मदना ! अभी तुम सद्यः प्रसूता हो। इतना मत खाओ।’ राजतापस वाक्य पूर्ण करें, उसके पहले ही राजतापसी ने दूसरा फल भी मुख में डाल लिया।
देखते-देखते राजतापसी छः फल खा गई। राज-तापस देखते रह गये।
‘मैं थोड़ी देर यहीं लेट जाती हूं। उसके बाद हम आश्रम चलेंगे।’ इतना कह कर राजतापसी तुरंत निद्राधीन हो गई।
माता और पुत्र को एक साथ सोया देखकर राज-तापस को असीम आनंद की अनुभूति हुई।
कुछ क्षण नीरव शान्ति बनी रही। राजतापस को भी नींद के झोंके आने लगे।
अचानक राजतापसी की बगल में सोया हुआ बालक रोने लगा। राजतापस की नींद उड़ गई। उन्होंने बालक को गोद में उठाकर चुप करवाने का प्रयास किया, पर निष्फल रहे।
‘मदना ! हे मदना!’ राजतापस तापसी को जगाने लगे। प्रयत्न करने पर भी वह हिली तक नहीं।
‘मदना…!’ राजतापस ने तापसी को सीधा किया। राजतापसी के मुंह से झाग निकल रही थी।
राजतापस के मुंह से भयानक चीख निकल गई।
‘मदना…ना…..ना……ना….ना!’
रक्तचन्दन जैसी रक्तवर्णी ज्वाला धगधगती हुई लकड़ियों को जला रही थी। राजतापस के मुख से अकथ्य वेदना झलक रही थी। कदाचित् भविष्य में भी कोई इस वेदना को बुझा न सके, ऐसा प्रतित हो रहा था।
नगर के प्रतिष्ठित लोग चिता के चारों ओर खड़े थे। इतनी शीघ्रता से महाराणी का अन्त आ जाएगा ऐसी किसी ने भी कल्पना नहीं कियी थी। लेकिन विधि से बलवान क्या कोई होता है ?
जैसे जैसे अग्नि शान्त होती गई वैसे वैसे प्रतिष्ठित नगरजन भीतर से अस्थिर किन्तु ऊपर से स्थिर लग रहे राजतापस को सांत्वना दे-देकर यथा-स्थान लौट रहे थे। महाराणी के अस्तित्व को साथ लेकर अग्नि भी धीरे-धीरे शांत हो गई। अब केवल राख और रंज ही शेष रह गए थे। राज-तापस के आँखों से बह रही अश्रुधारा गोद में रहे बालक का सिंचन कर रही थी जिससे वह भी रो पड़ा, उसका रोना माँ की ममता के लिए व्याकुल था या उसके स्नेह-पाश के लिए आतुर ये बालक के आँसुओं से समझना कठिन था।
“अब इस बालक को कौन संभालेगा?” इस चिन्ता से राजतापस का मन व्याकुल हो ऊठा। इसी चिन्ता के कारण बहुत मुश्किल से उसके पैर स्मशानभूमि को छोड़ पाए। वहाँ से वे सीधा अपने आश्रम में लौट आए।
उस बालक के पालन-पोषण हेतु उसे तापस-पत्नी को सौंप देते हैं।
सूर्यास्त के समय एक नगरश्रेष्ठी राजतापस को सांत्वना देने आए।
“राजतापस! आज यह जो अघटित हुआ है वह अत्यन्त दुःखद और आघातजनक है। मुझे इस बात का अत्यन्त खेद है कि मैं आपके लिए कुछ भी कर नहीं सका।”
राजतापस नीचे जमीन की ओर ही देख रहे थे।
“क्या अब मैं आपके किसी काम आ सकता हूँ, तो कृपा करके आज्ञा करें!”, नगरश्रेष्ठी ने राज-तापस से कहा। तापस के मुख पर अब थोड़ीसी शान्ति दिखाई दे रही थी।
उन्होंने कहा, “हे श्रेष्ठी! मेरी सभी इच्छाएँ संन्यास के साथ-साथ ही पूर्ण हो गई हैं, किन्तु…” राज-तापस की नजरे जमीन पर सोए हुए उस बालक की ओर जाते ही फिर से उनकी आँखे नम हो जाती हैं।
“इस बच्चे की माँ इसे जन्म देते ही हमेशा के लिए छोड़ के चली गई, अब इसका क्या होगा?” इससे आगे राजतापस और कुछ न कह सके उनका कंठ भारी हो गया था।
“राजस्वामी ! आप उसकी चिन्ता छोड़ दिजीए… आज से यह मेरी जिम्मेदारी है।”, ऐसा कहते हुए श्रेष्ठी ने उस नन्हे से बालक को ऊठाकर अपने गोद में लिया।
राजतापस कदाचित् जीवन में एक आखिरी बार अपने एकलौती सन्तान के दर्शन कर रहे थे।
नगरश्रेष्ठी की पत्नी अपने कंगनों को साफ करके उन्हें चमकाने का प्रयत्न कर रही थी। और क्युँ न करे? हाथों में सजे कंगन सौभाग्यवती स्त्री के आभूषण और श्रृंगार की शोभा जो होते हैं। किन्तु उन्हें साफ करते करते नगरश्रेष्ठी के पत्नी के हाथ कोयले से भी अधिक काले हो गए थे। उन हातों को साफ करने के लिए उसने घर के दास को पानी लेकर आने का आदेश दिया। दास दौड़ते-दौड़ते पानी लेकर आ गया। सेठानी हाथ साफ कर ही रही थी कि उसे घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई दियी।
“पतिदेव आ गए हैं।” ऐसा समाचार उस तक पहुँच गया। किसी काम के कारण सुबह से ही श्रेष्ठी नगर बाहर गए थे। “दोपहर तक आ जाऊँगा!” ऐसा कहकर गए थे किन्तु सूर्यास्त होने के बाद भी उनका कुछ अता-पता नहीं था।
“क्या हुआ होगा ?” ऐसे अनेक तर्क-वितर्क पत्नी के मन में उमड़ रहे थे। एक कहावत तो सुनी ही होगी! “जो मन चिंती, वो वैरी मा चिंती।” मतलब जो विचार-कुविचार अपने मन में स्वयं के लिए आते हैं वैसे तो हमारे शत्रु के मन में भी हमारे लिए नहीं आते होंगे। बस कुछ ऐसी ही मनोदशा श्रेष्ठी-पत्नी की थी।
श्रेष्ठी-पत्नी व्याकुलता एवं उत्कटता की अवस्था में अपनी जगह से खड़ी हो गई। हवेली के द्वार खुले ही थे। जब तक घर के प्रधान पुरुष घर वापस नहीं लौटते तब तक घर के द्वार खुले ही रहते थे।
आर्यावर्त के संस्कार तन-मन पर आलंकृत ऐसी वह श्रेष्ठी-पत्नी अपने पति परमेश्वर का स्वागत करने प्रत्यक्ष गई। श्रेष्ठी उसके दृष्टिक्षेप में आ गए। उनके साथ गया हुआ दास भी उनके पीछे-पीछे आ रहा था किन्तु उसके हाथ में कुछ वस्तु दिखाई दे रही थी।
“आओ प्राणनाथ! पधारो!” पत्नीने श्रेष्ठी का स्वागत किया। दास पैर धोने के लिए पात्र लेकर आया। उसमें श्रेष्ठी-पत्नी ने श्रेष्ठी के पैर धोकर वस्त्र से पोंछकर सूखा दिए।
“सुलोचना !” स्नेह भरी नजरों से पत्नी की ओर देखते हुए श्रेष्ठी आगे कहता है।
“आज मैं तुम्हें एक उपहार देना चाहता हूँ। क्या तुम उसकी देखभाल करोगी?” श्रेष्ठी-पत्नी ने शरमाते हुए अपना सिर सकारात्मकता के साथ हिलाकर सम्मति दर्शायी।
“भूदास !” श्रेष्ठी ने आवाज दिई। भूदास उसकी हाथ में जो वस्तु थी उसे श्रेष्ठी के हाथों सौंपता है। श्रेष्ठी पत्नी का मुख आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया।
“यह… यह… किसने दिया…?”, आश्चर्य एवं उत्क-टता के साथ श्रेष्ठी-पत्नी के मुख से तुरंत प्रश्न निकल गया।
“देवी !” पत्नी को संबोधित करते करते श्रेष्ठी के आँखो के सामने राजतापस का भावविभोर दृश्य पुनः चित्रांकित हुआ और उसने सारा इति वृत्तान्त अपनी अर्धांगिनी को बताया और कहा, “बस, इसीलिए आज से इस बालक का नाम अमरदत्त है।”
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