नदी की किनारे पर वटवृक्षों का राज था, एक विशालकाय साँप की केंचुलीओं की तरह सर्वत्र वटवृक्षों की शाखाएँ फैली हुई थी। नदी का गम्भीर किन्तु प्रशान्त जलप्रवाह किनारों पर रेत के अनेकानेक आकर्षक पटलों का निर्माण कर रहा था। जलप्रवाह के उस गम्भीर किन्तु स्वरबद्ध मोहक नाद में वायु के आह्लाददायी स्पर्श से वटवृक्षों का कर्-कर् आवाज जिस तरह से सम्मि-लित हो रहा था, उससे पूरा वातावरण प्रफुल्लित एवं संगीतमय हो गया था।
“अरे ओ अमर ! यदि तुझमें शक्ति है तो मेरी इस गिल्ली को ऊस वटवृक्ष के ऊपर से मारकर दिखाओ!” मित्रानन्द ने अमर को ललकारा था।
अपने दैनंदिन कार्यों से समय मिलते ही अमर और मित्रानन्द गुरुकुल से निकलकर सीधे इस नदी के तट पर अपना प्रिय खेल ‘गिल्ली-ड़ंड़ा’ खेलने के लिए आ जाते थे। पीछले २-३ वर्षों में मित्रानन्द और अमर की मित्रता अभेद्य और गहरी हो गई थी। उनकी मित्रता की प्रसिद्धि इतनी विख्यात हो गई थी कि मित्रानन्द और अमर दोनों पर्यायवाची बन गए थे।
असाध्य में असाध्य लगने वाले नगर के ऐसे कई कार्य मित्रानन्द की कुशाग्र बुद्धि और अमरदत्त के बल कौशल्य से अत्यन्त सहजता से सिद्ध हो गए थे। उन दोनों के लिए नगरजनों के मुखों से केवल एक ही प्रवाद निकलता था, कि “यह बलदेव और वासुदेव के अवतार हैं।”
“तुझे खबर भी है कि तु किसे ललकार रहा है?” अमर ने झूठ-मूठ की स्फूर्ति दिखाते हुए मित्रा को कहा।
“हा… हा… हा…! आया बड़ा पहलवान…! अब बोलना बंद कर और ड़ंड़ा ऊठाकर गिल्ली को मार, नहीं तो वह तेरे ही किसी छेद में घुस जाएगी!”
यह सुनकर अमर अब सच में ही गुस्से से लाल-पीला हो गया था।
मित्रानन्द ने अपनी पूरी ताकत लगाकर गिल्ली को अचानक से अमर की तरफ फेंका। गुस्से से लाल हुई अमर की आँखे गिल्ली के ऊपर ही जड़ी थी। गिल्ली थोड़ी नज़दीक ही पहुँची होगी की अमर ने जोर से ड़ंड़ा घुमाया। “खटाक्” करके एक जोर से आवाज आई और मित्रानन्द के ऊपर से जाकर गिल्ली कहीं पे खो गई। मित्रानन्द उस गिल्ली को ही देख रहा था।
“हा… हा… हा… हा…!” पागल के जैसे मित्रानन्द हँसने लगा। ड़ंड़े को घुमाते हुए अमरदत्त उसके के नज़दीक आया।
“क्या हुआ ? मेरा प्रहार देखकर पागल हो गए हो क्या?” उसकी हँसी रोकने के लिए अमर ने पूछा। लेकिन फिर भी मित्रानन्द हँसे ही जा रहा था।
“क्या हुआ है भाई ?” अमर अब और क्रोधित हो गया था। अमर ने जहाँ पर गिल्ली मारी थी उस तरफ हाथ से इशारा करते हुए मित्रानन्द ने कहा, “यह देख, यह देख…! तुने क्या फटका मारा है। यह देख…!”
मित्रानन्द ने जहाँ इशारा किया था वहाँ जाकर अमर ने देखा।
“क्युँ, नहीं दिखाई दे रहा है क्या ? यह देख… यह देख…! जिस चोर को ऊपर लटका दिया है ना! उसके मुँह में देख तेरी गिल्ली पहुँच गई है। हा… हा… हा… हा…!” वह देखकर अमर भी जोर-जोर से हँसने लगा।
“ओऽय… ओऽय… एऽऽ… एऽऽ…!” कहीँ से हृदय में हडकम्प मचाने वाली भयानक आवाज आई। उसे सुनकर दोनों की हँसी अपने आप बन्द हो गई।
“क्युँ! बहुत हँसी आ रही है, मित्रानन्द !” अब मित्रानन्द के मुख पर स्पष्ट रूप से भय दिखाई दे रहा था। उसकी आँखे अपने आप आवाज की ओर ऊपर देखने लगी। उसने देखा कि वृक्ष पर लटकाये हुए चोर के शव के मुख में से वह आवाज आ रही थी।
“याद रख! मित्रानन्द ! बहुत हँसी आ रही है ना तुझे! लेकिन एक दिन तु भी मेरे जैसे ही यहाँ पे लटकता होगा। हाँ…! और तेरे भी… हाँ…! तेरे भी मुँह में इसी तरह से गिल्ली फँसी होगी। हा… हा… हा…! हा… हा… हा…!”
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