( पाटलिपुत्र आने के बाद नगर के प्रवेश के पूर्व एक भव्य प्रासाद को देखकर उस में प्रवेश कर किया । उस मंदिर के खंभे पर चित्र में अंकित स्त्री को देखकर अमर अत्यंत मोहित हो गया और उसे पाने के लिए वियोगभाव से तड़प रहा था । उसके बाद क्या हुआ आगे पढ़िए…)
अत्यन्त मधुर एवं स्नेहयुक्त ऐसे अमृतमय स्वर में किसी श्रेष्ठी ने पूछा,
“अरे मित्रों ! आप इस प्रकार क्युँ प्रलाप कर रहे हो ?”
श्रेष्ठी की इतने मधुर वचनों का श्रवण कर उन्हें ऐसा प्रतित हुआ कि जैसे कोई देवता ही करुणा भाव से हमारी समस्या का निवारण करने आए हैं । उन्होंने उस आवाज की दिशा में दृष्टिक्षेप किया । पीले रंग की धोती एवं रक्तवर्णी अंगवस्त्रों से सुशोभित एक ऋद्धिमान व्यक्तित्व उन्हें दृष्टिगोचर हुआ ।
उस श्रेष्ठी का तेजोमय मुख देखकर मित्रानन्द को उसके ऊपर तुरन्त विश्वास हुआ । अपने मन को शान्त करते हुए मित्रानन्द ने श्रेष्ठी को इतिवृत्त कह दिया, श्रेष्ठी ने एकाग्रचित्त होकर उसे सुना । “अब मेरा मित्र यहाँ से निकलने के लिए तैयार ही नहीं है । हे श्रेष्ठीवर्य ! कृपा करके अब आप ही इस समस्या का निवारण किजीए !” मित्रानन्द श्रेष्ठी को हाथ जोड़ते हुए प्रार्थना कि ।
विचार में तल्लिन श्रेष्ठी ने अमर की ओर देखते हुए कहा, “इसका प्रेमराग देखकर तो ऐसा ही लगता है कि कुछ क्षण के लिए भी यदि यह इस स्थान से वंचित हो जाएगा, तो इसके प्राण शरीर का त्याग कर देंगे । इस चित्र में चित्रित यह स्त्री सत्य है या कल्पना यह तो मैं नहीं जानता किन्तु यह अवश्य जानता हूँ कि इस प्रासाद का निर्माण शूरदेव ने किया है ।”
“शूरदेव…! शूरदेव कहाँ रहता है ?” मित्रानन्द ने प्रश्नार्थक मुद्रा में किसी अज्ञात मार्ग की ओर इंगित करते हुए पुनः प्रश्न किया ।
“सोपारक…!”
सोपारक नाम सुनते ही एक अस्पष्टसी आकृति मित्रानन्द के मस्तिष्क में रूप लेने लगी ।
जिस प्रकार चन्द्रमा के वियोग में चकोर की अवस्था होती है उसी प्रकार की पीड़ा के अनुभव से अमर का हृदय विदीर्ण हो रहा था । दूसरी ओर मित्रानन्द अपने मित्र के कष्ट निवारण हेतु सोपारक की खोज के लिए निकलने की तैयारी कर रहा था ।
“रत्नसार श्रेष्ठी ! आपने हमें मार्ग दिखाकर बहुत बड़ा उपकार किया है । बस… आपको मेरी…”
मित्रानन्द आगे कुछ कह नहीं पा रहा था, न जाने उसके शब्द जैसे उसके कण्ठ में भावविभोर होकर रूदन कर रहे थे, फिर भी बड़ी मुश्किल से वह आगे कहता है ।
“बस… आपसे मेरी एक विनती है कि आपने इतनी सहायता की ही है । अब जब तक मैं वापस न आ जाऊँ, कृपा कर आप मेरे प्राणप्रिय मित्र की देखभाल करें ! मैं वहाँ जाकर सूत्रकार शूरदेव से इस मूरत के रहस्य को जान लेता हूँ । यदि तत्पश्चात् शक्य हो जाए तो…” मित्रानन्द के मुख पर एक सकारात्मक कल्पना उभरती दिखाई दे रही थी । “तो इस रूपांगना के साथ मेरे मित्र का मिलन करवा दूँगा । कहिए श्रेष्ठी ! आप मेरे मित्र का ध्यान तो रखेंगे ना ?” प्रश्नार्थक नजरों से मित्रानन्द ने श्रेष्ठी की ओर देखा ।
“मित्रानन्द आप यत्किंचित् भी चिन्ता ना करें ! आपके मित्र को मैं एक खरोच भी नहीं आने दूँगा । लेकिन अभी आप शीघ्रता से प्रयाण करें ! शुभं भवतु ! कल्याणं भवतु !” मित्रानन्द अब निश्चिंत हुआ था ।
मित्रानन्द ने अपने साथ लेकर जाने के लिये आवश्यक सामग्री सज्ज की । उसमें रत्नसार श्रेष्ठी के पास से लिया हुआ हीरे-माणिक से सुशोभित एक अंगवस्त्र और धोती भी समाविष्ट थी ।
“कहीं पर तो काम आएगी ।” ऐसा विचार करते हुए मित्रानन्द ने उसे अपने साथ ले लिया था ।
“तो अमर ! मेरे मित्र…” मित्रानन्द ने अमर की ओर दृष्टिक्षेप किया, अभी भी अमर की आँखों से अश्रुधाराएँ थमने का नाम नहीं ले रही थी ।
“अमर ! तुम चिन्ता मत करो, मैं शीघ्रातिशीघ्र लौट आऊँगा !” मित्रानन्द ने अमर को आश्वासित करते हुए कहा ।
“जो तुझे कुछ हो गया है…, ऐसा मेरे सुनने में आएगा तो मेरे प्राण ही…” मित्रानन्द ने तुरन्त अमर के मुँह पर अपना हाथ रख दिया ।
“जाते समय शुभ-शुभ बोल अमर…! मैं तुझे वचन देता हूँ कि मैं दो महिनों के अन्दर आ जाऊँगा… नहीं तो मैं हमारी…” मित्रानन्द उसके आगे कुछ कह नहीं सका ।
“अमर के मनोरथ पूर्ण हों…! उसके मन की अभिलाषा ही शुभ भावी में प्राप्त हो…!” प्रभु से ऐसी प्रार्थना करते हुए मित्रानन्द ने वहाँ से प्रयाण किया ।
चम्पा की महक का विस्मरण हो जाए ऐसी अप्रतिम सुगंध सोपारक नगरी में से प्रसरित हो रही थी । अन्तिम कितने वर्षों से व्यापार और कलाकृतियों में सोपारक नगर अग्रिम स्थान पर पहुँच गया था ।
मित्रानन्द सोपारक नगरी की यह अद्भुत सुन्दरता देखने में तल्लीन हो गया था । इस नगरी के लिए सुना बहुत था किन्तु प्रत्यक्ष देखने की यह अनुभूति ही अनोखी थी । अब मित्रानन्द को अपनी थकान उतारने के लिए विश्राम की आवश्यकता थी । वह सोपारक नगर के प्रांगन में स्थित देवकुल में गया । दोपहर का समय होने के कारण देवकुल में कोई भी नहीं था ।
कोयल की टहुकार से वातावरण प्रसन्न लग रहा था । अपने सामान-सामग्री को एक कोने में रखकर मित्रानन्द ने देवकुल के आंगन में स्थित कुए के शीतल जल से हाथ-पैर धो लिए, जिससे अब उसकी थकान उतरते हुए ताजगी का एहसास हो रहा था ।
भोजन का समय हो ही गया था । मित्रानन्द ने देवकुल में रखी हुई अपनी थैली निकाली जिसमें आते समय जंगल से लाए हुए फल थें, वह उनका सेवन करने लगा । “आहाहा…! कितने मधुर एवं स्वादिष्ट हैं ये फल… भूख से त्रस्त जीव के लिए जैसे अमृत ही… शक्कर की मिठास भी इनकी मधुरता के सामने फिकी पड़ जाए । वाह… आनन्द आ गया ।”
भोजन का यथोचित आनन्द लेकर देवकुल की बाजु में स्थित झील का शीतल जल-पान कर अपनी आत्मा को मानो मित्रानन्द ने तृप्त कर लिया था । हवा के शीतल, मन्द बह रहे झोकों से मित्रानन्द की आँख कब लग गई वह उसे भी पता नहीं चला ।
“ॐ… ॐ… ॐ…” ॐकार की गुँजते हुए नाद से उसकी आँखे खुल गई । ॐकार के मंत्रजाप के साथ वहाँ का पूजारी मन्दिर की साफ-सफाई कर रहा था ।
आकाश की ओर देखते हुए मित्रानन्द अब निन्द में से जगकर खड़ा हो गया था । वातावरण को देखते हुए उसे इस बात की एहसास हो गया की निन्द में उसका बहुत सारा समय व्यतित हो गया है । पूजारी के निकट जाकर वह उससे वार्तालाप करने का प्रयोजन कर रहा था ।
“राम राम पूजारीजी ! मुझे एक सूत्रकार से मिलना है ।”
“तुम्हें…?” मित्रानन्द की बात को बीच में ही काटते हुए पूजारी ने प्रतिप्रश्न किया ।
“क्या नाम है उस सूत्रकार का जिसे तुम मिलना चाहते हो ?”
“शूरदेव ।” मित्रानन्द ने कहा ।
“अच्छा ! शूरदेव । हाँ… वह तो इसी गाँव में रहता है… किन्तु वो तो तेरे जैसे भिखारीयों की ओर एक कटाक्ष भी न करे… उसे तो बस बड़े बड़े श्रेष्ठी, धनिकों से ही सम्बन्ध होता है ।” इतना कहते हुए वह अपनी पूजा में तल्लिन हो गया ।
उसकी बातें सुनकर मित्रानन्द के मुख पर एक अनोखा स्मित झलक रहा था ।
उन्मत्त सांड जैसे दो विशालकाय कुत्ते सूत्रकार के घर के बाहर सोए हुए थे । एक अनजान व्यक्ति को देखते ही वे अत्यन्त कर्णकर्कश आवाज में जोरशोर से भौंखने लगे, उनकी आवाज से मानो कान के पर्दे ही फट जाएँ ।
कुत्तों के भौंखने का कारण जानने हेतु सूत्रकार शुरदेव घर में से बाहर आ गया ।
“अरे रे… बस भी करो ! हुआ क्या है तुम दोनों को ?” ऐसा कहते हुए उसने उन दोनों को पास लेकर उन्हें प्यार से दुलारा । इतने में उसका ध्यान सामने खड़े हुए उस व्यक्ति पर गया जिसे देखकर उसके कुत्तों ने इतना शोर मचाया था । उस व्यक्ति को देखते ही उसकी आँखे खुली की खुली रह गई । हीरे-माणिक जडित वस्त्रों से सुशोभित उस व्यक्ति के स्वागत के लिए शूरदेव उत्सुक था ।
“अरे हट् हट्… अब हटो भी… बस भी करो…!” ऐसा कहते हुए शूरदेव ने कुत्तों को वहाँ से दूर करवाया ।
“आएँ, पधारें महोदय…! इस गरीब की कुटिया आपके चरणकमलों से पवित्र करें ।”
“आपका नाम क्या है ? कहाँ से आए हैं आप ?” आकर्षक व्यक्तित्व के मित्रानन्द को आमन्त्रित करते हुए शूरदेव ने प्रश्न किए ।
“हम अमरपुर से आए हैं… मित्रानन्द नाम है हमारा… एक मन्दिर बनाने की मनिषा है हमारी… आपका नाम…”
“अरे महाशय…! आप बाहर क्युँ खड़े हैं ? भीतर आने का तो कष्ट करें… आपके चरणरजों से इस गरीब की कुटिया पवित्र करें…!” मित्रानन्द की बात को बीच में ही काटते हुए शूरदेव उसे घर के अन्दर लेकर चला गया ।
“कृपया आप यहाँ विराजमान हो जाएँ… तब तक मैं आपके लिए कुछ खाने-पीने का प्रबन्ध करके आता हूँ ।” ऐसा कहते हुए शूरदेव अतिथि सत्कार हेतु व्यवस्था करने के लिए निकल गया ।
मित्रानन्द बैठे बैठे ही घर के चारों ओर अपनी नजर दौड़ा रहा था । उस घर का अद्भुत सौन्दर्य देखकर ऐसा प्रतित हो रहा था कि जैसे स्वयं विश्वकर्मा ने अपने हाथों से इस घर की रचना की हो । अत्यन्त सुन्दर नक्षीकला को देखते हुए मित्रानन्द अचंबित हो गया था ।
इतने में शूरदेव स्वयं अपने हाथों में खान-पान के लिए बहुत से मिष्ठान्न लेकर आता है । शाम हो गई थी और मित्रानन्द वैसे भी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो गया था । देवांगनाओं जैसी सुन्दर कलाकृति से नक्षीकृत पाट पर सभी मिष्ठान्न रखे गए ।
“यह इतना सब-कुछ किसके लिए ?” शूरदेव की ओर अत्यन्त आश्चर्य से देखते हुए मित्रानन्द ने पूछा ।
“यह सब आपके लिए ही है श्रीमान्…! आप हमारे अतिथि हैं । और…” बात करते करते शूरदेव नीचे मित्रानन्द के सामने बैठ गया ।
“अच्छा ! तो आप क्या कह रहे थे… कि आपको एक मन्दिर…” फिर दोनों के बीच में बहुत देर तक चर्चा चली । मित्रानन्द अनेकानेक मिठाईयों का स्वाद लेते हुए बाते कर रहा था । सुखडी का पूरा पात्र उसने बातों ही बातों में खाली कर दिया था ।
“क्षमा किजीए किन्तु हम अमरपुर के लोगों का महल और हृदय दोनों ही विशाल होते हैं…” ऐसा कहते हुए मित्रानन्द ने सुखडी के पात्र की ओर संकेत किया ।
“किन्तु यदि हमें आपका कलाविष्कार देखना है तो उसे कहाँ देख सकते हैं ? क्या आपके द्वारा निर्मित कोई स्थापत्यकला या वास्तु इस नगर में है ?”
“जी नहीं…!” शूरदेव ने कहा । “ज्यां उगत सैं, त्यां बेचत न जाइं… इस उक्ति के अनुसार अपने ही लोगों में हमें कहाँ आदरातिथ्य या सम्मान प्राप्त होगा । किन्तु…” कुछ स्मरण करते हुए शूरदेव ने आगे कहा, “आपने कभी पाटलीपुत्र के दर्शन किए हैं ?”
“हाँ… हाँ…”
“वहाँ गाँव के बाहर रत्नसार श्रेष्ठी का मन्दिर देखा है ?” शूरदेव ने पुनः प्रश्न किया ।
विचाराधिन मुद्रा में हाव-भाव करते हुए मित्रानन्द ने कहा, “हाँ… उसमें एक अप्रतिम मूरत…”
“हाँ… हाँ… एकदम सही… वही है… वही है…” हर्षोल्लास के साथ शूरदेव के मुख से उद्गार निकले ।
“अरे वाह…! अप्रतिम कलाकृति है… अत्यन्त सुन्दर रचना है वह मूरत… किन्तु उसे देखने के पश्चात् से हम दुविधा में हैं । हम इसका निर्णय ही नहीं कर पा रहे हैं कि वह मूरत वास्तविक है या मात्र कल्पना…”
“अरे नहीं… कोई कल्पना नहीं है… सत्य ही है…” शूरदेव ने अत्यन्त आवेश के साथ कहा ।
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( क्रमशः )
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