( पाटलिपुत्र आने के बाद नगर के प्रवेश के पूर्व एक भव्य प्रासाद के खंभे पर चित्र में अंकित स्त्री को देखकर अमर अत्यंत मोहित हो गया और उसे पाने के लिए वियोगभाव से तड़प रहा था। तब अपने मित्र की इच्छा पूर्ण करें एवं यह स्त्री कौन है उसका पता लगाने के लिए मित्रानंद सोपारक नगर में शूरदेव सूत्रकार के पास जाता है। उसके बाद क्या हुआ आगे पढ़िए…)
पवन से भी वेगवान साँडनी के उपर मित्रानन्द ने अच्छा खासा अंतर काट लिया। उसे अपना लक्ष्य मिल चुका था – अवन्ति!
सूत्रकार शूरदेव के पास से पुतली के बारे में जानकारी प्राप्त करके अपने मित्र अमर की इच्छा पूर्ण करने की आशा मित्रानन्द को प्रकट हुई थी।
“तू तैयार रहना… मैं कुछ ही समय में ही आकर मेरे मंदिर को बनाने के लिए तुझे अमरपुर ले जाउँगा…” मित्रानन्द के विश्वास को देखकर खुद को काम मिल जाएगा, यह बात शूरदेव को दृढ़ हो गई थी। उसने वेगवंती साँडनी भी दे दी थी।
उस पुतली की सारी जानकारी शूरदेव ने सहज ही दे दी थी। मित्रानन्द को काम कठिन लगा था, पर असम्भव नहीं।
दूर-सुदूर बड़ा किला दिखाई दिया। रात होने के कारण उसके ऊपर मशालें प्रज्वलित हो रही थी। बाहर मंदिर जैसा कुछ दिख रहा था।
“बस!… अब थोडा ही है, फिर तू शांति से आराम करना…” नीचे झुककर लगाम छोड़ते हुए साँडनी के कान में कहाँ। साँडनी अपनी गति बढ़ा दी। मित्रानन्द की आँखों में एक अजेय विश्वास छलक उठा।
देवदुंदुभी को भी पीछे हटा दे ऐसा नगाड़ा नगर में बज रहा था। “सुनो… सुनो… सुनो…” की बुलंद आवाज में एक घोषणा करने वाला घोषणा कर रहा था।
मित्रानन्द अपनी नींद से जाग गया। ढोल की आवाज उसके कानों को त्रास दे रही थी। वह देवकुल के बाहर जाकर खड़ा रहा।
उस नगर के दरवाजे को देखते ही उसे खुद की अवस्था याद आ गई। कल रात किले का दरवाजा बंद हो जाने से वह देवकुल में अकेला ही रह गया था। इस देवकुल की प्रसिद्धि बहुत खराब थी। यहां सोने वाले बहुत कम सुबह में फिर से उठते हैं। उसमें बेताल का उपद्रव था। ऐसी लोकवार्ता थी।
मित्रानन्द ने अपनी आंखें मसली। फिर से ढोलकी “सुनो… सुनो… सुनो…” जो इस मृतक को धारण करेगा उसे हम 1000 दीनार देंगे।
मित्रानन्द ने घोषणा करने वाले की और देखा। उसके आगे एक मृतक को गाड़े में रखा गया था। वह बहुत ही भयानक था। अंधेरा होने से वह काला काला दिख रहा था।
“इसमें कौन सी बड़ी बात है?” मित्रानन्द के दिमाग में ऐसा विचार आया।
मित्रानन्द घोषणा करने वाले के पास गया, और उसके नगाड़े को हाथ लगाकर कहा “मैं इस कार्य को स्वीकार करता हूँ।“
घोषणा करने वाले ने ऊपर देखा। उसकी आंखों में भय दिखा।
अग्नि के जैसे मृतकरक्षा की बात नगर में फैल गई। लोग परस्पर बातें करने लगे और मित्रानन्द को मूर्खों का सरदार समझने लगे। “विदेशी!” शर्त रखने वाले सेठ ने मित्रानन्द की और देखा, “आपने यह क्या स्वीकारा है। यह अच्छी तरह से समझ लेना। यह मेरा नौकर आपको समझा देगा।
एक सादे अंगवस्त्र पहने एक जवान आदमी आगे आया।
“नमस्ते! मैं सेठ का कर्मक नाम का नौकर हूँ” वह प्रणाम के लिए जमीन तक नीचे झुका। मित्रानन्द को उसको देखकर हंसी आयी।
“इसमें हंसने जैसा कुछ नहीं है, क्योंकि आपने जो स्वीकारा है… वो…” नौकर की आंखें भय से फटी रह गई। “ये तो मौत को सामने से आमंत्रण देने जैसा है।“
“क्यों?” मित्रानन्द को उसकी बात में तथ्य लगा।
“यहां पिछले कई समय से शाम ढलने पर नगर के दरवाजे बंद हो जाते हैं। और फिर भयंकर घटनाएं घटती हैं। शाम को एक व्यक्ति की लाश गिरती है। और रात को…”
आजू-बाजू के लोग थर-थर कांपने लगे।
“और मारकर आ के उस लाश को ….” कर्मक ने अपने शब्द निगल लिये…
“खा जाता है। और इसीलिए ही…” कर्मक ने थोड़ी आवाज़ धीमी कर दी।
“तेरे बीवी-बच्चे, मां-बाप मर गए हो और दिमाग में राई बहुत ज्यादा भर गई हो तो ही इस चीज को स्वीकार करना। अभी भी तेरे पास मौका है, बोल…”
मित्रानन्द ने कर्मक की और देखा।
“इतनी तुच्छ बातें तो है ना, किसी चूड़ी पहने हुए नामर्द को करना… तूने अगरपुर के वासियों की मर्दानगी नहीं देखी है…”
कर्मक नीचे देखता रहा।
भूतबंगले जैसा सुनकार आज पूरे नगर में व्याप्त था। अभी तो रात्रि का पहला प्रहर ही बीता था, पर राजमार्ग पर एक चिड़िया भी दिखाई नहीं दे रही थी।
मित्रानन्द अपने अंगवस्त्र में बाँधी हुई पोटली को छू-छू कर खुश हो रहा था। आधे पैसे 500 दीनार सुबह मृतक के परिवार के सेठ ने दे दिये थे।
मित्रानन्द ने ठंडी उड़ाने के लिए अग्नि का जो ताप किया था, वह भड़-भड़ सुलग रहा था। उसमें मित्रानन्द अदृश्य भय को दूर करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लकड़ियाँ डाल रहा था। किले में बैठे हुए पहरेदार ने 10 का डंका बजाया।
मित्रानन्द को भूत-डाकिनी का भय नहीं था। पर अदृश्य शक्तियों के सामने प्रतिकार के लिए अपने गले और बाहु में मित्रानन्द ने खास सुरक्षा कवच बाँधकर रखे थे। मित्रानन्द मृतक की तरफ देखे जा रहा था।
ऐसे इस तरह से हर रोज मृत्यु होती रहती होगी? मित्रानन्द ने दिमाग कसा, पर इसके पीछे का रहस्य पकड़ में नहीं आया। तीसरा प्रहर बीत गया। 12 का डंका सुनाई दिया।
नगर के लोगों ने इसी समय के दरमियान मारी का आगमन बताया था। मित्रानन्द ने पेड़ की एक बड़ी डाली हाथ में ली, और उसे सुलगाई। लपकती हुई आग को डाली ने पकड़ा, डाली भी सुलगने लगी।
पवन की आवाज सुनाई दी। कोई हँस रही हो ऐसी आवाज सुनाई दी। मित्रानन्द ने आवाज के उद्भूत स्थान दरवाजे की तरफ देखा। और वह मृतक के आसपास उस जगह पर आगे बढ़ा। भड़-भड़ जलता ताप भी ठंडा हो चुका था।
एक अदृश्य भय ने मित्रानन्द के हृदय को ग्रस्त कर लिया था।
“हाँ…हाँ… तू रक्षा करेगा मृतक की?… हाँ…हाँ… मैं तुझे भी जिंदा नहीं छोड़ने वाली हूँ।“ ऐसी आहट-आभास उसके कानों में गूंजने लगी। कोई उसका गला जोर से दबा रहा हो ऐसा मित्रानन्द को लगा। वो जमीन पर अपने घुटनों के बल पर बैठ गया।
अब तो मौत को ही गले लगाना है, ऐसा उसे लगने लगा। भयानक आवाजें उसके कान में गूंजने लगी। अचानक उसे अमर याद आ गया। उसके साथ बचपन में खेली हुई बाजी याद आ गयी। उसके गले पर का दबाव कुछ कम हुआ। वो फिर से खड़े होने की मेहनत करने लगा। उसे अपना लक्ष्य याद आया।
“नहीं…नहीं…नहीं।” वह जोर से चिल्लाया और अपनी आग वाली डाली को चारों ओर घुमाया। अदृश्य शक्ति भाग गई हो ऐसा उसे लगा।
वह थकान के कारण जमीन पर बैठ गया। उसका हृदय क्रोध की भड़-भड़ ज्वाला से सुलग रहा था। उसमें उसे अमर ही दिख रहा था।
पतंग के जैसी हिलती डाली के जैसा काँपते हाथों से गृह के दरवाजे के नीचे पड़े हुए व्यक्ति को उठाने की हिम्मत की, लेकिन वह व्यक्ति था ही नहीं।
पास में पड़ी पेड़ की डाली से मृतक को पहरेदार ने आगे-पीछे किया। वह अक्षत था। शायद आज मारी ने मृतक का भक्षण नहीं किया… पहरेदार के मन में यह सूझा।
“यानी कि इस आदमी ने मारी से इस मृतक की रक्षा की है। तो फिर वो रक्षा करते-करते मर गया है क्या…? पहरेदार के विचार तेज चल रहे थे।
वह नीचे पड़ी हुई रक्षण करने वाले व्यक्ति के पास पहुँचा। निर्भय होकर उसने नीचे पड़े हुए व्यक्ति को झंझोड़ा। उसने आँखें खोली। वह खड़ा हो गया। उसका सर घूम रहा था। उसने मृतक की ओर देखा। एक मधुर स्मित उसके चेहरे पर छाया हुआ था।
“तू सच में भड़वीर निकला, जब मारी आती है तब तो किले के अंदर के हम सभी लोगों की अस्थियाँ जम जाती है।” पहरेदार ने रक्षक व्यक्ति से कहा।
“कुछ गरम पीने जैसा हो, तो मुझे दे दो… मुझे बहुत ठंड लग रही है… रक्षक ने पहरेदार से कहा।
“यह लो… रक्षक के हाथ में पहरेदार ने मशक थमा दी। उसमें दारु भरा हुआ था। रक्षक ने अपने मुंह से मशक को लगाया। उसके हृदय में और मन में एक नवीन चेतना का संचार हुआ। उसने अपने अंगवस्त्र से अपना मुंह साफ किया।
नारियल के पेड़ की तरह अग्नि की ज्वालाएं आकाश को स्पर्श कर रही थी। सेठ की आंखों में अश्रु थे, हर्ष के! कितने ही दिनों के बाद कोई मृतक का दाह अग्नि से कर सके थे। कृपा विदेशी व्यक्ति की!
शमशान में भी उपस्थित लोग इसी बात की चर्चा कर रहे थे। “गजब है! क्या बल है! राजा उसे अपने अगंरक्षक के रूप में रख लेंगे। सेठ भी उसे अच्छे-से पुरस्कार से सम्मानित करेंगे।”
मित्रानन्द पीछे खड़ा-खड़ा अपने मन में एक अनूठा गर्व महसूस कर रहा था। एक असम्भव कार्य संपन्न हुआ था। सब धीरे-धीरे शमशान से निकलने लगे। आखिर में सेठ और मित्रानन्द ही रह गये।
सेठ भी निकल रहे थे।
“सेठ…!” मित्रानन्द सेठ को जाते हुए देख रोका,
“सेठ! आपकी शर्त के मुताबिक आधे पैसे देने बाकी है।”
सेठ ने मित्रानन्द की ओर ऊपर से नीचे तक देखा। “तू कौन है और कैसै पैसे?” मरे हुए पर भी मिजबानी उड़ाने का काम करता है? शरम नहीं आती!” उत्तर सुनकर मित्रानन्द स्तब्ध हो गया। “सेठ! इस मृतक को आप जो जला सके हो ना?” “एय!” सेठ की आँखें लाल हो गई। “मुंह बंद कर, वरना तेरी भी लाश यहाँ गिर जाएगी। पैसे माँगने निकला है? देखा बड़ा!” सेठ ने जमीन पर थूक दिया।
मित्रानन्द का गुस्सा अब आसमान छू रहा था। उसने जमीन से हाथ में मिट्टी उठायी। “नालायक! चोर सेठ! तेरा नाम बड़ा है, पर तेरा काम चांडाल जैसा है। मैं तेरी मिट्टी पर ही संकल्प करता हूँ कि यदि मैंने राजसभा के समक्ष यह पैसे वसूल ना किया तो मेरा नाम मित्रानन्द नहीं!” मित्रानन्द ने मिट्टी को जमीन पर फेंक दिया।
क्रमश:
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