(सोपारक नगर में रात भर जाग के मृतक की रक्षा की। नगर को मारी से बचाया। सेठ ने कहा था कि यदि तू रात भर जागकर मृतक की रक्षा करेगा तो तुझे 1000 दीनार दिया जाएगा। किंतु 500 दीनार देने के बाद आगे के दीनार देने से सेठ ने इनकार कर दिया। तब मित्रानंद का गुस्सा फूटा और मिट्टी हाथ में लेकर संकल्प लिया और बोला कि “राज-सभा में मैं पैसे वसूल करूंगा”। अब आगे क्या होता है पढ़िए…!)
मंदिर के घंट जैसे खनकते अंगवस्त्र के साथ मित्रानन्द राजवेश्यालय में दाखिल हुआ। वह जैसे कि स्वर्ग से उतरा हुआ इन्द्र हो वैसा सुहावना लग रहा था।
“अय! आओ… आओ!” एक उत्तेजक वेश्या अपने हावभाव दिखाती हुई मित्रानन्द के पास आयी। मित्रानन्द ने वेश्या के कानों में कुछ कहाँ।
वेश्या उसे लेकर अंदर के खंड में गई। वहाँ पलंग पर पान चबाने से लाल हुए होंठों वाली वेश्या बैठी थी।
“वह हमारे वेश्यालय की प्रमुख-संचालक वेश्या है। अक्का है।” उसे वेश्या ने धीरे से मित्रानन्द के कान में कहाँ।
मित्रानन्द अक्का के सामने जाकर बैठा। उसने अपने अंगवस्त्र में से 400 दीनार निकाले और अक्का को कहाँ, “मेरे जैसा कोई माल है ?”
इतने पैसे देखकर अक्का सड़क हो गई।
“हाँ ! नामदा र! मेरी बेटी ही है। वह राजवेश्या है।” शब्द सुनकर मित्रानन्द को आनंद हुआ। ‘राज-वेश्या’ शब्द बहुत शक्तिशाली था, हर तरह से। मित्रानन्द मूँछ में हँसा।
“तो देर किस बात की है ?”
“नामदार ! आप हमारे बहुमान्य ग्राहक हो। इस-लिए आप की सेवा भी…” अक्का ने अपने होंठ दबाते हुए कहाँ।
“राजा” अक्का ने आवाज लगाई।
“हाँ माता…” अच्छे अच्छों के पुरुषत्व को चलाय-मान कर दे ऐसी आकर्षक वेश्या बाहर आयी। रंभा भी उसके आगे पानी भरे, इतनी वह स्वरूप-वान थी।
मित्रानन्द की तरफ अक्काने इशारा किया। वेश्या सिर्फ हँसी और मित्रानन्द का पुरुषत्व उछलने लगा।
तारो से जड़ित, बिना चंद्र के आकाश के जैसा ही वातावरण ताराखंड़ में था। मित्रानन्द गुलाब की पंखुड़ीयों से सजायी हुई सेज पर उसे संक्षुब्ध करने वाली राजवेश्या की राह देख रहा था। अक्का ने मित्रानन्द की अच्छी खातिरदारी करने का निर्देश राजवेश्या को दे दिया था। और इसलिए वह सुंदर शृंगार सज रही थी।
ताराखंड का दरवाजा खुला। एक छोटे से दीपक की ज्योति अंदर आती हुई मित्रानन्द को दिखाई दी। उसके रोम-रोम झनझनाने लगे। एक अकथ्य आकर्षण का अनुभव उसे हुआ। वह अपनी सबसे बड़ी उत्तेजना रति के लिए सज्ज हो गया।
पायल की आवाज सुनाई दी। छोटे दीये की ज्योत में राजवेश्या का चेहरा दिखाई दिया। पूरी जिंदगी यहाँ ही उसकी बाँहों में गुज़ार दूं, ऐसा मित्रानन्द के दिमाग में खयाल आया।
राजवेश्या ने दिया बुझा दिया। और मित्रानन्द के गले पर हाथ फिराया।
“विषयों में आसक्त व्यक्तियों के कार्य सिद्ध नहीं होते है” अचानक अंदर से अपने गुरु की आवाज मित्रानन्द को सुनाई दी।
“एक क्षण” मित्रानन्द के मुंह से आवाज निकली। राजवेश्या ने उसके सामने देखा।
“पहले मुझे इष्ट का स्मरण करने दे फिर हम…! तुम्हारे पास कोई पट्ट होगा ?”
राजवेश्या खड़ी हो गई, और चित्रपट लाने के लिए बाहर निकल गई, मित्रानन्द ने राहत की साँस ली।
हिमालय में नासाग्र दृष्टी रखने वाले योगी की तरह मित्रानन्द सुवर्णमयपट्ट को देखते हुए ध्यान में लीन हो गया था। वह पिछले 1 घंटे से, पद्मासन में एक ही स्थिर बैठ गया था।
“कब इसका इष्टस्मरण पूरा होगा ?” राजवेश्या व्याकुल हो गई। ‘पिछले 1 घंटे से वैसा का वैसा ही बैठा हुआ है। लगता है कि मैं उसे परवश कर सकती हूँ या नहीं, उसकी वह राह देख रहा है।’
राजवेश्या ने अपने जितने भी हथियार थे, जितनी भी कला थी, हर तरह की कामचेष्टा आदि मित्रा-नन्द के सामने प्रदर्शित की। कोई भी सामान्य पुरुष तो उसके दर्शन मात्र से ही अपनी शक्ति गँवा बैठता था। पर मित्रानन्द तो सुवर्णपट्ट में लीन रहा। स्थिर रहा। यथावत रहा।
राजवेश्या थक गई। उसके पास जाकर सो गई। सुबह हुई। मित्रानन्द आबाद बच गया।
लाल अंगारे जैसा मुंह लेकर ताराखंड से राज-वेश्या बाहर आयी। किसीने उसका बहुत अपमान किया हो ऐसा उसके मुंह से नजर आ रहा था। “क्या हुआ राजा?” अक्का ने अपनी बेटी को गुस्से में देखकर पूछा। “माते आज भी…” राजवेश्या रोने जैसी हो गई।
अक्का समझ गई। आज भी मित्रानन्द उसकी अपनी बेटी के सामने जीत गया था। आज भी राजवेश्या मित्रानन्द को क्षुब्ध करने में निष्फल गई थी। ऐसा उसने देखा न था। उसकी राजवेश्या को यह बात पचाने में बहुत तकलीफ हो रही थी।
“तू चिन्ता मत कर”, मैं उससे मिलकर आती हूँ। कारण पूछती हूँ। तू थोड़ा समय आराम कर। देख तेरा मुंह कैसा उतर गया है?” अक्का ने राजवेश्या को हाथ में आईना थमाया और मुंह दिखाया।
अक्का वहाँ से उठकर 50 कदम दूर ताराखंड में गई। मित्रानन्द अपना सामान एकत्रित कर रहा था।
“नामदार! मैं अंदर आ सकती हूँ ?” मित्रानन्द ने ऊपर देखा। उसने सिर हिलाया। अक्का पलंग पर आकर बढ़ी।
“क्या नामदार ! मेरी बेटी की तो आपने बहुत विडंबना कर दी! वह कभी राजाओं के सामने भी नहीं हारी है। और आपने तो उसे उस दिन से… क्या कहूँ? मित्रानन्द अपने कार्य में व्यस्त रहा। “नाम-दार! मेरी बेटी में क्या कमी है ?”
मित्रानन्द ने ऊपर देखा। “कुछ नहीं! पर हर एक चीज का एक समय होता है।” जवाब सुनकर अक्का को आश्चर्य हुआ।
“तो अभी कौन-सा समय है… यहाँ वेश्यालय क्यों ?”
“मैं क्या कहता हूँ…” बीच में ही अक्का को काटकर मित्रानन्द ने कहाँ। “आपकी राजमहल में कोई पहुंच है? आपका वहाँ जाना होता है?” मित्रानन्द ने उत्तर पाने की अपेक्षा से अक्का के सामने देखा।
“हाँ है ना! मेरी बेटी राजा की चामरधारीणी है और राजा की बेटी रत्नमंजरी की वह सहेली है…” अपनी पहुंच बताते हुए अक्का ने कहाँ।
मित्रानन्द के चेहरे पर मुस्कान छा गयी।
आकाश में पुष्प जैसी असत् बात सुनकर रत्न-मंजरी आकुल-व्याकुल हो गई।
“तू क्या बोल रही थी – एक बार फिर से बोल”
रत्नमंजरी और राजवेश्या कन्यावास के झरोखे में बैठ गये। राजवेश्या ने आस-पास कोई सुन तो नहीं रहा है ना वह देख लिया।
“रत्नमंजरी ! आज मैं तुझे समाचार देना चाहती हूँ।” रत्नमंजरी ने राजवेश्या की और देखा।
“क्या ?” वही कि, जिस अमरदत्त को तूने हर्ष से प्रेमपत्र लिखा था, उसका मित्र यहाँ आया हुआ है।
“ये अमरदत्त…” पहली बार नाम सुनकर रत्नमंजरी ने संशय व्यक्त किया।
“वह ही, जिसका गुणगान सुनकर तू आकर्षित हुई थी।” दूर-सुदूर तक रत्नमंजरी को कोई ऐसे व्यक्ति की याद आयी नहीं कि, जिसके साथ उसे प्रेम हुआ हो।
राजवेश्या अमरदत्त के आये हुए मित्र की प्रशंसा करने लगी। रत्नमंजरी को यह सारी बातें असंबद्ध लगी।
“यह कोई बड़ा ठग लगता है कि, जिसने अक्का को भी ठग लिया। उसका बुद्धिचातुर्य अद्भुत लगता है। एक बार मिलने तो बुलाओ, देखती हूँ कितना दम है उसमें..” रत्नमंजरी को विचार आया।
“कुछ नहीं…” लगातार बोलती हुई राजवेश्या को अटकाकर रत्नमंजरी ने कहाँ।
“उस संदेशवाहक मित्र को तू आज इस खिड़की से ले आना।”
“मौत की खाई जैसी खिड़की की और इशारा करते हुए रत्नमंजरी खड़ी हो गई।
भारत के नक़्शे जैसे नक़्शे को अक्का और मित्रा-नन्द देख रहे थे।
“यह देखो…” मित्रानन्द ने अपना ध्यान अक्का की उँगली की और खींचा। कन्यावास लिखे हुए महल पर अक्का की उँगली थी। अवन्ति राज्य का संपूर्ण नक्शा अक्का के पलंग पर बिछाया हुआ था।
“इस जगह पर तुझे पहुंचना है।” मित्रानन्द ने महलों के पीछे कन्यावास को देखा। बीच में हर जगह पर महल के रक्षकों की चौकीयाँ थी।
“पर यहाँ पर पहुँचने में तो रास्ते में…” अक्का ने हाथ उँचा किया और मित्रानन्द मौन हो गया। अक्का ने अपने बक्से से दूसरा एक नक्शा निकाला, जो काफी पुराना लग रहा था।
“यह नक्शा इस महल को बनाने वाले सूत्रकार ने बनाया है।” मित्रानन्द ने देखा कि, सभी चौंकीयों के पास कुछ झाड़ीयाँ थी, कि जिसमें से रास्ता निकल सकता था। वहाँ किले की दीवार पर सुराख किया गया हो ऐसा लग रहा था।
“नामदार !” अक्का ने दो घड़ी में रास्ते में लेने जैसी सभी सावधानियाँ बता दी।
“बहुत बहुत धन्यवाद आपको” मित्रानन्द ने प्रहर-घटिका में समय को देखकर कहाँ।
प्रयाण का समय आ गया था।
( क्रमशः )
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