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Temper : A Terror – 8

Updated: Apr 8




(मित्र अमरदत्त की स्वप्नसुंदरी रत्नमंजरी के पास पहुंचने के लिए मित्रानन्द ने अक्का के पास से राजमहल का नक्शा लिया और पूरी जानकारी भी ली। फिर आगे क्या होता है पढ़िए…)

“नामदार! मेरी बेटी ने आपका संदेशा पहुंचा कर अपना उत्तरदायित्व पूरा किया है। मैंने आपको रास्ता दिखाकर अपनी फर्ज पूरी कर ली। अब बाजी आपके हाथ में है। यह आपकी परीक्षा की घड़ी है किसी भी जगह पर फंस गये तो…” अक्का ने अपना हाथ अपने गले पर फिराया।

मित्रानन्द डर सा गया।

 

अंधेरे में जहाज को मार्ग दिखाने वाले प्रकाशस्तंभ की तरह अक्का लालटेन को लेकर आगे चल रही थी। रात को दिखे नहीं और झाड़ियों में घुल मिल जाए वैसे कपड़ों में मित्रानन्द अक्का की परछाई जैसा लग रहा था। 

महल के दरवाजे के सामने आकर अक्का रुक गई। “अब यहां से आगे मैं नहीं आ सकती। आगे के रास्ते पर अब तुझे ही जाना होगा।“ मित्रानन्द ने अपना सिर हिलाया और पास में जो झाड़ियां थी उसमें गायब हो गया।

अक्का भी लालटेन बुझा कर अंधेरे में खड़ी रही। हर एक किले पर चढ़ते समय में मित्रानन्द दिख जाए वैसा स्थान उसने ढूंढ निकाला था। मित्रानन्द अपने दिमाग में अक्का ने बताए हुए रास्ता का पुनरावर्तन करते-करते पहले केले की दीवार तक पहुंच गया।

“बायें जाओ… फिर दायें… फिर बायें… फिर सीधा…” आसपास का मित्रानन्द ने सब देख लिया। किले का संत्री अपने शरीर को कातिल ठंडी से बचाने के लिए आग में अपने हाथों को गर्म कर रहा था।

बिल्ली की तरह दबे पांव से धीरे–धीरे किले की दीवार तक मित्रानन्द पहुँच गया। संत्री उठा, भय की लहरें मित्रानन्द के शरीर में फैल गई। संत्री अपने शरीर को मरोड़कर फिर से नीचे बैठ गया। मित्रानन्द को शांति हुई। वह किले की झाड़ियों में घुस गया।

अक्का द्वारा बताया हुआ रास्ता सही निकला। दूसरा किला दिखा। संत्री नींद का झोंके ले रहा था। मित्रानन्द के हृदय में आनंद फैल गया। 3, 4, 5, 6 किलों के पास मित्रानन्द पहुँच गया। वहाँ 15 संत्री तैनात थे।

अक्का के नक्शे में इसे पार करने के लिए कोई भी झाड़ी का निर्देश नहीं किया गया था। इस किले पर चढ़ने के अलावा मित्रानन्द के पास दूसरा कोई उपाय नहीं था। संत्रियों के ध्यान को दूसरी ओर खींचने के अलावा यहाँ से आगे जाने का और कोई रास्ता नहीं था।

मित्रानन्द ने अक्का द्वारा हुई छोटी पोटली में से एक लूका निकाला, जिसकी बत्ती नीचे लटक रही थी। अपने पास जो अग्नि प्रज्वलित करने का सामान था, उसमें से दो पत्थर मित्रानन्द ने निकाले। धीरे–धीरे उन दो पत्थरों को मित्रानन्द ने घिसा। आग प्रकट गई। लूका की बत्ती को उसने आग लगाई। लूका जलने लगा। अपनी ताड़ी से मित्रानन्द ने लूका उछाल कर दूरी पर फेंका।

लूका गिरने पर वहाँ झाड़ियों में आग लग गई। सारे संत्री फटाफट अपनी चौकी छोड़कर वहाँ आग बुझाने दौड़कर गये। अंधेरे में किले की दीवार पर मित्रानन्द तेजी से चढ़ गया। उस क्षण अक्का के लिए दीवार पर मित्रानन्द रुक गया। आगे दियों से चमकती हुई अपनी मंजिल उसे दिखाई दी।

 

मोती जैसे अक्षर पत्र के ऊपर उभर आये थे। रत्नमंजरी पत्र की सुंदरता देखते ही मंत्रमुग्ध हो गई। वह पढ़ने लगी।

मेरे प्रिय प्रेम अमरदत्त!

जिस दिन से मैंने आपके गुणगान राजसभा में आप के दूत के मुख से सुने हैं, उस दिन से आपके बगैर जीना एक क्षण के लिए भी असह्य हो गया है।

अब मेरे जीवन में आपके सिवा किसी और की जगह बन सके यह असंभव है। आप ही मेरे सर्वस्व हैं।

यह प्रेमिका आपके शरीर की उष्णता चाहती है,

आपका सहवास की कामना करती है।

इस चकोरी को चंद्र कब मिलेगा?

इस चक्रवाकी को सूर्य कब दिखेगा?

इस भँवरे को कमल कब मिलेगा?

इस मोर को घनघोर बादल कब मिलेगा?

इस नदी को सागर कब मिलेगा?

यह खास बताना। मैं आप के संगम के लिए तड़प रही हूँ।

आशा करती हूँ कि आप मेरा स्वीकार करेंगे और यहाँ से कहीं दूर ले जाएंगे…

आप पर अपना सर्वस्व लुटाने वाली,

रत्नमंजरी…

आप भी पत्र भेजना। आपको पीने के लिए यह प्रेमिका प्यासी है।

पत्र के नीचे दिनांक और भेजने का समय लिखा था। रत्नमंजरी की आँखें पत्र पढ़कर विकस्वर हो गई। उसका मन यह लिखने वाले के प्रति आकर्षित हुआ।

“नामदार!” राजवेश्या ने संदेशा लाने वाले के लिए जो शब्द कहा था वो ही शब्द बोली। पर सामने कोई भी नहीं था। पत्र लाने वाला गायब हो गया था।

रत्नमंजरी को अपने पैर पर कुछ गीला–गीला सा अनुभव हुआ। रत्नमंजरी ने नीचे की ओर देखा, उसकी बायी जाँघ से खून बह रहा था।

 

पलक की झपक की तरह संदेशवाहक के आकर जाने के बाद रत्नमंजरी बार-बार अपने आप को कोस रही थी। “मैं सच में बहुत जड़ हूँ…। इतने प्रभावशाली व्यक्ति के साथ मैंने बराबर बात तक नहीं की। मैं तब क्या सोच रही थी?” रत्नमंजरी ने संदेशवाहक के साथ बनी एक–एक घटना को याद करने की कोशिश की।

पहले तो मैं उसकी शक्ति और बुद्धि से विस्मित हो गई थी। अरे! इतने सारे किलों को पार करके वह आया किस तरह? क्या धैर्य था उसका?

फिर मैंने उसे कहा था, “आप क्या लेकर के आये हैं?” उसने मुझे एक पत्र हाथ में दिया था। और कहा था, “मित्र का मित्र – मित्रानन्द“। हाँ, उसका नाम मित्रानन्द था। मैं तो सिर्फ उसके रूप और लावण्य को ही देखकर मंत्रमुग्ध हो गई थी। बोलते समय उसके चेहरे की रेखाएँ कैसी सुरूपता से उभर रही थी।

“आपके प्रिय पात्र अमरदत्त का निजी मित्र हूँ। उसने मुझे कहा था कि यदि तू अवन्ति जाए तो खास राजकुमारी रत्नमंजरी को मिलकर आना। बस इसलिए आपको खुश करने इतने फालतू किलों को पार करके अंदर आया हूँ। अब मुझे जाना पड़ेगा, पर उसके पहले यह पत्र पढ़ लीजिए…” मेरे हाथ में मित्रानन्द ने जो पत्र दिया था, उसे मैंने खोला था।

उसके हाथ का स्पर्श… ओह! रूई से भी कोमल! मैंने वह पत्र खोला और पढ़ा… जब मैं उस प्रत्युत्तर देने जा रही थी, तभी ही वह पता नहीं, जादूगर की तरह कहाँ गायब हो गया? रत्नमंजरी इन विचारों में खो गई थी।

रात और ज्यादा गहरी हुई थी। नहीं बोलने की चिन्ता रत्नमंजरी के दिमाग को घेर रही थी। अंत में चिन्ता के बोझ तले उसकी आँखें कब लग गई उसका रत्नमंजरी को भी पता नहीं चला।

 

गुप्तचर की तरह मित्रानन्द अक्का के खंड के बाहर कान लगाकर अंदर चल रही बातों को सुन रहा था।

“राजा!” खुद की बेटी राजवेश्या को अक्का कह रही थी, नामदार की शक्ति गजब की है। उसने सातों के सातों किले केवल 1 घड़ी में पार कर दिये थे। मैं महल के बाहर से झाड़ियों में से देख रही थी।

“क्या वह पहुँच गया? उसके बाद क्या हुआ?” राजवेश्या की आवाज सुनाई दी।

“उसका तो मुझे पता नहीं है। क्योंकि उसके बाद महल के दरवाजे के पास बहुत कोलाहल सुनाई दे रहा था। शायद चौकीदारों को कुछ गडबड होने की शंका हुई होगी। इसलिए मैं वहाँ से निकल गई। मैं तो भगवान को प्रार्थना करती हूँ कि ऐसे शूरवीर पुरुष को आँच भी नहीं आनी चाहिए।” दोनों प्रार्थना करते हो ऐसा लगा।

मित्रानन्द अपनी जगह से बाहर निकला और अक्का के खंड़ में आया। अक्का ने पैरो की आवाज सुनकर अपनी आँखें खोली।

“ओह… आओ… आओ… आपकी उम्र बहुत बड़ी है। हम आपकी ही बात कर रहे थे नामदार…” राजवेश्या ने मित्रानन्द के सामने व्यंग्य किया।

“मुझे बहुत थकान लग रही है, मुझे बहुत नींद आ रही है… मैं मेरे खंड में…” मित्रानन्द वाक्य पूर्ण करे उससे पहले ही अक्का बोली।

“हा… हा… यह खंड भी आपका है और यह भी…” राजवेश्या की और अक्का ने इशारा किया।

( क्रमशः )

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