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Temper : A Terror – 9

Updated: Apr 8




( राजकुमारी रत्नमंजरी के हाथों में पत्र सौंपकर मित्रानंद पुनः वेश्या के घर लौट आया और तत्पश्चात आगे क्या होता है पढ़िए)

चढ़ा हुआ मुंह लेकर राजद्वार का द्वारपाल राजा की सभा में दाखिल हुआ।

“क्या समाचार है द्वारपाल? क्यों इस तरह मुंह लटकाकर खड़ा है?” राजा ने द्वारपाल की ओर विचित्र नजरो से देखा।

“प्राणेश्वर! एक विचित्र विदेशी पुरुष द्वार पर खड़ा रहकर डाकिनी–शकिनियों की बाते करता है। और कहता है कि, अवन्ति में न्याय करने वाले जिंदा है कि नहीं? उसे न्याय चाहिए। पर, उसकी ज़बान बहुत कड़वी है। उसके शब्द सुनकर मैं त्रस्त हो गया हूँ, इसलिए…”

“उसे अंदर भेज” राजा ने आज्ञा फरमायी। द्वारपाल झुककर बाहर गया। और साथ में एक सशक्त पुरुष को अंदर ले आया। उसकी चाल राजपुरुष के जैसी थी। वह आकर राजा के सामने झुका।

“जगदाधार! प्रजावत्सल! शत्रुत्रासक! मित्ररक्षक!…” 15-20 विशेषणों से बाहर से आये हुए पुरुष ने शब्दों से राजा को सम्मानित किया। 

“क्या हुआ उत्तमपुरुष? हमारा द्वारपाल कह रहा था कि आपको न्याय चाहिये? किस चीज का न्याय?” जिज्ञासा से राजा ने पूछा।

“धरानाथ! आपका शासन अखंडित चलता है। तो भी शर्म की बात है कि आपके ही नगर के सेठ मुझे मेरे हक के 500 दीनार नहीं दे रहे है। यदि आपके राज्य में अंधेर है तो मैं किसके द्वार पर जाऊँ? आप ही इस बात का न्याय कीजिए।” राजा सामने खड़े पुरुष की वाक्छटा से प्रभावित हुआ।

“मंत्रीश्वर! यह बात सच है?” मंत्रीश्वर के सामने राजा ने देखा। “शायद हो सकती है, हम सेठ को बुलाकर हकीकत जान लेते हैं।“

राजा ने अपने सेवकों को इशारा किया। राजा के आदमी सेठ को बुलाने के लिए निकल पड़े।

 

महोत्सव जैसी भीड़ राजसभा में लगी थी। सेठ ने राजा के सेवकों के साथ राजसभा में प्रवेश किया। सेठ ने मित्रानन्द और वहां खड़े रहे पुरुष की और देखा। वह सब समझ गया।

राजा और विदेशी पुरुष के बीच सेठ के आने से पहले तक बहुत सारी देश–विदेश की बातें चली थी। विदेशी पुरुष की विद्वत्ता और विचक्षणता देखकर सभाजन भी आश्चर्य में पड़ गए थे।

“मित्रानन्द !” राजा ने विदेशी को नाम से बुलाया।

“यही है वह सेठ ?” मित्रानन्द ने सेठ के सामने देखकर ‘हां’ कहा।

“सेठजी ! मित्रानन्द कहता है कि आपको उसे 500 दीनार देने बाकी हैं, और आप पैसे देने को तैयार नहीं है… क्या यह बात सच है?” पूरी सभा ने सेठ के सामने देखा। सेठ थरथराने लगा। उसके गले की हड्डी मुश्किल से थूक निगलती हुई दिखाई दी।

“प्राणनाथ !” अपनी शक्ति एकत्रित करके सेठ बोला, “मेरे देने के बाकी है। मैं वो देने ही वाला था… देखिये 500 दीनार मेरे बटवे में ही है।” सेठ ने बटवा निकाला।

“आपको देने में विलंब क्यों हुआ?” राजा की लाल आँखें सेठ के ऊपर ही थी।

“प्राणनाथ ! जैसे कि आपको पता है कि अभी मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ है।” सेठ रो रहे हैं, ऐसा सभी को लगा। “और उसी वजह से बहुत सारे लोग मिलने आते है। मुझे… मुझे एक समय की भी फुरसत नहीं है, इसीलिए… इसीलिए प्राणनाथ!” सेठ के ऊपर राजा को दया आ गयी।

“ठीक है… आप इसे पैसे चुका दो। राजा आपके दुःख से दिलगीर है।” सेठ की बात को सच मानकर राजा ने उसे माफ किया। मित्रानन्द के हाथ में पैसे रखकर, उसे गुस्से से देखकर सेठ वहाँ से निकल गए।

मित्रानन्द भी ‘धन्यवाद’ कहकर राजसभा से निकल ही रहा था, कि राजा ने आवाज लगाई, ‘मित्रानन्द…’ मित्रानन्द की आँखों में चमक छा गई। मित्रानन्द वापस आया।

 

समुद्र में हो रही बरसात की तरह प्रहर घटिका में रेत के कण नीचे गिरते जा रहे थे। सभा को विसर्जित करके राजा के गुप्तखंड में राजा और मित्रानन्द बैठे हुए थे। राजा मित्रानन्द के पराक्रम की बातें सुनकर अति चकित हो गए थे।

“पर मित्रानन्द! हमारे राज्य को पिछले कई समय से परेशान कर रही, मृतक को खाने वाली मारी से तूने मृतक की रक्षा किस तरह की?” राजा ने आखिर में अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

“महाराज ! यह तो बहुत लम्बी कथा है।” मित्रानन्द जैसे कि अतीत में खो गया हो, ऐसा लग रहा था।

“प्राणनाथ ! उस भयानक डरावनी रात की बात ही अलग थी। वो शायद मेरे सत्व की परीक्षा की रात थी।

महाराज ! आपके राज्य की सारी हवेलियों के द्वार शाम होने के पहले ही बंद हो गए थे। जैसे कि शमशान हो ऐसा सूनसान वातावरण राज्यमार्ग पर छाया हुआ था। तभी मुझे दक्षिण दिशा से एक के बाद एक विचित्र कपड़ों में सज्ज, वीभत्स चेहरे वाले, बड़े नाकवाले भूत दिखे।

तभी उत्तर दिशा से आवाज आयी। मैंने उस तरफ देखा, एक बड़ी आँख वाली, विकराल, हड्डियाँ कँपाने वाली डाकिनी मुझे दिखाई दी। उसके दाँत बहुत विचित्र थे।

पूर्व दिशा में आग लगी हो ऐसा मुझे लग रहा था। वहां मैंने देखा तो वेताल आग छोड़–छोड़कर हंस रहे थे। उनके पैर बहुत रंग-बिरंगे थे। उनके ऊपर बालों के झुंड लटक रहे थे।

अस्ताचल दिशा की तो बात ही नहीं हो सकती। वहाँ तो खविस जैसे लंबे राक्षस धम–धम करते हुए आ रहे थे। मैं चारों और से शस्त्रधारियों से घिर चुका था।

हमारा घोर युद्ध प्रारंभ हुआ। 3 प्रहर तक मैं उन व्यंतरों के आक्रमण को निष्फल करता रहा। वे सभी मेरे गुरु द्वारा दिए गये हुए प्रभावशाली मंत्रों से नष्ट हो गए। मैं मेरी आग से जलती हुई तलवार के बल पर खड़ा था। और वहीं मुझे चौथे प्रहर में एक अबला दिखी, उसका स्वरूप बहुत विचित्र था।

उसका पूरा शरीर दिव्य सफ़ेद वस्त्र से आच्छादित था। उसका रूप तो रंभा जैसा था। उसके मुंह से आग निकल रही थी। और इसलिए वह काल जैसी लग रही थी। उसके हाथ में कैंची थी।

“अय मित्रानन्द! क्या यहाँ पर खड़ा है? यहाँ से चला जा। नहीं तो आज…” उसने अपने दाँत कचकचाये। मुझे पता चल गया कि यही ‘मारी’ है। मैं दृढ़ता से मृतक के पास ही खड़ा रहा।

उसकी आँखों में गुस्से की ज्वाला दिखाई दी। उसने मुझ पर आग की उल्टी की, मैंने उस आग को अपनी तलवार पर झेला। फिर हमारा घोर संग्राम हुआ। मारी को पता चल गया कि मैं अजेय था। और सुबह भी होने वाली थी, इसलिए उसने भागने का प्रयत्न किया।

मैंने उसका हाथ मरोड़ दिया और उसके हाथ पर से कड़ा खींच लिया। वह छूटने का प्रयास करते हुए भागी। मैंने उसे मारने के लिए छुरी निकाली। उसका हाथ मेरे हाथ से छूट गया। मैंने छुरी चलायी। उसकी बायी जांघ पर घाव करके यह छुरी मेरे हाथ में ही रह गई। वह वहाँ से गायब हो गयी।” राजा के मन में मित्रानन्द की घटना सुनकर रोमांच भर गया। उनके चेहरे पर विस्मय छा गया।

“बहुत आश्चर्यकारी कार्य किया तूने… पर…” मित्रानन्द की ओर राजा की दृष्टि थी।

“वो कड़ा तू मुझे दिखा सकता है ?” राजा ने बात की सत्यता को तपासने के लिए दाव फेंका। मित्रानन्द ने अपने अंगवस्त्र से कड़ा निकाला। राजा के हाथ में मित्रानन्द ने वह कड़ा दिया। राजा ने चारों और कड़े को घुमा घुमाकर देखा। राजा की आँखें चिह्न देखकर विस्फरित हो गई।

तूफान जैसे विचार राजा के मस्तिष्क में मंडरा रहे थे। “मित्रानन्द की बात सच नहीं हो सकती… यह कड़ा तो रत्नमंजरी…” राजा चिन्ता के बहाने कड़े के हकीकत की जांच करने के लिए राजखंड से उठकर बाहर निकले।

वे सीधे कन्यावास तरफ गये। राजा के गुप्तखंड से सातों हवेली में जाने का रास्ता निकलता था। राजा द्रुतगति से चलने लगे।

“यह नहीं हो सकता… मेरी बेटी… मेरी…” वह सातवें महल के घर पर पहुँचा। चौकीदार वहाँ खड़ा हो गया था। राजा सरसराता अंदर घुस गया।

वह एक–एक करके सारे खंड़ को पार करता गया। सारे खंड़ के पीछे ऊपर जाने की सीढ़ियां चढ़ने लगा।

राजकुमारी रत्नमंजरी का खंड सबसे ऊपर की मंजिल पर था। राजा का हृदय जोर–जोर से धड़कने लगा। रत्नमंजरी का खंड आया, वह बंद था। राजा ने धीरे से द्वार खोला।

अंदर अंधेरा होने से राजा को कुछ भी दिखाई नहीं दिया। दिए का मद्धिम प्रकाश खंड के आगे के हिस्से में फैल रहा था। रत्नमंजरी पहली नज़र में नहीं दिखाई दी। राजा ने ध्यान से देखा। खंड का पर्दा झूल रहा था। राजा की दृष्टि पलंग पर गई।

रत्नमंजरी के खर्राटे राजा को सुनाई दिये।

सर पर वज्र गिरा हो, ऐसी अनुभूति राजा को हुई। खुद से कोई आवाज ना हो जाये इसलिए राजा मुंह पर हाथ रखकर खंड से बाहर निकल गया। उसने खंड का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया।

राजा को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। उसकी शंका सच साबित हुई थी। ‘मारी’ दूसरी कोई नहीं, पर, पर… राजा आगे सोच नहीं पाता था।

अंधेरे में उसे मित्रानन्द ने कही हुई दोनों बातों का यकीन हो गया था। रत्नमंजरी के हाथ का कड़ा गायब था। राजा दूसरा चिह्न रत्नमंजरी में ना दिखे उसके लिए भगवन को प्रार्थना कर रहा था। और वही उसकी नजर रत्नमंजरी की बायीं जांघ पर गयी।

वहाँ उसने घाव को ढ़कने वाले सफेद कपड़े को देखा। उसकी आँखें इस हकीकत को देखने के लिए तैयार ही नहीं थी।

“क्या करें ? किसे निवेदन करें? जब अपने ही घर में ही पाप होगा, तो किसे क्या कह सकते है?” राजा की संपूर्ण शक्ति क्षीण हो गई। वह नीचे बैठ गया।

उसका मस्तिष्क शून्यमनस्क हो गया।

“भगवान ! अब तू ही कोई रास्ता बता… यह मेरे कुल पर जो कलंक लगा है उसे मिटा। कुछ देर तक वह वैसे ही नीचे बैठा रहा। फिर वहां से खड़ा हो गया।

एक अटल निर्णय ने उसके दिमाग में आकार ले लिया।

( क्रमशः )

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