“Power of Unity” की लेखमाला में हमने इसके पहले के लेखों में ‘UNITY’ के ‘UNIT’ तक के portion को समझ लिया था, जो इस प्रकार था:
U = Understanding N = No Negatives I = Involvement T = Transparency
और आज हम बात करेंगे ‘UNITY’ के अन्तिम लैटर ‘Y’ की…
Y = Young Mind, अर्थात् युवा मन…
पूरे विश्व में अनेक प्रकार के धर्म हैं। उनमें प्रभु वीर का शासन लोकोत्तर है, क्योंकि इस जिनशासन की व्यवस्था अत्यन्त निराली है ।
प्रभु ने स्वयं अपने मुख से कहा है कि, “मेरे शासन के लिए जो नियम बनाए गए हैं, उन नियमों में यदि कभी भी परिवर्तन करना चाहें, तो सुविहित गीतार्थ आचार्य एकत्रित होकर कर सकते हैं।”
वैसे ऊपरी ढंग से साधारण लगने वाली यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्वयं प्रभु ने भी नियमों की जड़ता को स्वीकार नहीं किया है। सिद्धान्तों के मूर्खतापूर्ण हठाग्रह के साथ जकड़े रहना प्रभु को इष्ट नहीं है। सत्य का तात्पर्य समझे बिना कदाग्रह करना प्रभु को पसन्द नहीं है।
प्रभु अत्यन्त उदार हैं, Down to Earth हैं, वास्तविकता की धरती पर रहकर बोलने वाले हैं।
और हम उनके सामने बिल्कुल ही उलटी और विपरीत विचारधारा से जकड़े रहने वाले लोग हैं।
वर्षों से चलती आ रही परम्परा को जरा भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।
जो वर्षों से करते आ रहे हैं, वही करते रहेंगे, इसी जिद के साथ जीने वाले हैं।
सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि, धार्मिक या संस्थाकीय नियमों में जड़तापूर्वक हठ रखने वाले संसार के नियमों में सभी प्रकार की छूट-छाट को और शिथिलता को हँसते हुए हर्षोल्लास के साथ स्वीकार
करते हैं और ऊपर से यह भी कहते हैं कि, “आज-कल ये सब कुछ करना पड़ता है, बच्चे मानते ही नहीं है, इसलिए करना पड़ता है। अगर इतना भी जाने नहीं देंगे तो फिर कैसे चलेगा?”
तो फिर धर्म, संघ, संस्था में क्यों पुराने नियमों के लिए इतना हठाग्रह, जिद पकड़े रहते हैं ? वही पुरानी, घिसी-पिटी स्टाईल से ही संचालन, व्यवस्था हो रही है ?
Why ? और उनके सामने आपने …
⮚ वेशभूषा-पोशाक में परिवर्तन स्वीकार किया, क्या आप धोती, टोपी, फेंटा पहनते हैं ?
⮚ लग्नादि प्रसंगों में परिवर्तन को स्वीकार किया, अब संगीत संध्या, रास-डांडिया वग़ैरह कितने होते हैं ?
⮚ बर्थ-डे सेलिब्रेशन में परिवर्तन को स्वीकार किया, अब लापसी, सीरा इत्यादि मिष्टान्न कितने घरों में बनते हैं ?
⮚ घर के एलीवेशन-फर्नीचर में परिवर्तन को स्वीकार किया, पुराने जमाने में बनने वाले दरवाजे कहीं देखने के लिए मिलते हैं ?
⮚ खाने-पीने में परिवर्तन को स्वीकार किया, आपको देसी आईटम्स् से तो पिज़्ज़ा, पास्ता और पाव- भाजी अधिक अच्छी लगती है ना ?
आपने जहाँ-जहाँ, जिन-जिन बातों में परिवर्तन स्वीकार किया है, वे योग्य हैं या अयोग्य इसकी चर्चा अभी नहीं करनी है किन्तु…
आप इतने तो ब्रॉड और बोल्ड माईन्ड के हैं कि इस परिवर्तन को स्वीकार करने की आपकी तैयारी है। तो फिर बाह्य जगत में आपका स्टैंड अलग और धर्म जगत में उससे बिल्कुल अलग, ऐसा क्यों ?
तो यहाँ भी परिवर्तन को अपनाओ !
शासन एवं शास्त्र सापेक्ष रहकर जिस प्रकार अधिक से अधिक जिनशासन को लाभ हो, इस प्रकार के परिवर्तन को अवश्य स्वीकार करना चाहिए ।
⮚ स्वामी-वात्सल्य के मेनु में देसी मिठाई के साथ युवाओं को अच्छी लगें ऐसी वस्तुओं को रखकर उन्हें धर्म-स्थानों की ओर आकर्षित करना चाहिए ।
⮚ ब्लैक-बोर्ड की घोषणा के साथ-साथ Social media का उपयोग करके युवाओं तक संघ के कार्यक्रम, अनुष्ठान, प्रवचनों की जानकारी पहुँचानी चाहिए ।
⮚ शास्त्रीय राग में गाये जाने वाले प्राचीन स्तवनों के साथ-साथ नये भक्तिपदों को गाने वाले युवा संगीतकारों को आमन्त्रित करके उनके द्वारा भी प्रभु-भक्ति का अनोखा माहौल तैयार करना चाहिए.
⮚ हाथ से लिखे हुए पुस्तक, बही और चोपड़ों के साथ-साथ कम्प्युटराईज़्ड् सिस्टम में व्यवहारों का हिसाब रखना अब समय की माँग है तो उसे भी सीखना चाहिए ।
⮚ कार्यक्रमों के आयोजनों में प्राचीनता को संभालते हुए युवाओं को आकर्षित करें ऐसे मैनेजमेन्ट भी होने चाहिए ।
बस… देखा ना ! इतनी बातों से ही कितनों के नाक चढ़ गए हैं !
कितनों को लगता होगा कि, क्या यहाँ पर शासन की नीलामी चल रही है ? शास्त्रीय पद्धति के नाश के लिए यह षड्यन्त्र रच रहे हैं ? क्या प्राचीनता के ऊपर आक्रमण करने का यह प्रयास नहीं है ? तो, हे प्राचीनता के पूजारी ! गहरी साँस लो, थोड़ा ठहर जाओ !
यदि आप सच में इतिहास जानते हो तो जरा इतिहास के पन्ने पलटकर देखो कि, समय की आवश्यकता अनुसार संघ, समाज ने परिवर्तन को स्वीकार किया है या नहीं ?
हर बार नये परिवर्तनों में दोष खोजकर उनकी Negativity फैलाते रहना, यह संकुचित विचारधारा वाले व्यक्तियों की निशानी है।
प्राचीनता हो या आधुनिकता, यदि दोष खोजने के लिए जाएंगे तो दोष दोनों में ही दिखेंगे।
Nokia कंपनी जो एक समय भारत में Mobile की नंबर 1 कंपनी थी, लेकिन समय की माँग के अनुसार उसने परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया, अब सभी जानते हैं कि उसकी क्या हालत है ? उसी प्रकार जिनशासन ने भी परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया होता तो कदाचित इतनी रौनक, उत्कर्ष और वृद्धि देखने के लिए नहीं मिलती ।
⮚ पू. देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के द्वारा आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, क्या उन्होंने यह गलत किया ?
⮚ पू. आर्यरक्षितसूरि म. सा. के द्वारा जैनकुलों की व्यवस्था की गई, क्या यह उन्होंने अयोग्य किया ?
⮚ पू. आ. बप्पभट्टीसूरि म. सा. के द्वारा दिगम्बर-श्वेताम्बर मूर्ति के भेद को समझाने के लिए कंदोरा- धोती की प्रणालिका का प्रारम्भ किया गया, क्या उन्होंने यह सही नहीं किया ?
आगमों के पुस्तकारूढ़ होने से हमारी सैद्धान्तिक धरोहर आगम शास्त्र हमें मिले। उन्हें पुस्तकारूढ़ करने के लिए प्रयत्न नहीं किया होता तो वे हमें प्राप्त होते ? (ठीक इसी प्रकार सभी बातों के लिए समझना चाहिए।)
हे परममित्र !
प्रत्येक परिवर्तन से नुकसान ही होगा, ऐसी ग्रन्थि से क्यों जकड़ चुके हो ?
समय परिवर्तनशील है। समय के अनुसार सतत परिवर्तनशील रहना, नये-नये बदलावों को स्वीकार करते रहना ही समय के साथ चलना है।
हमारे व्यक्तिगत पाँच वर्ष पहले के और वर्तमान के विचारों भी ज़मीन-आसमान जितना अन्तर आ गया है। पहले जो Wrong लगता था, आज वह right लगता है।
सालों पहले जब बहने पंजाबी ड्रेस पहनकर धर्मस्थलों पर जाती थी, तो इस प्रकार की टिप्पणी की जाती थी कि, “देखो… देखो…!! आज-कल की बहने साड़ी जैसे पारम्पारिक परिधानों को छोड़कर पंजाबन बनकर, ड्रैस पहनकर देहरासर-उपाश्रय आती हैं।”
और अब परिवर्तन हमारे विचारों को यहाँ तक लेकर आया है कि, जीन्स, शोर्ट्स के बदले साडी-ड्रेस पहनकर देहरासर-उपाश्रय जाए तो वह उचित वेश है।
एक बात हमेशा ध्यान में रखें !
पहले जो परिवर्तन आते थे, वो वर्षों-वर्षों के पश्चात् आते थे किन्तु अब तो रोज सुबह होती ही आपके सामने नये परिवर्तन बांहें फैलाकर खड़े होते हैं।
तो क्या आप रोज परिवर्तनों को कोसते रहेंगे ? विरोध करते रहेंगे ? दोष-Negativities ढूँढ़ते रहेंगे ? संघ, संस्था या समाज को उत्साह के साथ जोड़कर रखने के लिए परिवर्तन करते रहना चाहिए।
उम्र से भले ही वृद्ध हो जाओ, किन्तु दिलो-दिमाग से सदैव युवा ही रहना चाहिए।
युवा मन creative होता है, वह ऐसे कोई ना कोई ideas खोज निकालता है, जिससे संघ-शासन को लाभ होता है।
पूज्यपाद सिद्धान्त महोदधि आचार्य श्री प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा का श्रमणों की फौज तैयार करने का सपना साकार करने के लिए पूज्यपाद वर्धमान तपोनिधि गुरुदेव आचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा ने young mind का उपयोग किया, “शिविर” की मस्त एवं चुस्त idea को खोज निकाला। रग-रग में बसे हुए शासन राग के कारण से शिविर का यह idea गुरुदेव के लिए इतना successful रहा कि आज इसके मीठे फल का स्वाद पूरा संघ आनन्द से चख रहा है।
इस लेख के साथ संघ-शासन की एकता के लिए प्रारम्भ की हुई लेखमाला “Power of Unity” का यहाँ समापन होता है।
इस लेखमाला का आशय-तात्पर्य समझकर सभी लोग संघ भावना, संघ प्रेम, संघ समर्पण और संघ
सेवा में सदा समुद्यत रहें, तत्पर रहें, क्रियाशील बनें ! शासनप्रेमी बनकर शासन का विश्व में अभ्युदय करें !
जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो, त्रिविध, त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडं !
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दूध में से दही = सफेद दूध में से छाछ = सफेद दूध में से मक्खन = सफेद दूध में से पनीर = सफेद दूध में से घी = सफेद दूध परिवर्तन का स्वीकार करता है, वह भी अपना वास्तविक रंग को रखते हुए…! है ना कमाल…!
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