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Writer's picture Priyam

अनोखी अस्मिता

Updated: Apr 7




अस्तित्वाभिमान : I am something. यह अस्तित्वाभिमान है। मैं कुछ हूँ, दिमाग के इस भूसे से (पारे से) जमीन से ऊपर चलने वाला इंसान एक कच्ची सैंकड़ में गर्मागर्मी कर बैठता है। वस्तुपाल का क्या अस्तित्व था उसका मरणोत्तर प्रमाण भी बहुत अद्भुत है।

उसकी मृत्यु से वृद्धगच्छ के अधिपति पू. आ. श्री वर्धमानसूरिजी को ऐसा सदमा लगा कि जैसे शासन का पूरा स्तंभ गिर पड़ा हो। वैसे तो उनको कुछ भी वापरना नीरस ही हो गया था, पर इस प्रकार जीवन का अंत नहीं ला सकते थे, इसलिए उन्होंने आयंबिल का उग्र तप शुरू किया। अखंड आयंबिल।

मैं आपको पूछता हूँ, आपके जाने के बाद आप के निकटतम स्वजन भी आयंबिल करेंगे? अरे! आयंबिल की बात तो दूर है, होटल भी छोड़ सकेंगे? अरे! मनपसंद की एकाध चीज भी छोड़ देंगे? पूरी जिंदगी जिन स्वजनों को आप अपने मानकर चलते हैं, उनमें आप का है कौन? पूरी जिंदगी जिस संघ को आप पराया मानकर चलते हैं, यही हकीकत में आपका स्वजन होता है।

सर्वे सत्वा मिथ: सर्व- सम्बन्धान् लब्धपूर्विण:। साधर्मिकादिसम्बन्ध-लब्धारस्तु मिता: क्वचित् ॥

इस संसार में ऐसा एक भी संबंध नहीं है, जो हमारा सभी जीवों के साथ न हुआ हो। हमारे सभी के साथ माँ-बाप, पति-पत्नी, पुत्र-मित्र आदि सारे संबंध हो चुके हैं। नहीं हुआ तो एक साधर्मिक के साथ का संबंध। ऐसे प्रकार के संबंध विरल ही होते हैं।

संघ की अवगणना करके स्वजनों के पीछे भागने की चेष्टा, यह गंगा को छोड़कर मृगजल के जल के पीछे दौड़ने की चेष्टा है। स्वजन बैल के समान है, जिसे पूरी जिंदगी दोहने की जद्दोजहद करने के बाद सिर्फ लात ही मिलने वाली है। संघ, कामधेनु गाय है, जो सर्व मनोकामना पूरी कर सकता है। स्वजनमोह सर्व अनर्थ का मूल है। संघ वात्सल्य सर्व कल्याण का कंद है। हमें क्या करना चाहिये, यह हमें तय करना है।

जिसके पीछे आप पूरी जिंदगी खर्च कर डालो, उनको आपकी जीते जी भी परवाह नहीं है। तो आपके जाने के बाद की तो बात ही कहाँ करनी ?

विचार कीजिए कि वस्तुपाल का क्या अस्तित्व रहा होगा कि एक गच्छाधिपति उनके मृत्यु के बाद आजीवन अखंड आयंबिल तप शुरू कर दे। एक श्रावकत्व की इससे ज्यादा हाइट का प्रूफ और क्या होगा? हमारा अस्तित्वाभिमान इसलिए ही टिका है, कि हमारे पास हमारे अस्तित्व के तात्त्विक विचार ही नहीं है।

अनोखी अस्मिता

पू. आ. श्री वर्धमानसूरिजी के आयंबिल बहुत लंबे समय तक चले। वृद्धावस्था और घोर तप, इन दोनों का मिलन हुआ। संघ पारणा करने के लिए आग्रह करने लगा। परंतु वस्तुपाल की सताती हुई स्मृति उन्हें पारणा करने के लिए सहमत नहीं होने दे रही थी। आखिर में संघ के अत्यंत आग्रह से शंखेश्वर तीर्थ में दादा के दर्शन करने के बाद पारणा करने के लिए पूज्यश्री सहमत हुए।

संघ के साथ पूज्यश्री ने प्रयाण किया। परंतु रे भवितव्यता ! शंखेश्वर पहुंचने से पहले ही पूज्यश्री का शंखेश्वर दादा के ध्यान में कालधर्म हो गया। मृत्यु के पश्चात् वे देव बने, अपना पूर्व भव देखा। वस्तुपाल के प्रति अहोभाव वहाँ भी जागृत हुआ।

पराकाष्ठा के अस्तित्व के साथ अस्तित्वाभिमान शून्यता, यानी वस्तुपाल।

सभी के हृदय में बसने के साथ-साथ हृदय में संघ को बहाने वाला अस्तित्व, यानी वस्तुपाल।

वैरागी पूज्यों के भी अनुराग के पात्र बनने वाली अस्मिता, यानी वस्तुपाल।

पाचन 

पैसा सामान्यतः इंसान के दिमाग को खराब कर देता है। आज के कहे जाने वाले श्रीमंत जिनकी तुलना में दरिद्र लगे ऐसे वस्तुपाल के पास जो गुणपरिणति थी, वह हकीकत में आश्चर्यजनक थी। जिसके मूल में था संघ बहुमान। यदि ऐसी गुणपरिणति ना होती तो बाह्य दृष्टि से शासन के कार्य करने पर भी वस्तुपाल इस वैभव और पद को हजम नहीं कर पाते।

असली प्रश्न आप को अमृत मिला है या जहर उसका नहीं है? असली सवाल इतना ही है, कि आपने क्या पचाया ?

याद आती है वो कविता :

पचा सको तो अमृत से कम नहीं है वो भी, अमर हो गये शंकर जग में हलाहल से…..!

स्थानांग आगम सूत्र कहता है कि, यदि गुणपरिणति नहीं है तो संयम पर्याय, शिष्य परिवार, और श्रुत संपत्ति सब कुछ होने पर भी यह आत्मा के लिए अनर्थकारी बनता है। आर्थिक दृष्टि में आगे बढ़ने के हमारे प्रयास होते हैं, हमें जो पसंद हो उस आराधना में आगे बढ़ने के भी हमारे प्रयास होते हैं, किन्तु क्या गुणपरिणति पाने की तात्विक इच्छा हम में है ?

वैभव और राजसम्मानों में झूलते हुए भी वस्तुपाल के अंतर में गुणपरिणति का झरना निरंतर बहता रहता था। बाह्यभावों से वे अलिप्त थे। उनका मन आंतर भावों में डुबकी लगाया करता था। और उनकी इच्छा ऐसी थी, कि कभी भी आंतर भावों से उनको बाहर ही ना निकलना पड़े।

साधना की प्यास

इतने Giant साम्राज्य, Giant व्यवस्था और Giant समृद्धि के बीच भी वस्तुपाल बार-बार स्वाध्याय मग्न बन जाते थे। उनके लिखे हुए ग्रंथ आज भी मांडल के जिनालय में उपलब्ध हैं।

वस्तुपाल के दो प्रार्थना श्लोक हैं जो उनकी आंतर परिणति के प्रतिबिंब जैसे हैं।

कैसा था उनका अस्तित्व ? कैसे थे उनके मनोरथ? क्या थी उनकी तमन्ना ? अंदर से वे कैसी फीलिंग्स में खेलते थे, यह सब इन श्लोक से पता चलता है।

मेरे बहुत प्रिय हैं ये दो श्लोक:

संसारव्यवहारताऽरतमति-र्व्यावर्तकर्तव्यता- वार्तामप्यपहाय चिन्मयता, त्रैलोक्यमालोकयन्।

श्री शत्रुञ्जयशैलगुह्वरगुहा-मध्ये निबद्धस्थिति:, श्री नाभेय! कदा लभेय गलित-ज्ञेयाभिमानं मन:।

दादा आदीश्वर ! मेरा ऐसा दिन कब आयेगा कि संसार के सारे व्यवहार में मन नहीं रहेगा, प्रवृत्ति-निवृत्ति की बात तक नहीं रहेगी, मैं पूर्णतः ज्ञानमय बन जाऊँ, मैं तीनों लोक को ज्ञानस्वरूप देखूँ।

बस, शत्रुंजय की एक गहन गुफा में मैं बैठा हूँ,

ना मेरे मन को और कुछ जानना हो, ना ही उसे कोई अभिमान हो। 

वस्तुपाल सांसारिक युद्धों के कार्यों से लेकर, धार्मिक, तीर्थ निर्माण तक के सारे ही कार्य करते थे। पर इन सभी के साथ-साथ उनकी स्वाध्याय-धारा चालू थी। उनकी साधना की अभिलाषा बरकरार थी। भीतर से वे साधक थे। सर्वविरति के लिए तरसते थे।

स्वाध्याय

बिना स्वाध्याय के संघ के कार्य सम्यकता से नहीं किए जा सकते। जिसके पास स्वाध्याय नहीं है, वह आखिर में थक जाता है। स्वाध्याय कार्यों की ऊर्जा है, स्वाध्याय कार्यों का जीवन है, स्वाध्याय कार्यों का Director है, Producer है, और स्वास्थ्य कार्यों का सहायक है।

स्वाध्याय अच्छा नहीं लगता, कार्य अच्छे लगते हैं। इसका अर्थ यह है कि, थियरी अच्छी नहीं लगती प्रैक्टिकल अच्छे लगते हैं। हमारे पास दलील भी है, कि मेईन तो प्रैक्टिकल ही है ना? पर हम भूल जाते हैं कि थिअरी के बिना प्रैक्टिकल होते ही नहीं है।

आपको संघ की सेवा करनी है, तो आप प्रतिदिन ठोस स्वाध्याय कीजिए। गीतार्थ गुरु भगवंतों की वाणी श्रवण, या वाचन के रूप में हर रोज दो घंटे का समय आपको मिलता होगा। इससे सेवा शुद्ध होगी, संघ और आप की आत्मा के पक्ष में लाभ होगा।

इतना करने के साथ-साथ निरंतर सर पर गुरु होने चाहिये। दो घंटे के स्वाध्याय से गीतार्थ नहीं बन जाते। अनजाने में अनादि के दोषों से या छद्मस्थता से थोड़ा-बहुत जानकर हम कुछ गड़बड़ कर दें, ऐसी पूरी संभावना है। या तो एक गुरु के प्रति, या जब भी नजदीक में जो सविंग्न गीतार्थ गुरु भगवंत हो, उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव रख सकेंगे, तो ही आप संघ की सेवा कर सकेंगे।

(क्रमशः)

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